पीजेसुराजा तमिलनाडु के थूथुकुडी के कलेक्ट्रेट में बने ‘कैफ़े एबल’ पर काम करते हैं।
दस साल पहले, एक दुर्घटना में अपना दाहिना पैर खोने के बाद, 38 वर्षीय जेसुराजा के जीवन में एक ठहराव सा आ गया था। अपनी शारीरिक दुर्बलता के कारण उन्हें कोई रोजगार नहीं मिल पा रहा था और ऐसे में उन्होंने एक फोटोकॉपी की दुकान खोल ली, लेकिन इसमें भी उन्हें कोई विशेष फायदा नहीं होता था।
इस साल 7 जुलाई को, उनके दशक भर के संघर्ष का अंत तब हुआ जब उन्हें एक ‘कैफ़े’ में सफाई करने और सब्जी काटने की नौकरी मिल गई, जहाँ उन्हें हर महीने एक फिक्स वेतन मिलने लगा।
जेसुराजा उन 12 लोगों में से एक हैं, जिन्होंने ‘कैफ़े एबल’ में रोजगार पाया है। यहाँ 11 लोग लोकोमोटर दिव्यांग यानी पैरों से चलने में असमर्थ हैं और एक बहरे हैं।
‘कैफ़े एबल’ में ये दिव्यांग जन हेड शेफ, जूस मास्टर, टी मास्टर, बिलिंग क्लर्क सहित कई पदों के लिए नियुक्त किए गए हैं।
‘कैफ़े एबल’ की सोच के पीछे थूथुकुडी के जिला कलेक्टर संदीप नंदूरी का दिमाग है।
“मुझे अक्सर अलग-अलग दिव्यांग जनों से नौकरियों के लिए याचिकाएँ मिलतीं, लेकिन सभी को सरकारी नौकरी देना संभव नहीं था। इसलिए, हमने एक ‘कैफ़े’ खोलने के विचार के साथ उन्हें अपना उद्यम चलाने में सक्षम बनाने का फैसला किया,” संदीप नंदूरी ने ‘द बेटर इंडिया’ को बताया।
उन्होंने सबसे पहले एक स्वयं सहायता समूह का गठन किया, जिसमें वे दिव्यांग जन थे जिन्होंने उनसे नौकरी के लिए अनुरोध किया था। फिर, उन्होंने राजापलायम में ऑस्कर होटल मैनेजमेंट कॉलेज से बात कर इन दिव्यांग जनों को होटल मैनेजमेंट के 45 दिवसीय प्रशिक्षण पाठ्यक्रम में दाखिला दिलाया।
जहाँ ‘कैफ़े एबल’ की ‘ड्रीम टीम’ को ग्राहकों को संभालना, संकट के समय निपटना और पैसों के प्रबंधन आदि के बारे में सिखाया गया।
इसके बाद तीन निजी कंपनियों के सीएसआर फंड और जिला प्रशासन द्वारा धन जुटाकर कलेक्ट्रेट परिसर में ही ‘कैफ़े’ बनाया गया। जिला प्रशासन ने इन दिव्यांग जनों से ज़मीन के किराए की भी उम्मीद नहीं रखी क्योंकि दिव्यांग जन ‘कैफ़े’ का किराया भरने में सक्षम भी नहीं थे और जिला प्रशासन का मकसद भी इन दिव्यांग जनों को आत्मनिर्भर बनाना ही था।
‘कैफ़े एबल’ के पास आज रसोई के लिए सभी नवीन संसाधन उपलब्ध है। स्वादिष्ट दक्षिण भारतीय नाश्ते, दोपहर और रात के भोजन, गर्म पेय पदार्थों से लेकर जूस तक, इनके पास सभी चीजें उचित दरों पर उपलब्ध है।
दिव्यांग जनों के प्रति लोगों की सोच को बदलने के लिए संदीप नंदूरी अक्सर कैफे में चर्चा और बैठकें करते हैं।
“हम वहां से स्टाफ मीटिंग के लिए खाने की चीजें भी मंगवाते हैं और जिला अधिकारियों को भी वहां भोजन करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, “संदीप नंदूरी ने कहा।
संदीप नंदूरी की इस पहल के चलते ‘कैफ़े’ के ग्राहकों में भी वृद्धि हुई है। आज ‘कैफ़े’ के प्रतिदिन की कमाई लगभग 10 हज़ार रुपए है।
‘कैफ़े’ में वित्त प्रबंधन इस तरह से किया गया है कि लाभ का आधा हिस्सा बैंक में जमा किया जाता है जहाँ से दिव्यांग कर्मचारियों को वेतन मिलता है। बाकी के पैसे सामग्री खरीदने के लिए उपयोग में लिए जाते हैं।
“कुछ शुरुआती सहायता की आवश्यकता थी, इसके बाद जल्द ही यह दिव्यांग कर्मचारी अपने दम पर ‘कैफ़े’ का प्रबंधन करने में सक्षम हो गए। आज, सैकड़ों लोग रोज़ाना ‘कैफ़े’ जाते हैं। लंच का समय आम तौर पर इनके लिए सबसे व्यस्त समय होता है,”संदीप नंदूरी ने कहा।
संदीप नंदूरी का मानना है कि एक महीने से अधिक समय हो गया है और ‘कैफ़े’ सही तरीके से संचालित हो रहा है। यह समावेशिता और स्वीकृति की दिशा में एक बड़ा कदम है।
संदीप नंदूरी ने इन दिव्यांग कर्मचारियों के रवैये में भी बदलाव देखा है और यह उनके लिए सबसे बड़ी उपलब्धि है। जब प्रशिक्षण शुरू हुआ था तब दिव्यांग जनों में आत्मविश्वास की कमी थी और वे असफलता से डरते थे। आज, उनके व्यवहार में भारी बदलाव आया है। उद्यम में सफल होने के लिए उनके डर को विश्वास की भावना से बदल दिया गया है।
संपादन – मानबी कटोच
मूल लेख – गोपी करेलिया
यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है, या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ साझा करना चाहते हो, तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखें, या Facebook और Twitter पर संपर्क करें। आप हमें किसी भी प्रेरणात्मक ख़बर का वीडियो 7337854222 पर व्हाट्सएप कर सकते हैं।
We at The Better India want to showcase everything that is working in this country. By using the power of constructive journalism, we want to change India – one story at a time. If you read us, like us and want this positive movement to grow, then do consider supporting us via the following buttons: