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सेकंड हैंड कपड़े, जूते इस्तेमाल करने से प्लास्टिक रीसायकल तक, इनसे सीखें कम में बेहतर जीना

Zero waste living of Meera Shah

अपनी जीवनशैली में छोटे-छोटे बदलावों से आप न केवल खुद में सकारात्मक बदलाव ला सकते हैं बल्कि आपके इन कदमों से पर्यावरण की भी रक्षा होगी। बस जरूरत है मजबूत इच्छाशक्ति की। वैसे यह भी सच है कि एक झटके में आप अपनी आदतों को नहीं बदल सकते लेकिन यदि आप चाहेंगे तो धीरे-धीरे बदलाव ला सकते हैं जैसा कि मुंबई की एक फ़िज़ियोथेरेपिस्ट कर रही हैं, जिन्हें आज लोग उनकी जीरो-वेस्ट लाइफस्टाइल के लिए जानते हैं। 

मुंबई स्थित मुलुंड में रहने वाली 35 वर्षीया मीरा शाह पेशे से फ़िज़ियोथेरेपिस्ट हैं। लेकिन इसके साथ ही एक पर्यावरण प्रेमी भी। साल 2014 में मीरा ने अपनी जीवनशैली को प्रकृति के अनुकूल ढालना शुरू किया। मीरा और उनका परिवार हर दिन छोटे-छोटे प्रयास करके अपने रहन-सहन के ढंग को बदलने में जुटा हुआ है। ताकि आने वाली पीढ़ियां भी प्रकृति का वैसे ही आनंद ले सकें, जैसे कि आज के लोग ले रहे हैं। 

मीरा ने द बेटर इंडिया को बताया, “आजकल लोग यह तो सोचते हैं कि उन्हें अपने बच्चों के लिए ढेर सारा पैसा कमाना है ताकि उनका भविष्य उज्ज्वल हो। लेकिन उनके आसपास के वातावरण का क्या? बिना शुद्ध हवा, शुद्ध पानी और पर्यावरण के, कब तक वे उनकी कमाई धन-दौलत को जी पाएंगे।”

इसलिए मीरा और उनके परिवार की कोशिश है कि वे जो कुछ भी कर सकते हैं उसे जरूर करें। 

Meera Shah

घर से निकलने वाले कचरे पर दिया ध्यान 

मीरा कहती हैं, “अगर हम चाहें तो अपने बड़ों से बहुत कुछ सीख सकते हैं। मैंने अपने परिवार से बहुत कुछ सीखा है। खासकर कि अपने पापा और सास-ससुर से। उन सबका झुकाव प्रकृति की तरफ है। उनसे मैंने सीखा कि कैसे कम से कम साधनों में भी बेहतर जिंदगी जी जा सकती है।” 

मीरा ने सबसे पहले अपने घर के कचरे पर ध्यान दिया। उन्होंने सभी तरह के कचरे को अलग-अलग करना शुरू किया। जैसे कि सूखा और गीला कचरा। गीले कचरे में ज्यादातर जैविक कचरा होता है, जिससे वह खाद बनाने लगीं। 

उन्होंने अपनी बालकनी में थोड़े-बहुत पेड़-पौधे लगाए हुए हैं। इन पौधों के लिए वह घर पर ही खाद बना लेती हैं। “हालांकि, कई बार होता है कि कुछ कारणवश खाद न बना पाएं। ऐसे में, जैविक कचरे को डस्टबिन में फेंकने की बजाय, हम गायों को खिला देते हैं। हमारी सोसाइटी के पास ही एक गाय वाला बैठता है और हम उसे ही सभी फल-सब्जियों के छिलके दे आते हैं। इससे कचरा भी नहीं होता और किसी जानवर का पेट भरता है। यह तरीका मेरी सास ने निकाला।” 

गीले कचरे के बाद बारी आती है सूखे कचरे की। जिसमें प्लास्टिक की बोतलें, रैपर, पॉलिथीन, कांच की कोई चीज, मेटल की कोई चीज या फिर इलेक्ट्रॉनिक वेस्ट आदि शामिल होता है। अगर कोई चीज बड़ी होती है और हमें पता है कि इसे कबाड़ीवाले को देकर पैसे मिलेंगे तो ज्यादातर लोग ऐसे कचरे को कबाड़ीवालों को ही देते हैं। लेकिन इसके अलावा भी बहुत सी चीजें होती हैं जो लगभग हर रोज या हफ्ते कचरे में जाती हैं। जैसे ग्रोसरी शॉप से आई पॉलिथीन, छोटी-बड़ी बोतलें, चॉकलेट के रैपर आदि। 

