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महाराष्ट्र के ओसमानाबाद स्थित निपानी गाँव में रहने वाले 50 वर्षीय राज शेखर पाटिल का जन्म एक किसान परिवार में हुआ। वे कोल्हापुर से कृषि विषय में स्नातक हैं। वैसे तो उनके परिवार के पास पुश्तैनी 30 एकड़ ज़मीन थी लेकिन उनका इलाका देश के सूखाग्रस्त इलाकों में एक है, इसलिए उन्होंने नौकरी करने की सोची। नौकरी तो नहीं मिली लेकिन उन्होंने अपने गाँव की किस्मत बदलने की जरूर ठान ली। शुरूआत में जल संरक्षण के लिए उन्होंने काम किया और उसके बाद वे बांस की खेती में जुट गए, जिसने उनकी दुनिया ही बदल दी है।
राज शेखर पाटिल ने द बेटर इंडिया को बताया, "हमारी ज़मीन में खेती से मुश्किल से कुछ हो पाता था। न तो बिजली, न पानी और इसीलिए हमारे गाँव का नाम निपानी है मतलब कि पानी ही नहीं था।"
पहले जुड़े अन्ना हजारे से
पाटिल ने अपनी पढ़ाई के बाद 3-4 साल तक सरकारी परीक्षाओं की तैयारी की क्योंकि उन्हें लगता था कि खेती में तो कुछ होना नहीं है। लेकिन वह कोई भी सरकारी नौकरी प्राप्त करने में असफल रहे और तो और उन्हें कोई प्राइवेट नौकरी भी नहीं मिली। इसके बाद उन्हें पता चला कि अन्ना हजारे को अपने साथ काम करने के लिए कुछ युवाओं की ज़रूरत है। पाटिल रालेगण सिद्धि गाँव पहुंच गए। हजारे ने पाटिल को मिट्टी और पानी के संरक्षण के काम पर लगाया।
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वह बताते हैं कि उन्होंने हजारे के साथ 22 गांवों में काम किया। इसके बदले उन्हें महीने के दो हज़ार रुपये मिलते थे। फिर एक दिन उन्हें खबर मिली कि उनके पिता को पैरालिसिस का अटैक आया है। उनकी माँ ने उन्हें सब-कुछ छोड़कर घर लौटने के लिए कहा है। पाटिल इसके बाद अपना काम छोड़कर अपने गाँव लौट गए।
पाटिल ने बताया "खेतों में कुछ हो नहीं रहा था और हम पर सिर्फ कर्ज बढ़ा। मेरे पिता को इसी बात की चिंता थी कि इतना कर्ज है और कहीं से कोई आमदनी नहीं हो रही तो कैसे चलेगा। इसी परेशानी में उनकी तबियत इतनी खराब हो गई।"
बीमार पिता के लिए लौट आए गाँव
पिता की हालत को देखकर पाटिल ने ठाना कि अब उन्हें जो करना है अपने गाँव में करना है। उनके मन में ख्याल आया कि अगर वह अपनी मेहनत दूसरे गांवों के सुधार में लगा सकते हैं तो अपने गाँव में वही काम क्यों नहीं कर सकते। इसके बाद, पाटिल ने अपने गाँव में पानी के स्तर को ठीक करने के लिए 'वाटरमैन' राजेंद्र सिंह से मदद ली। उन्होंने अपने गाँव के 10 किमी लम्बे नाले को साफ़ करके और गहरा व चौड़ा किया, ताकि जब भी बरसात हो तो पानी इसमें इकट्ठा हो।
धीरे-धीरे ही सही, उनके गाँव में पानी की स्थिति काफी हद तक सुधरी। अब तो आलम यह है कि उनके गाँव में रेशम का काम होता है जिससे उनके गाँव का टर्नओवर 1 करोड़ रुपये सालाना है। इसके बाद, पाटिल अपने आगे के सफर के बारे में बताते हैं। उन्होंने कहा कि इस सबके बीच उन्होंने कृषि पर भी ध्यान देना शुरू किया।
