गामा पहलवान: कद कम बता कर जिसे किया टूर्नामेंट से बाहर, उसी ने जीता ‘रुस्तम-ए-जहाँ’ का ख़िताब!

देश को फ़तेह कर यह पहलवान दुनिया को फ़तेह करने निकला और 1910 में लंदन में हो रही ‘चैंपियंस ऑफ़ चैंपियंस’ नाम की कुश्ती प्रतियोगिता में हिस्सा लेने जा पहुँचा।

गर आप बड़ौदा के संग्रहालय में गए हैं तो वहां बड़े ही प्यार से सहेज कर रखा गया 1200 किलो का पत्थर तो ज़रूर देखा होगा। एक नज़र में तो सभी लोग यही सोचते हैं कि आख़िर इस पत्थर को संग्रहालय में क्यों रखा गया, कोई ख़ास पत्थर है क्या, किसी ख़ास स्थान का होगा, वगैहरा, वगैहरा।

पर इस पत्थर के संग्रहालय तक पहुँचने की कहानी बड़ी ही दिलचस्प है। इस पत्थर पर बड़े-बड़े शब्दों में उकेरा गया है कि 23 दिसंबर 1902 के दिन ग़ुलाम मोहम्मद बख़्श इसे लेकर कुछ दूर तक चले थे। एक आदमी 1200 किलो के पत्थर को अकेले उठाकर चला, यह बात बेशक हैरान करने वाली है। पर अगर आपको यह पता हो कि यह ग़ुलाम मोहम्मद वास्तव में कौन था तो फिर आपका सारा संदेह दूर हो जायेगा।

ग़ुलाम मोहम्मद बख़्श उर्फ़ गामा पहलवान, जी हाँ, वही गामा पहलवान, जिसने कुश्ती में न सिर्फ़ ‘रुस्तम-ए-हिन्द’ बल्कि ‘रुस्तम-ए-जहाँ’ का ख़िताब भी हासिल किया। वही गामा पहलवान जिसके दम पर आज भी भारत को कुश्ती में विश्व विजेता कहलाने का मुक़ाम हासिल है।

गामा पहलवान

गामा पहलवान का जन्म 22 मई 1878 को अमृतसर में हुआ था। उनके पिता, चाचा व ताऊ, सभी पहलवान थें। उन्होंने बचपन से ही घर में पहलवानी के गुण सीखे। पहलवानी न सिर्फ़ उनके खून में बल्कि परवरिश में थी।

तभी तो 5 वर्ष की उम्र में पिता का साया सिर से उठने के बावजूद कुश्ती और अखाड़े से उनका रिश्ता नहीं टूटा। उनके पिता के देहांत के बाद दतिया (अब मध्यप्रदेश में) के तत्कालीन राजा भवानीसिंह ने गामा को अपने संरक्षण में ले लिया। उन्होंने ही गामा के खाने-पीने, कसरत, वर्जिश आदि की ज़िम्मेदारी ली।

वैसे तो दूसरे पहलवानों की तुलना में गामा का कद छोटा था, पर उनके हौसले और हर एक दांव-पेंच पर उनकी समझ बड़े-बड़े पहलवानों को चित्त कर देती थी। मात्र 12 साल की उम्र में ही उन्होंने साबित कर दिया था कि यह पहलवान आगे चलकर यकीनन कुछ अलग करेगा।

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साल 1890 में जोधपुर के महाराज ने देशभर के पहलवानों के लिए एक प्रतियोगिता आयोजित की, जिसमें पहलवानों को अपनी कसरत, वर्जिश और कुश्ती की एक झलक दिखानी थी, ताकि राजा साहब ‘सबसे ताकतवर पहलवान’ चुन पाएं। देशभर से करीब 400 पहलवान आये थे, जिन्हें अपने दम-ख़म से राजा जी की शाबाशी जीतनी थी। एक से एक मुश्किल कसरत करनी थी, आसन करने थे और एक-दूसरे से कुश्ती भी लड़नी थी, जो यह नहीं कर पाता, वह खेल से बाहर हो जाता।

ये सब पहलवान गामा से उम्र और लम्बाई में काफ़ी बड़े थे, फिर भी गामा इस मुकाबले के अंतिम 15 पहलवानों में टिके रहे। एक 12 साल का लड़का 400 की भीड़ में आख़िरी 15 पहलवानों में अपना नाम बना गया, इस बात ने राजा साहब को बहुत प्रभावित किया और उन्होंने गामा को इस प्रतियोगिता का विजेता चुन लिया। बस फिर क्या था, गामा के नाम के चर्चे पूरे देश में हो गये। इसके बाद कभी गामा ने पलटकर नहीं देखा।

