कुमाऊंनी होली! जब उत्‍तराखंड का पर्वतीय समाज झूम उठता है शास्‍त्रीय रागों और ठुमरी की तान पर!

इधर पूस का पहला इतवार आता है... और उधर कुमाऊं के आंगनों में होली की सुगबुगाहट होने लगती है। हैरान हैं न आप, कि ऐन सर्दी में कैसी होली? चलो चलते हैं आज उत्तराखंड के पहाड़ों की तरफ़, जहां होली एक या दो रोज़ नहीं बल्कि पूरे ढाई—तीन महीने चलने वाला त्यौहार है।

धर पूस का पहला इतवार आता है… और उधर कुमाऊं के आंगनों में होली की सुगबुगाहट होने लगती है। हैरान हैं न आप, कि ऐन सर्दी में कैसी होली? चलो चलते हैं आज उत्तराखंड के पहाड़ों की तरफ़, जहां होली एक या दो रोज़ नहीं बल्कि पूरे ढाई—तीन महीने चलने वाला त्यौहार है।

हिमालय की निगहबानी में अंगड़ाई लेते इस राज्‍य में,  मौसमों के साथ बदलता है होली का स्वरूप। पूस के महीने में जब यहां समूची कायनात कड़ाके की सर्दी की गिरफ़्त में होती है, तब मौसम को हल्की गुनगुनाहट से भरने के लिए शुरू हो जाती हैं होली की महफ़िलें। सूरज डूबते ही किसी भी घर में ढोल, मंजीरे, हारमोनियम, हुड़के, चिमटे, ढपली, झांझी और यहां तक कि थालियों संग शुरू हो जाता है होली गायन। घरों के भीतर बिछ जाती हैं दरियां, गद्दे-गूदड़ी और सांझ के पक्‍के रागों में आलाप लगते हैं, फिर मध्‍यरात्रि के रागों तक आरोह-अवरोह के स्‍वर उषाकाल में प्रभाती रागों पर आकर ही उतरते-ठहरते हैं। रात-रात भर चलने वाली इन महफिलों का आगाज़ राग धमार, कल्‍याण और श्‍याम कल्‍याण के साथ होता है, फिर मध्‍यरात्रि के राग विहार, जैजेवंती के अलावा यमन, पीलू, झिंझोटी, भीमपलासी, बागेश्‍वरी जैसे विशुद्ध शास्‍त्रीय रागों में डूबता-उतराता है पहाड़ी समाज।

कुमाऊंनी होली का यह स्‍वरूप बैठकी होली कहलाता है जिसमें सधे हुए, पारंगत होल्‍यार (होली गाने वाले गायक) मीराबाई, कबीर, सूर, तुलसी के अलावा नज़ीर जैसे शायर तक को गाते हैं। ठुमरी भी सुनाई देती है।ऐसे चटख रंग डारो कन्‍हैया के स्‍वर से गूंजते हैं पहाड़ी घर-आंगन। होली के इन गीतों में अवधी और ब्रज या मगधी-भोजपुरी के शब्‍दों का प्रयोग हैरान करता है।

हिमालयी विषयों के एन्‍साइक्‍लोपीडिया तथा जाने-माने इतिहासकार डॉ. शेखर पाठक होल्‍यारों के गीतों में अवधी-ब्रज की पैठ को उन प्रवासों का संकेत मानते हैं, जिनसे वर्तमान उत्‍तराखंडी समाज का निर्माण हुआ है।

डॉ. पाठक कहते हैं,  ”पहाड़ी समाज का सामूहिक पर्व है होली, जो शहरों की हुड़दंगी और फूहढ़ होली से कहीं दूर, परंपराओं और शास्‍त्रीय एवं लोक संगीत के रस में रची-बसी है। आज भी इस पर्व पर लोग साल भर की नाराज़गी भुलाकर आपस में गले लग जाते हैं।”

एक मुहल्‍ले से दूसरे और एक घर से दूसरे घर बैठकी होली गायन का यह सिलसिला शिवरात्रि तक चलता है और तब खड़ी होली (बंजारा होली) की धमक पूरे पहाड़ी समाज को अपने आगोश में ले लेती है। अब तक सर्दी अपने आख़िरी छोर पर पहुंच चुकी होती है और बसंत अपनी पूरी गदराहट के साथ हर शै पर तारी हो लेता है। लिहाज़ा, होली के गीत श्रृंगारिक होने लगते हैं, उनमें प्रवासी पिया की याद, विछोह और पिया मिलन की आस के स्‍वर समा जाते हैं। देवर-भाभी की छेड़छाड़ शामिल हो जाती है। होल्‍यारों की टोलियां एक आंगन से दूसरे आंगन में टपती फिरती हैं, गोलाकार समूहों में, एक-दूसरे के कंधों पर कुहनियां टिकाएं, गोल-गोल घूमते हुए पद संचालन की खास लय-ताल निभाते हैं और उनके गीतों में उतर जाता है पहाड़ी जीवन का राग-अनुराग–

‘’बुरुशी का फूलो को कुमकुम मारो, उन कन चारिगे बसंती नारंगी

पार्वती जू की झिलमिल चादर ….

