मछली पकड़ने के लिए रंग-बिरंगे पक्षियों को पानी में गोता लगाते हुए, बगुलों को झपट्टा मारते हुए और कम ऊंचाई पर उड़ते भूरे पंखों वाली जकाना पक्षी, ये कुछ सामान्य नजारे हैं, जिसे आप महाराष्ट्र के गोंदिया जिला स्थित नवतलाव झील में देख सकते हैं।
आपके लिए यह विश्वास करना थोड़ा मुश्किल होगा कि कुछ वर्ष पहले तक, यहाँ बड़े-बड़े जंगली घास थे और गंदगी का अंबार लगा हुआ था।
लेकिन, पर्यावरणविद और पक्षी मामलों के जानकार मनीष राजंकर के प्रयासों से, क्षेत्र के दर्जनों झीलों की दशा बदल गई।
मनीष ने द बेटर इंडिया को बताया, “इन झीलों में बड़ी संख्या में पक्षी विचरण करने आते थे, लेकिन झील की स्थिति निरंतर बिगड़ते देख कर निराशा होती थी।”
इसके बाद मनीष ने स्थानीय समुदायों के लिए झील के इतिहास और महत्व को समझने का निर्णय किया।
इसे लेकर मनीष कहते हैं, “विदर्भ क्षेत्र में, कोहली, तेली, कुनबी, सोनार और कई अन्य कृषि समुदाय रहते हैं। इसके अलावा, यहाँ महार, गोंड, धीवर जैसे समुदाय भी रहते हैं। इनके आजीविका का मुख्य साधन मछली पालन और कृषि आधारित गतिविधियां हैं। इनमें से कुछ घरेलू सहायक के रूप में भी काम करते हैं।”
साल 1960 में महाराष्ट्र राज्य के गठन के फलस्वरूप कई मछली सहकारी समितियों का भी जन्म हुआ, जिसके तहत समुदाय के सदस्य पानी का उपयोग सिंचाई, मछली पालन आदि के लिए कर सकते थे। मनीष कहते हैं, “इसके अलावा, 16 वीं सदी से ज्ञात इन जल निकायों की बदहाली पर कोई निगरानी या नियंत्रण नहीं थी। भंडारा जिले के 1901 के गजेटियर के अनुसार, यहाँ 12,000 झीलें थीं, लेकिन आज करीब 2,700 झीलें ही हैं।”
“मेरी जिज्ञासाओं ने मुझे समुदायों का अध्ययन करने और पुणे के एक मेंटर से फैलोशिप हासिल करने के प्रेरित किया। मैंने समुदायों पर इन जल निकायों के पारिस्थितिक, ऐतिहासिक, सामाजिक और आर्थिक प्रभावों का गहनता से अध्ययन किया,” उन्होंने आगे कहा।
वह कहते हैं, “मत्स्य विभाग द्वारा गैर-देशी किस्म की मछलियों को बढ़ावा देने से, देशी किस्म के मछलियों ने महत्व खो दिया और अपना वास भी। ये जल निकाय, कीटनाशकों और रासायनिक उर्वरकों से युक्त कृषि पद्धतियों से भी अछूते नहीं रहे और फलतः इसकी जैव विविधता को काफी नुकसान हुआ।”
उन्होंने अपने अध्ययन के दौरान ग्रास कार्प, पैंगासियस, साइप्रिनस कार्पियो, अनाबास टेस्टुडाइनस, तिलपिया, निलोतिका और मोसंबिकस जैसी कई गैर-देशी मछली की प्रजातियों की उपस्थिति को दर्ज किया।
मनीष ने, साल 2014 में सरकार द्वारा झीलों की जल वहन क्षमता को बढ़ावा के उद्देश्य से चलाए जा रहे ‘जलयुक्त शिवर’ अभियान के दौरान भी जैव विविधता की भारी कमी देखी, जिसके तहत झीलों को गाद मुक्त किया गया।
वह बताते हैं, “सरकार के इस कदम के कारण पारिस्थितिकी को काफी क्षति हुई, क्योंकि इससे मृदा क्षरण, प्राकृतिक आवासों की क्षति के साथ-साथ मछलियों को कई अन्य नुकसान भी हुए।”
इसके बाद, उन्होंने भंडारा निसर्ग व संस्कृती अभय मंडल (बीएनवीएसएएम) का गठन किया, जो गोंदिया के अर्जुनी मोरागांव स्थित एक गैर सरकारी संस्था है।
मनीष कहते हैं, “झीलों में मछलियों को वापस लाने के लिए, समाधान ढूंढ़ने का फैसला किया। इसके तहत हमने सबसे पहले झील के घासों को हटाया और सुनिश्चित किया कि बची हुई मछलियों को कोई नुकसान न पहुँचे।”