दंड करते हुए गामा
उठक- बैठक करते हुए गामा

19 साल का होते-होते गामा ने देश के कई नामचीन पहलवानों को पटखनी दे दी थी और फिर बारी आई ‘रुस्तम-ए-हिन्द’ रहीम बख़्श सुल्तानीवाला से लड़ने की। पंजाब के गुजरांवाला के रहने वाले रहीम बख़्श सुल्तानीवाला की लम्बाई गामा से दो फीट ज़्यादा ही थी। और तब तक कोई भी रहीम का सानी नहीं था।

लाहौर में दोनों के बीच कुश्ती का दंगल रखा गया। कहते हैं कि सारा लाहौर उस दिन सिर्फ यह दंगल देखने मैदान में टूट पड़ा था। तकरीबन सात फुट ऊंचे रहीम के सामने पांच फुट सात इंच के गामा बिलकुल बच्चे लग रहे थे। सबने यही सोचा था कि थोड़ी देर में रहीम गामा को चित कर देंगे। घंटों लोग चिल्लाते रहें, कभी रहीम पर तो कभी गामा पर सट्टा लगता रहा, भाव बढ़ते- घटते रहे। और अंत में नतीजा कुछ नहीं निकला। न कोई हारा और न ही कोई जीता, बराबरी पर यह खेल खत्म हुआ। पर इस मुक़ाबले के बाद गामा हिंदुस्तान भर में मशहूर हो गए।

गामा ने 1898 से लेकर 1907 के बीच दतिया के गुलाम मोहिउद्दीन, भोपाल के प्रताप सिंह, इंदौर के अली बाबा सेन और मुल्तान के हसन बख़्श जैसे नामी पहलवानों को लगातार हराया। 1910 में एक बार फिर गामा का सामना रुस्तम-ए-हिंद रहीम बख़्श सुल्तानीवाला से हुआ। एक बार फिर मैच ड्रॉ रहा। अब गामा देश के अकेले ऐसे पहलवान बन चुके थे, जिसे कोई हरा नहीं पाया था।

देश को फ़तेह कर यह पहलवान दुनिया को फ़तेह करने निकला और 1910 में लंदन में हो रही ‘चैंपियंस ऑफ़ चैंपियंस’ नाम की कुश्ती प्रतियोगिता में हिस्सा लेने के लिए पहुँच गया। लेकिन यहाँ खेल के नियमानुसार गामा की लम्बाई कम होने के कारण उन्हें इस प्रतियोगिता में भाग नहीं लेने दिया गया। बस फिर क्या था, गामा का माथा फिर गया और उन्होंने एक-एक करके टूर्नामेंट में आये सभी पहलवानों को चुनौती दे डाली कि अगर कोई भी उन्हें हरा दे तो वे खुद अपनी जेब से जीतने वाले को 5 पौंड का इनाम देंगें और हिंदुस्तान लौट जायेंगें।

सबसे पहले उनसे एक अमरीकी पहलवान मुकाबला करने आया। पर अमेरिकी चैंपियन बेंजामिन रोलर को उन्होंने सिर्फ 1 मिनट, 40 सेकंड में ही चित कर दिया। फिर अगले दिन गामा ने दुनिया भर से आये 12 पहलवानों को मिनटों में हराकर तहलका मचा दिया। आयोजकों को हारकर गामा को दंगल में एंट्री देनी पड़ी।

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फिर आया सितम्बर 10, 1910 का वह दिन जब ‘जॉन बुल’‘ प्रतियोगिता में गामा के सामने विश्व विजेता पोलैंड के स्तानिस्लौस ज्बयिशको थे। पर उन्हें भी गामा ने पहले ही राउंड में एक मिनट में पटखनी दे दी। अगले ढाई घंटे तक यह  मुकाबला चलता रहा, लेकिन कोई नतीजा न निकला और मैच ड्रा हो गया। पर एक विजेता तो चाहिए था, इसलिए एक हफ्ते बाद फिर से कुश्ती रखी गयी। 17 सितंबर 1910 को ज्बयिशको लड़ने ही नहीं आए और गामा को विजेता मान लिया गया। पत्रकारों ने जब ज्बयिशको से पूछा तो उनका कहना था, ‘यह आदमी मेरे बूते का नहीं है।’ जब गामा से पूछा गया तो उन्होंने कहा, ‘मुझे लड़कर हारने में ज़्यादा ख़ुशी मिलती बजाय कि बिना लड़े जीतकर!’