और नज़ीर की शायरी के बगैर तो होली अधूरी है –

”जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की

और दफ़ के शोर खड़कते हों, तब देख बहारें होली की

महबूब नशे में छकते हों तब देख बहारें होली की’’

 

बुरांश की झमक देखते ही बनती है इन दिनों और सरसों भी फूल चुकी होती है, प्योंली के फूल भी आंखें खोल लेते हैं और खेतों में गेहूं की बालियां सरसराने लगी हैं।

प्रकृति के इस नवयौवना रूप का उत्सव मनाने ही शायद उत्तराखंड में फूलदेई और होली जैसे सामूहिक पर्व चले आए हैं।

फोटो साभार 

बसंत से होते हुए शिवरात्री और फिर फागुन एकादशी तक होली अपने अवरोह में होती है। इस बीच, होली की मस्‍ती में एक और रूप आ जुड़ता है। घर-घर में महिला होली की महफिलें सजने लगती हैं। जब पुरुष नहीं होते, तो महिलाएं स्‍वांग रचाती हैं, ठेठर (थियेटर की लोक अभिव्‍यक्ति) करती हैं, यानी घर से नदारद पुरुष के लिबास में, दाढ़ी-मूंछ लगाकर उसकी नकल उतारी जाती है।

होली ऐगे, रंग लहके … से लेकर गौर्दा, गिर्दा, चारूदत्‍त पांडेय जैसे लोक गीतकारों के होली गीतों से लहक उठते हैं गाँव के गाँव।

खूब ठिठोली होती है घर-आंगनों में। और साथ में चलते हैं चटपटे आलू के गुटके, खीरे का रायता, इलायची वाली मीठी चाय। इधर, कुछ समय से मैदानी प्रवासियों के साथ पहाड़ों में गुजिया भी चली आयी है।

समकालीन मसलों से लट्ठमलठ करती होली

देश के राजनीतिक केंद्र से दूर सही पहाड़ी समाज, मगर राष्‍ट्रीय मुद्दों से बेज़ार कभी नहीं रहा। यही वजह है कि कभी जलियांवाला कांड का जिक्र होली गीतों में घुस आया, तो कभी उत्‍तराखंड आंदोलन के शहीदों को गिर्दा ने अपनी वाणी से श्रद्धासुमन समर्पित किए थे। उधर, गौर्दा ने तीस के दशक में जब होली लिखी तो कह उठे –

अपना गुलामी से नाम कटा दो बलम

तुम स्‍वदेशी में नाम लिखा लो बलम …

इसी तरह, स्‍वतंत्रता संग्राम के दिनों की होली में पहाड़ी अंचल में सुनते थे ये शब्‍द –

मोहे खद्दर की साड़ी ला दे बलम …

और उत्‍तराखंड के परम प्रिय जनकवि गिरीश चंद्र तिवाड़ी ‘गिर्दा’ तो एक कदम आगे ही निकल गए थे –

झुको आयो शहर में व्‍योपारी

पेप्‍सी-कोला की गोद में बैठी, संसद मारे पिचकारी

सामाजिक सरोकारों से भी लोहा लिया जाता रहा है होली गायन के बहाने –

कालो किसनिया चैन ले गयो रे

मेरा मन में उदिख लगो गयो रे …

यहां किसनिया असल में, नेता को इंगित करता है और पहाड़ी समाज जब पूरी ठसक के साथ इसे गाता है तो कृष्‍ण के बहाने राजनीति के उन खूनचूसकों को उलाहना देता है, जिनकी मनमानियों से वह दुखी है।

प्रवासियों और सामाजिक संगठनों का योगदान

उत्‍तराखंडी समाज ने जब अपनी पहाड़ी जड़ों से टूटकर मैदानों का रुख किया, तो वह अपने साथ अपनी पोटली में बांध ले गया था परंपराओं के बीज, जिनकी खेती आज लखनऊ से लेकर दिल्‍ली, मुंबई, इलाहाबाद समेत अमरीकी ज़मीन पर भी लहलहाने लगी है। इन जगहों पर भी बैठकी होली की परंपरा कायम हो चुकी है। हालांकि पहाड़ में एक समय ऐसा भी आया था जब लगा कि हम होली की समूची सांस्‍कृतिक विरासत को खोने के कगार पर पहुंच चुके थे।

