न बिजली, न पानी, न सड़कें- और फिर एक मेडिकल छात्र के संघर्ष ने बदल दी गाँव की किस्मत!

उन्होंने गाँव के विकास को लेकर प्रशासनिक अधिकारियों से लेकर प्रधानमंत्री तक को पत्र लिखे। पर कोई कार्यवाही न होने पर, उन्होंने हाई कोर्ट में गाँव के हालातों को सुधरवाने के लिए याचिका डाली।

न बिजली, न पानी, न सड़कें- और फिर एक मेडिकल छात्र के संघर्ष ने बदल दी गाँव की किस्मत!

हात्मा गाँधी ने बिल्कुल सही कहा था - "आप दुनिया में जो बदलाव चाहते हैं, वह बदलाव खुद बनें"। क्योंकि किसी भी देश का विकास उसके सभी नागरिकों की ज़िम्मेदारी होती है। पर आज इस भागदौड़ भरी ज़िंदगी में कहाँ किसी के पास समय है दूसरों की परेशानियां जानने का। और जो शख्स अपनी परेशानियों को भुलाकर दूसरों की समस्याएं हल करते हैं, वही बदलाव का पर्याय बनते हैं।

ऐसे ही एक बदलाव के नायक हैं 24 वर्षीय मेडिकल छात्र अश्विनी पाराशर। राजस्थान में जयपुर के सवाई मानसिंग मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस की पढ़ाई पूरी करने के बाद अब वे अपनी इंटर्नशिप कर रहे हैं। उन्होंने साल 2016 में राजघाट गाँव का दौरा किया था। यह गाँव उनके अपने शहर धौलपुर से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर है।

अश्विनी इस गाँव में एक सामाजिक अभियान 'सार्थक दिवाली' के तहत मिठाई, कपड़े आदि बांटने गए थे पर यहां आकर जो उन्होंने स्थिति देखी वह कल्पना से परे थी। यहां पर गाँव की और गाँव वालों की हालत देखकर अश्विनी दंग रह गए क्योंकि गाँव में मूलभूत सुविधाएँ ही नहीं थीं- न बिजली, न पक्के रास्ते, न पीने के पानी की सुविधा और न ही शिक्षा और स्वास्थ्य का कोई साधन।

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अश्विनी पराशर (साभार)

उसी दिन अश्विनी ने इन लोगों के लिए कुछ करने की ठान ली। द बेटर इंडिया से बात करते हुए उन्होंने बताया कि इस गाँव में बिजली, पानी, शौचालय आदि किसी चीज़ की सुविधा नहीं थी और इसी पिछड़ेपन की वजह से गाँव में 20 सालों में बस दो शादियाँ हुईं थीं, क्योंकि कोई भी इस पिछड़े गाँव से रिश्ता नहीं करना चाहता था। अब अश्विनी किसी भी कीमत पर इस स्थिति को बदलना चाहते थे।

उन्होंने जिले के प्रशासनिक अधिकारियों से मिलकर उनका ध्यान इस गाँव की ओर लाने का की कोशिश शुरू कर दी। पर लगातार कोशिशों के बावजूद वे असफल रहे। उन्हें बताया गया कि राजस्थान और मध्य-प्रदेश के बॉर्डर पर बसा यह गाँव , राष्ट्रीय चम्बल अभयारण्य के अंदर पड़ता है। इस वजह से वन-विभाग ने यहाँ किसी भी विकास कार्य पर रोक लगाई हुई है।

इस बात ने अश्विनी को और दुखी कर दिया कि जो कानून और प्रशासन लोगों की मदद और भलाई के लिए है, उसी कानून के उलझे हुए दांव-पेंचों में इन मासूम गाँव वालों को पिसना पड़ रहा है।

ऐसे में, अश्विनी ने खुद बदलाव की पहल की और अपने कुछ दोस्तों एक साथ मिलकर सोशल मीडिया पर 'राजघाट बचाओ' अभियान शुरू किया।

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राजघाट गाँव की कुछ पुरानी तस्वीरें (साभार)

अश्विनी कहते हैं कि इस गाँव में कदम रखने से पहले उन्हें सोशल मीडिया कैंपेन, क्राउडफंडिंग आदि का कोई आइडिया नहीं था। पर ज़रूरत आपको सब कुछ सिखा देती है और उनके साथ भी यही हुआ।

उन्होंने गाँव के विकास को लेकर प्रशासनिक अधिकारियों से लेकर प्रधानमंत्री तक को पत्र लिखे। पर कोई कार्यवाही न होने पर, उन्होंने हाई कोर्ट में गाँव के हालातों को सुधरवाने के लिए याचिका डाली। और हाई कोर्ट का फ़ैसला ग्रामीणों के पक्ष में आया। कोर्ट के आदेश के बाद गाँव में विकास का काम शुरू हुआ।

उनके 'राजघाट बचाओ' अभियान को न सिर्फ़ देश में, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी सराहना मिली। 

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कई एनजीओ और संस्थाओं ने उन्हें संपर्क किया। इन सभी संगठनों की मदद से अश्विनी इस गाँव में 39 वाटर-फ़िल्टर लगवाने में कामयाब हो गये। इसके अलावा, उन्होंने कई घरों में सोलर पैनल लगवाए और पहली बार राजघाट गाँव में बिजली आई। सदियों बाद, इस गाँव की रातें रोशन हुई और अब यहाँ बच्चे कभी भी पढ़ सकते हैं।

इंडियन नोर्वेजिन समिति की मदद से गाँव के और भी 7 घरों को बिजली मिली और पहली बार इस गाँव में ट्रांसफॉर्मर लगा। और अब आपको इस गाँव में शौचालय भी मिलेंगें।

अश्विनी फ़िलहाल अपनी इंटर्नशिप में व्यस्त है। पर फिर भी जैसे ही उन्हें वक़्त मिलता है, वे गाँव आकर लोगों से मिलते हैं। वे अपनी इस मुहिम को छोड़ना नहीं चाहते बल्कि और भी आगे ले जाना चाहते हैं। राजघाट के बाद, उनकी योजना है कि राजस्थान के अन्य पिछड़े गांवों में भी काम किया जाये।

बेशक, हमारे देश को अश्विनी पराशर जैसे भावी डॉक्टर्स की ज़रूरत है जो कि अपनी हद से आगे जाकर लोगों के लिए कुछ करना चाहते हैं। द बेटर इंडिया इस युवा नायक को सलाम करता है!

संपादन - मानबी कटोच 


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