इस तरह, गामा वर्ल्ड हैवीवेट चैंपियन बनने वाले भारत के पहले पहलवान बन गए। यह खिताब रुस्तम-ए-जहाँ के बराबर था।

एक कुश्ती के दौरान

1911 में गामा का सामना फिर रहीम से हुआ। इस बार रहीम को गामा ने चित कर दिया। इसके बाद, 1929 में गामा ने आखिरी प्रोफेशनल फाइट लड़ी। उन्होंने कुश्ती को कभी अलविदा तो नहीं कहा, पर इसके बाद उन्हें कभी भी कोई प्रतिद्विन्दी नहीं मिला, जिससे वे लड़ें। औपचारिक तौर पर उन्होंने साल 1952 में कुश्ती से विदाई ली। उनके 50 साल के करियर में कोई भी गामा पहलवान को नहीं हरा पाया।

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गामा सिर्फ़ पहलवानी में ही नहीं बल्कि इंसानियत में भी सबसे ऊपर थे। साल 1947 में बंटवारे का कहर देश पट टूटा। उस समय गामा अमृतसर से लाहौर की मोहिनी गली में बस गए थे। बंटवारे ने हिंदू-मुसलमान के बीच बड़ी दीवार खड़ी कर दी थी। गली में रहने वाले हिंदुओं की जान खतरे में थी। पर जब गामा के अपने कौम के लोग हिन्दू परिवारों का खून बहाने के लिए आगे बढ़े तो ‘रुस्तम-ए-जहाँ’ गामा उनके सामने दीवार बनकर खड़े हो गये। इतना ही नहीं, उन्होंने अपने खर्चे पर सभी हिन्दुओं को सही-सलामत हिन्दुस्तान भिजवाया।

गामा ने अपने जीवन के अंतिम कुछ साल पाकिस्तान में गुज़ारे। पर फिर भी हिंदुस्तान के लिए उनकी और उनके लिए हिंदुस्तान की मोहब्बत कम न हुई। बिड़ला परिवार की तरफ से हर महीने उनके लिए मासिक पेंशन जाती थी और बताया जाता है कि जेआरडी टाटा भी उनके लिए पैसे भेजते थे।

उन्होंने अपने जीवन में दूसरों को प्रेम और सम्मान दिया और अपने आख़िरी पल तक वही पाया। अपराजित गामा को कभी भी अपनी सफलताओं का घमंड नहीं हुआ। बल्कि जब एक इंटरव्यू के दौरान उनसे पूछा गया कि उनके लिए सबसे तगड़ा प्रतिद्वंदी कौन रहा था। गामा ने रहीम सुल्तानीवाला का ज़िक्र किया और कहा,

“हमारे खेल में अपने से बड़े और ज़्यादा क़ाबिल खिलाड़ी को गुरु माना जाता है। मैंने उन्हें दो बार हराया ज़रूर, पर दोनों मुकाबलों के बाद उनके पैरों की धूल अपने माथे से लगाना नहीं भूला।”

23 मई 1960 को इस महान पहलवान ने दुनिया से विदाई ली। पर आज भी जब गामा पहलवान का जिक्र होता है, तो उन्हें जानने वाले भारतीयों की आँखों में एक अलग ही चमक उतर आती है। 20वीं सदी के सबसे प्रभावशाली मार्शल कलाकार ब्रूस ली भी गामा पहलवान के प्रशंसक रहें। उन्होंने ख़ास तौर पर गामा पहलवान के नियमों को अपने जीवन का हिस्सा बनाया।

आज भी पटियाला के नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ स्पोर्ट्स म्यूजियम में आपको गामा पहलवान द्वारा कसरत के लिए इस्तेमाल की जाने वाली चीज़ें देखने को मिल जाएंगी। शायद अब गामा पहलवान केवल एक इतिहास है, पर इस प्रेरक इतिहास की कहानी से कई पहलवानों ने अपने भविष्य को संवारा है और आगे भी संवारते रहेंगे!

संपादन – मानबी कटोच


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