उन्होंने बताया, "मुझे हमेशा से कृषि से संबंधित किताबें पढ़ने का शौक रहा। मैंने किताबों से तरह-तरह की खेती-किसानी के बारे में सीखा। फिर महाराष्ट्र में 'एग्रोवन' करके एक अखबार निकलता है कृषि पर। मैं नियमित तौर पर वह पढ़ता था। वहीं से मुझे प्राकृतिक, जैविक और रासायनिक खेती के तरीकों के बारे में पता चला। मैंने प्राकृतिक खेती करने की ठानी क्योंकि मेरे पास इतने पैसे ही नहीं थे कि मैं जैविक या रासायनिक उर्वरक खरीद पाता। इसलिए मैंने अपनी ज़मीन को एक जंगल के रूप में विकसित किया।"
पाटिल ने न तो अपनी ज़मीन की जुताई और न ही कभी निराई-गुड़ाई की। उन्होंने अलग-अलग तरह के फल जैसे आम, चीकू, नारियल आदि के पेड़ लगाए और साथ ही कुछ मौसमी सब्ज़ियाँ उगाना शुरू किया। उनके पेड़-पौधों को जानवर खराब न कर दें, इसलिए उन्होंने सोचा कि क्यों न खेतों की सीमा पर एक बाड़ लगा दी जाए। लेकिन बाड़ लगाने का खर्च उनके पास नहीं था। ऐसे में उन्हें पता चला कि पास की एक सरकारी नर्सरी में बांस के पेड़ मिल रहे हैं और वह भी मुफ्त। उन्होंने सोचा कि बांस के पेड़ लगाने से उन्हें प्राकृतिक तौर पर ही एक बाड़ मिल जाएगा।
बांस ने बदल दी तकदीर
वह नर्सरी से 40 हज़ार पेड़ लेकर आए और खेतों की सीमा पर लगा दिए। पाटिल आगे बताते हैं कि दो-तीन साल बाद इन 40 हज़ार बांस से 10 लाख बांस उपजे और धीरे-धीरे लोग उनके पास बांस खरीदने के लिए आने लगे। पहले साल में उन्होंने 1 लाख रुपये के बांस बेचे और फिर अगले एक-दो साल में उन्हें इन्हीं बांसों से कुल 20 लाख रुपये का मुनाफा हुआ।
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पाटिल ने बताया, " जब बड़े व्यापारियों ने मुझसे संपर्क किया तो मैंने समझा कि बांस की कितनी ज्यादा मांग है। इसके बाद मैंने इस बारे में जानकारी इकट्ठा की तो मुझे पता चला कि हर साल हमारे यहाँ बांस की आपूर्ति करने के लिए भारत सरकार को बाहर से भी बांस आयात करना पड़ता है। लेकिन अगर हमारे यहाँ किसान भाई ही बांस की खेती करने लगें तो कहीं बाहर से मंगवाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। शायद इसलिए ही बांस को सामान्य घास की केटेगरी में रखा गया है अब और इसके ट्रांसपोर्टेशन टैक्स नहीं देना पड़ता।"
इसके बाद पाटिल ने सिर्फ बांस की खेती पर ध्यान दिया। उन्होंने अपने पूरे खेत में बांस के पेड़ लगाए। उनके गाँव के लोग पागल कहते थे कि बांस कौन उगाता है। लेकिन पाटिल को समझ में आ गया था कि बाज़ार के हिसाब से खेती करने में ही किसान का फायदा है। अच्छी बात यह है कि उन्होंने कभी भी ज्यादा उपज के लालच में कोई रसायन इस्तेमाल नहीं किया। उनका मॉडल प्राकृतिक खेती का ही रहा। आज उनकी ज़मीन 30 एकड़ से बढ़कर 54 एकड़ हो गई है और इस पूरी ज़मीन पर बांस और अन्य कुछ पेड़-पौधों का घना जंगल है।
इंटरनेट का करते हैं इस्तेमाल
