तक़रीबन 1000 सालों से सूरज की पहली किरण मोढेरा में सूर्य मंदिर के गर्भगृह में गिरती है। जहां कभी सूर्य देव की एक सोने की मूर्ति रखी हुई थी। ऐसा कहा जाता है कि सूर्य की किरणें मूर्ति के सिर पर लगे हीरे से टकराती थीं और इस पूरे पवित्र स्थान पर एक सुनहरा रंग छा जाता था।
हालांकि, अब यहां न तो वह मूर्ति है और न ही पूजा करने वाले लोग। लेकिन आज भी गुजरात के मेहसाणा जिले में स्थित 11वीं शताब्दी का यह मंदिर, शानदार नक्काशी और बीते युग की महिमा का साक्षी बना हुआ है।
ऐसा माना जाता है कि मोढेरा में इस सूर्य मंदिर को सोलंकी वंश के राजा भीमदेव प्रथम ने बनवाया था। भीमदेव प्रथम सूर्यवंशी थे और सूरज को ही अपना इष्ट देव मानते थे, इसलिए उन्होंने सूर्य की पूजा के लिए यह मंदिर बनवाया था। जो सूरज की शक्ति और इसकी क्षमता का अटूट उदाहरण आज तक बना हुआ है।
पुष्पावती नदी के तट पर स्थित इस मंदिर को पीले बलुआ पत्थरों से बनाया गया था। अलग-अलग भागों में बांटकर, इस मंदिर को बड़े ही अनोखे ठंग से तैयार किया गया है, जिसमें सूरज के साथ-साथ हवा और पानी की व्यवस्था का भी ध्यान रखा गया है। मंदिर परिसर में एक गर्भगृह, एक सभा मंडप और एक कुंड भी बनाया गया है।
अनोखी बात यह है कि मंदिर को बनाने में कहीं भी चूने का इस्तेमाल नहीं किया गया है, बल्कि पत्थरों को इंटरलॉक करके एक दूसरे से जोड़कर पूरे मंदिर को बनाया गया है।
11वीं से 13वीं शताब्दी के दौरान, गुजरात और राजस्थान में मारू-गुर्जर शैली में इमारतें और मंदिर बनाए गए थे, जिसमें पानी के लिए स्टेपवेल जैसे कुंड बनाए जाते थे। इसका उपयोग बारिश का पानी जमा करने और परिसर के आस-पास पानी से ठंडक बनाए रखने के लिए होता था।
इस शैली में मंदिर के बाहर और अंदर दोनों ओर नक्काशी की जाती थी। यहां इस मोढेरा मंदिर में भी दोनों ओर की दीवारों में कलाकृतियां बनी हैं। मंदिर में नीचे की ओर खांचे बने हैं, जो हवा को अंदर की ओर आने में मदद करते हैं।
यहां की वास्तुकला में एक और खासियत दिखाई देती है। मंदिर का गर्भगृह, बड़े-बड़े खंभों वाला एक हॉल है, जिसमें से कई दरवाजे बने हैं। यानी आने-जाने के लिए एक से ज्यादा रास्ते हैं। आज के मॉर्डन आर्किटेक्चर में भी इस तरह के बड़े खंभे और एक से अधिक निकासी वाले हॉल देखने को मिलते हैं।
मंदिर को बनाने में प्राकृतिक तत्वों पर दिया गया जोर
यहां भव्य सभा मंडप में एक साल के 52 हफ़्तों के हिसाब से स्तंभों को बनाया गया है। सालों पुराने इस मंदिर की बनावट में हवा, पानी, पृथ्वी और अंतरिक्ष के साथ एकता दिखाई गई है।
यह मंदिर कई बार खंडित भी किया गया था, लेकिन ईरानी शैली से बने इस मंदिर की हिफाजत की जिम्मेदारी, अब भारतीय पुरातत्व विभाग के ऊपर है।
गुजरात में ईको-फ्रेंडली आर्किटेक्टर के लिए मशहूर हिमांशु पटेल कहते हैं, “यह शायद दुनिया का इकलौता ऐसा मंदिर है, जो हमें प्रकृति से तालमेल बनाना सिखाता है। सूरज, अग्नि का सूचक है और मंदिर में बना कुंड पानी की विशेषता बताता है। यानी सालों पहले से हमारे मंदिर और इमारतें अपने आप में सस्टेनेबल हैं।”
वह आगे कहते हैं कि मंदिर के सभागृह को पानी के चारों ओर बनाया गया है, जिससे गर्मियों में ठंडक का एहसास बना रहे। उन्होंने बताया, “पहले हम प्रकृति से जुड़े थे, हम जानते थे कि हमारे घर का पानी कहां से आ रहा है, इसलिए हम जल स्त्रोतों को साफ रखते थे। लेकिन आज हम घर के नल को खोल कर पानी लेते हैं और जानने कि कोशिश भी नहीं करते कि पानी कहां से आ रहा है। ऐसे में यह मंदिर हमें फिर से प्रकृति से जुड़ने का सन्देश भी देती है।”
यानी यह कहना गलत नहीं होगा कि यह मंदिर नक्काशी और कलाकृतियों से बढ़कर कई और रूप में भी विशेष है, जिससे हम आज भी बहुत कुछ सीख सकते हैं।
संपादन- अर्चना दुबे
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