मनीष बताते हैं कि समुदायों ने आसपास की झीलों में स्थानीय पौधों की खोज की और उन्हें फिर से लगाने का फैसला किया।
हमने गर्मियों के दौरान झील क्षेत्र के जमीन की जुताई की, जो मानसून के दौरान सामान्यतः जलमग्न हो जाता था।

इसमें हाइड्रिला वर्टिसिल्टा, सेराटोफिलम डिमर्सम, वेलीसनेरिया स्पाइरलिस और फ्लोटिंग प्लांट, जैसे कि निम्फाइड्स इंडिकम, निम्फाइड्स हाइड्रॉफिला, निम्फिया क्रिस्टल के साथ ही आंशिक रूप से पानी में लगने वाले पौधे जैसे – एलोचारिस डलसिस को रि-प्लांट किया गया।
मनीष बताते हैं, “साल 2009 में हमने, नवतालाब (झील) से इसकी शुरुआत की और कई स्थानीय पौधे लगाए। एक वर्ष में लगभग 50-70 प्रतिशत सफलता हासिल करने के बाद, हमने पास के ही नवेगांव झील से स्वदेशी किस्म की मछलियों को लाने का फैसला किया।”
वह आगे बताते हैं, “हमने मछलियों के कुछ प्रजातियों का प्रवास धारा के विपरीत दिशा में भी दर्ज किया। धीरे-धीरे, नवतालाब की स्थिति में सुधार हुआ और आस-पास के लोगों ने यह अंतर स्पष्ट रूप से देखा।”
इसके बाद मनीष से दो जिलों के सभी 12 मत्स्य सहकारी समितियों ने झीलों को पुनर्जीवित करने के लिए संपर्क किया। इस तरह, उन्होंने अब तक 43 गाँवों के 63 झीलों की स्थिति को सुधारने की दिशा में काम किया है।
स्थानीय धीवर समुदाय के पतिराम तुमसरे कहते हैं, “इन प्रयासों से स्थानीय पौधों की संख्या में काफी वृद्धि हुई है। साथ ही, पर्याप्त खाने और सुरक्षित आवास के कारण मछलियों का उत्पादन बढ़ गया है। पहले घनोद गाँव तालाब में लगभग 98 किलो मछली पकड़े जाते थे, जो आज 630 किलो हो गए। वहीं, मोथा तालाब अर्जुनी में उत्पादन 120 किलो से बढ़कर 249 किलो हो गया।”
पतिराम बताते हैं कि वर्ष 2016 में पाँच अन्य झीलों के सर्वेक्षण में भी कुछ ऐसे ही नतीजे सामने आए थे। वह बताते हैं कि अब मछलियों की संख्या, स्थानीय पौधे और यहाँ विचरण करने वाले पक्षियों की भी निगरानी की जाती है।
इस विषय में, पुणे में स्थानीय माहसीर मछली के संरक्षण की दिशा में काम करने वाले राकेश पाटिल कहते हैं, “ग्रास कार्प, पंगुस, साइप्रिनस कार्पियो, नीलोतिका और तिलपिया और मोजाम्बिक तिलपिया आक्रामक किस्म के मछली हैं। खासकर, तिलपिया अधिक आक्रामक होते हैं और उनकी प्रजनन और अनुकूलन क्षमता उच्च होती है।”
वह आगे बताते हैं, “एनाबस मुख्यतः दक्षिण और पूर्वी भारत में पाए जाते हैं, क्योंकि इन्हें औषधीय महत्व के कारण पाला जाता है। इसके अलावा, इन्हें आक्रामक मछली के तौर पर वर्गीकृत किया जाता है और ये पानी के बाहर भी जिंदा रह सकते हैं।”
विशेषज्ञ कहते हैं कि कार्प मछली पौधे खाने वाले होते हैं और रोहू की तरह, ग्रास कार्प और आम कार्प प्रजातियां पौधों को अपना खाना बनाती है।
मछली पकड़ने वाले भी तिलापिया, इंडियन मेजर कार्प (IMC) के बीज और बच्चे खरीदते हैं, क्योंकि ये स्थानीय प्रजातियों की तुलना में काफी तेजी से बढ़ते हैं।
हालांकि, राकेश कहते हैं कि स्थानीय जैव विविधता और आवास को फिर से बहाल करने के उद्देश्यों के तहत दीर्घ अवधि के लिए पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा सुनिश्चित की जा सकती है। एक और रास्ता यह है कि स्थानीय मछलियों के संवर्धन और संरक्षण के लिए अलग जल निकायों की स्थापना की जा सकती है।
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