Collecting Waste to give for Recycling

उन्होंने बताया, “जिन पॉलिथीन को फिर से इस्तेमाल कर सकते हैं, उन्हें हम साफ़ करके एक किराने वाले को देते हैं ताकि उनके काम आ सकें। इसके अलावा, जो भी प्लास्टिक वेस्ट होता है, उसे हम एक एनजीओ, ऊर्जा फाउंडेशन को देते हैं। इस कचरे को रीसायकल करते हैं। कांच या मेटल को कबाड़ीवाले को और इलेक्ट्रॉनिक वेस्ट को नगर निगम के ई-वेस्ट सेंटर पर देते हैं। पिछले कुछ सालों में शायद ही हुआ होगा कि हमारे घर से कोई चीज लैंडफिल में गयी होगी। सबसे अच्छी बात है कि ऐसा करने के लिए हमें बहुत ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी बल्कि छोटे-छोटे बदलावों से ही सबकुछ हो गया।” 

बहुत ही कम होता है कि मीरा लंच या डिनर के लिए रेस्तरां आदि जाती हैं। लेकिन यदि कभी ऐसा होता है तो वह अपने साथ कुछ स्टील के डिब्बे लेकर जाती हैं ताकि अगर खाना बचे या उन्हें पैक कराना हो तो प्लास्टिक क्रॉकरी में पैक न हो। बहुत बार होटल में लोग चौंकते भी हैं लेकिन मीरा कहती हैं कि यह उनके जीने का तरीका है और दूसरों की सोच से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता है। 

कम साधन, बेहतर जिंदगी 

जब मीरा और उनका परिवार सस्टेनेबल लाइफस्टाइल में ढलने लगा तो सिर्फ प्लास्टिक नहीं बल्कि दूसरी चीजों पर भी उन्होंने ध्यान दिया। उनका कहना है कि अगर गौर किया जाये तो घर में उपलब्ध 50-60% चीजों की ही हमें वाकई जरूरत होती है। इसके अलावा, ज्यादातर चीजें घर में बिना किसी काम की होती हैं। प्रकृति के अनुकूल होने के साथ-साथ उन्होंने अपनी जीवनशैली को ‘मिनिमलिस्टिक’ बनाया मतलब कि कम से कम साधनों में जीने की आदत डाली। उन्होंने बताया कि अब वे बहुत ही कम कपड़े खरीदते हैं। 

“रसोई में काम के लिए अगर कभी नल खुला रह जाए या ज्यादा तेज खुला हो तो मुझे लगता था कि कितना ज्यादा पानी बर्बाद हो गया। लेकिन एक बार मैं कुछ पढ़ रही थी तो मुझे पता चला कि हमारे कपड़े जैसे टीशर्ट, जीन्स आदि को बनाने में हजारों लीटर पानी खर्च होता है। यह पढ़कर मुझे लगा कि हम अपने पर्यावरण को कितना ज्यादा नुकसान पहुंचा रहे हैं जबकि हम कम से कम में भी आसानी से जी सकते हैं,” उन्होंने कहा। पिछले दो-तीन सालों में मीरा ने अपने लिए कपड़े खरीदना एकदम कम कर दिया। 

उनके पास पहले से जो कपड़े थे, उन्हें ही वह बार-बार इस्तेमाल करने लगी। इसके अलावा, उन्होंने अपने परिवार और दोस्तों में भी इस बारे में चर्चा की कि कैसे अब वह कपड़ों और जूतों आदि पर बिना वजह खर्च नहीं करेंगी। इसलिए अगर किसी के पास ऐसे कपड़े या जूते हैं, जो एकदम सही हैं लेकिन जिन्हें वे अब इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं, ऐसी चीजों को वे मीरा को दे सकते हैं। मीरा का कहना है, “अक्सर लोग दूसरों के पुराने कपड़ों को पहनने में शर्म महसूस करते हैं। उन्हें लगता है कि इससे वे छोटे साबित होंगे। लेकिन ऐसा नहीं है। मैं नए-नए कपड़े खरीद सकती हूं लेकिन जिस तरह से हमारे प्राकृतिक संसाधन खर्च हो रहे हैं, उसे देखते हुए मुझे लगता है कि अगर कोई एक भी शुरुआत करे तो काफी बदलाव आएगा।” 