डॉ. पाठक कहते हैं, ‘’नैनीताल में युगमंच और अल्‍मोड़ा के हुक्‍का क्‍लब जैसे संगठनों ने आगे बढ़कर होली जैसी कई परंपराओं को सहेज लिया। पिथौरागढ़, बागेश्‍वर, चंपावत तक में सामाजिक संगठनों ने यह जिम्‍मा लिया और एक बार फिर होल्‍यारों की रौनकों ने बस्‍ती-बस्‍ती रंग डाली है।

पुरानी है होली की परंपरा

कुछ इतिहासकार इसे चंद वंशों के ज़माने से चली आ रही परंपरा बताते हैं, यानी एक हज़ार साल पुरानी हो चली है पहाड़ी होली। उन्‍नीसवीं सदी के कवि गुमानी पंत (1791-1846) के रचे होली गीत आज भी गाए जाते हैं। यानी बीते दो सौ सालों से तो होली की अक्षुण्‍ण परंपरा का साक्षी रहा है उत्‍तराखंड का समाज।

कुमाऊं से पश्चिमी नेपाल के अंचलों तक में होली का यही रूप दिखता है। अलबत्‍ता, गढ़वाल में ऐसी होली अतीत में नहीं दिखायी देती थी, यों इधर कुछ सालों से वहां भी होल्‍यारों की बंदिशें, राग-रागिनियां और रंगों की छींट पहुंच चुकी है।

फागुन एकादशी से उड़ता अबीर-गुलाल

होली खेलने के लिए हर साल नए सफेद वस्‍त्र सिलवाए जाते हैं और फागुन की एकादशी से लोग एक-दूसरे पर गुलाल-अबीर लगाने लगते हैं। फिर छलड़ी या छरड़ी यानी मुख्‍य होली के दिन तक पूरे पांच दिनों तक इन वस्‍त्रों को ही पहना जाता है। मौसम में घुली ठंड के चलते कुमाऊंनी होली में पानी डालने का चलन नहीं रहा है।

इतवारी घुम्मकड़ी की लेखिका अलका कौशिक, बैठकी होली मनाते हुए

फोटो साभार 

होली पर छिड़ी चर्चा के बहाने डॉ. पाठक अपने बचपन में लौट जाते हैं – ‘’हम बचपन में फूलों-पत्तियों, कच्‍ची हल्‍दी वगैरह से ही रंग बनाया करते थे, केमिकल रंगों का कोई नामलेवा नहीं होता था। यहां तक कि तब होली में शराब जैसी बुराई भी नहीं घुसी थी। फिर धीरे-धीरे, प्राकृतिक रंगों की जगह गुलाल ने ले ली, मस्‍ती का पुट हावी हुआ और भांग-शराब भी घुस आयी मगर आज तक जो बचा रहा गया है, वह है होली का शास्‍त्रीय गायन, लोक गायन और वैमनस्‍य भुलाकर इस सामुदायिक पर्व को भरपूर उल्‍लास के साथ मनाने की भावना।”

बुढ़ाती भी है होली!

कुमाऊं की होली शास्‍त्रीय संगीत की तान की तरह होती है, जो धीरे-धीरे आलाप लगाते हुए ऊपर उठती है, फिर उतने ही धैर्य से नीचे आती है। मुख्‍य होली के दिन होली के रंग हवाओं में उड़ते हैं, रंगों की छींट से सफेद वस्‍त्रों की रंगत खिल उठती है और फिर आशीष दिए जाते हैं। गांव के बुजुर्ग हल्‍दी का पीठिया लगाते हैं, परिवार के हर सदस्‍य का नाम लेकर आशीष वचन कुछ यों कहे जाते हैं – ‘’आज का बसंत कैका घरो, हो हो हुलक रे कैका घरो’’। गुड़ बंटता है, हलवे के दोने बंटते हैं। कहीं-कहीं होली के मुख्‍य उत्‍सव के बाद तक भी होली से जुड़ी परंपराएं जारी रहती हैं, और धीरे-धीरे होली ‘बूढ़ी’ होती है। अगले बरस फिर यौवना होने के लिए।

(संपादन – मानबी कटोच )


यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ बांटना चाहते हो तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखे, या Facebook और Twitter पर संपर्क करे। आप हमें किसी भी प्रेरणात्मक ख़बर का वीडियो 7337854222 पर भेज सकते हैं।

We at The Better India want to showcase everything that is working in this country. By using the power of constructive journalism, we want to change India – one story at a time. If you read us, like us and want this positive movement to grow, then do consider supporting us via the following buttons:

X