वह बताते हैं, "मुझे बांस की खेती करते हुए लगभग 20 साल हो गए हैं। लेकिन जब से तकनीक थोड़ी बढ़ी है जैसे मोबाइल, इंटरनेट तो मुझे और भी फायदा हुआ है। मैंने अपना भी यूट्यूब चैनल शुरू किया, जहां मैं बांस की खेती की वीडियो पोस्ट करता हूँ।"
पाटिल ने पिछले 4-5 सालों में देशभर की यात्रा करके बांस की लगभग 200 किस्म इकट्ठा की और अपने खेत में लगाईं। उनके मुताबिक, बांस का पेड़ लगाने के 2-3 साल बाद आप इससे फसल ले सकते हैं। एक बार लगाया हुआ बांस, अगले 7 साल तक फसल देता है। एक बांस एक पेड़ से आपको 10 से 200 बांस मिलते हैं और एक बांस की कीमत आपको 20 रुपये से लेकर 100 रुपये तक मिल सकती है।
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पाटिल की सफल बांस की खेती को देखते हुए उन्हें नागपुर में आयोजित एग्रो विज़न कांफ्रेंस में बुलाया गया। इस कांफ्रेंस में उन्होंने किसानों को पारंपरिक खेती के साथ-साथ बांस जैसी कमर्शियल खेती करने की सलाह भी दी। इसके बाद उन्होंने इंडियन बम्बू मिशन के एडवाइजर के तौर पर नियुक्त किया गया। पाटिल को अब तक बहुत-सी जगह सम्मानों और पुरस्कारों से नवाज़ा गया है। लेकिन सबसे ज्यादा ख़ुशी उन्हें इस बात की है कि वह अपने किसान भाइयों की मदद कर पा रहे हैं।
अब पाटिल की बांस की खेती को देखने के लिए और उनसे सीखने के लिए किसानों का ताँता लगा रहता है। वह किसानों को निशुल्क बांस की खेती की ट्रेनिंग देते हैं। इसके अलावा, लोगों की मांग पर उन्होंने बांस की नर्सरी भी तैयार करना शुरू किया। उनके यहाँ से बांस की पौध लेकर महाराष्ट्र में लगभग 2 हज़ार एकड़ ज़मीन पर बांस लगाया गया है।
पाटिल ने बताया, "नर्सरी और बांस की फसल से मेरा हर साल का टर्नओवर लगभग 5 करोड़ रुपये का है। बहुत से लोगों को इस बात पर यकीन नहीं होता कि बांस से कोई इतना कैसे कमा सकता है। लेकिन सच यही है कि इस इको-फ्रेंडली बांस की पूरी दुनिया में मांग है। हमारे अपने देश में बांस को प्रोसेस करके प्रोडक्ट्स बनाने वाली इंडस्ट्री इतनी बड़ी है। अगर इस इंडस्ट्री को अपने देश से ही प्राकृतिक और जैविक रूप से उगे हुए अच्छे बांस मिले तो उन्हें कहीं से भी आयात करने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। मैं किसानों को यही समझाता हूँ कि पारंपरिक खेती से निकलकर सही जगह अपनी मेहनत लगाएं।"
भविष्य की योजना
भविष्य के लिए उनकी योजना बांस की प्रोसेसिंग यूनिट शुरू करने की है। पाटिल ने न सिर्फ अपनी बल्कि अपने गाँव की किस्मत भी बदली है। आज भी वह किसी भी किसान भाई की मदद के लिए तैयार रहते हैं। उनका कहना है कि कोई भी किसान उन्हें बेहिचक संपर्क करे और वह उसकी हर मुमकिन कोशिश करेंगे। आप उनसे 9860209283 पर संपर्क कर सकते हैं!
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राज शेखर पाटिल का यूट्यूब चैनल देखने के लिए यहां पर क्लिक करें!
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