Reusable Wax Strip

किसी शादी-ब्याह जैसे आयोजनों के लिए भी उन्होंने एक-दो कपड़े फिक्स किये हुए हैं। अक्सर लोग उन्हें टोकते भी हैं कि यह ड्रेस तो उन्होंने पिछले फंक्शन में ही पहनी थी। लेकिन मीरा को अब इन बातों से फर्क नहीं पड़ता है। क्योंकि वह जानती हैं कि उनका यह कदम पर्यावरण के लिए हितकर है। साथ ही, ऐसा नहीं है कि वह बिलकुल कपड़े नहीं खरीदती हैं। कई बार उन्हें कुछ चीजें लेनी पड़ती हैं। पर उनकी कोशिश यही रहती है कि वह थ्रिफ्ट स्टोर्स से सेकंड हैंड खरीद लें या किसी पुराने कपड़े को अपसायकल करा लें। 

इसके अलावा, जो कपड़े एकदम पहनने लायक नहीं रह जाते हैं। ऐसे कपड़ों का उपयोग उनकी सास घर के लिए कालीन या डस्टर बनाने में करतीं हैं। इसके अलावा, मीरा पिछले चार सालों से सैनिटरी नैपकिन की जगह मेंस्ट्रुअल कप इस्तेमाल कर रही हैं। वह कहती हैं कि इस एक बदलाव से न सिर्फ उनका खर्च बल्कि पर्यावरण में जाने वाला कचरा भी बहुत कम हुआ है। 

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कम से कम केमिकल एजेंट का इस्तेमाल 

मीरा ने बताया कि उन्होंने कुछ दिनों तक बर्तन, कपड़े या साफ़-सफाई के लिए बायोएंजाइम बनाए थे। लेकिन कुछ कारणवश वह नियमित रूप से यह सब नहीं बना पा रही थीं। ऐसे में, उन्होंने अपने परिवार के साथ मिलकर इसका विकल्प तलाशा। उन्होंने कहा कि अपने अनुभव से एक बात उन्हें समझ में आई है कि आज के आधुनिक जमाने में आप प्लास्टिक या केमिकल की चीजों से एकदम नाता नहीं तोड़ सकते हैं। लेकिन हां, इनका पर्यावरण पर कितना प्रभाव पड़ेगा, इसे जरूर नियंत्रित कर सकते हैं।

जैसे बहुत से सामान के साथ प्लास्टिक के रैपर आ ही जाते हैं पर हमें देखना होगा कि ये रैपर रीसाइक्लिंग में जाएं न कि लैंडफिल में। इसी तरह क्लीनिंग एजेंट में रसायन होते हैं जो प्रकृति के लिए सही नहीं हैं। अगर हम पूरी तरह से इन्हें बंद नहीं कर सकते हैं तो हमें इनका इस्तेमाल सिमित मात्रा में करना चाहिए।

उन्होंने आगे कहा कि उनके घर में बर्तन बहुत हिसाब से इस्तेमाल होते हैं ताकि इन्हें बार-बार डिशवाश से मांजने की जरूरत न पड़े। इसी तरह, घर में कपड़े भी ज्यादातर हाथ से धोये जाते हैं क्योंकि हाथ से कपड़े धोने पर कम से कम साबुन-सर्फ इस्तेमाल होता है। कपड़े धोने के बाद बचने वाले पानी को बाथरूम की सफाई के लिए या फिर टॉयलेट में फ्लश के लिए इस्तेमाल में ले लिया जाता है। इससे पानी की भी बचत होती है और पर्यावरण पर भी कम प्रभाव पड़ता है।

मीरा कहती हैं, “इन सब बदलावों से न सिर्फ हमारी जिंदगी बेहतर हुई है बल्कि पैसे की भी काफी बचत हो रही है। इसलिए अब हमें लगता है कि हमें 60 साल की उम्र तक काम करने की भी जरूरत न पड़े बल्कि हम जल्दी रिटायर हो सकते हैं। क्योंकि हमारी जरूरतें बहुत ही कम हैं।” 

बेशक, मीरा शाह के प्रयास काबिल-ऐ-तारीफ हैं। हमें उम्मीद है कि बहुत से लोगों को उनकी कहानी से प्रेरणा मिलेगी। 

संपादन- जी एन झा

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