मान लीजिए कि आपने IIT खड़गपुर से इंजीनियरिंग की है। घर वाले आपकी किसी बड़ी कम्पनी में नौकरी लगने का इंतजार कर रहे हैं। इधर, आप प्लेसमेंट के लिए न बैठकर अपने दोस्त के साथ भविष्य में कुछ अलग करने का सपना देख रहे हैं। ग्रेजुएशन के बाद घर आकर एक दिन आप बोलते हैं कि आप नौकरी न करके खुद का कुछ करेंगे। मच जाएगा न घर में कोहराम। शुरू हो जाएगा न इमोशन ब्लैकमेलिंग का सिलसिला।
ऐसा ही कुछ मनीष कुमार के साथ भी हुआ। मनीष भले ही अपनी माँ का दिल रखने के लिए आईबीएम के इंटरव्यू के लिए बैठे, सलेक्शन भी हो गया। लेकिन उन्होंने कभी कंपनी को जॉइन नहीं किया।
जब मनीष के घरवालों को इस बात का पता चला, तो उनके घर में परेशानियां खड़ी हो गई। 2011 में उनके पिता रिटायर होने वाले थे और बड़े भाई एक छोटे-से स्कूल में टीचर थे जहां से सिर्फ गुज़ारे लायक आमदनी थी। बहन की शादी भी उन्हें करनी थी। जब हर कोई उनके इस फैसले के खिलाफ़ था तो उनके पिता ने उनका साथ दिया। उनके पिता ने कहा, "सिर्फ़ पैसे के लिए कुछ करने की ज़रूरत नहीं है, बल्कि जिसमें तुम्हारा दिल है वो करो।"
घरवालों को नहीं पता था क्या होता है IIT
क्लर्क पिता की संतान मनीष बताते हैं कि जब उनका आईआईटी के लिए चयन हुआ। उस वक्त तक भी उनके घर में किसी को नहीं पता था कि आईआईटी क्या होता है ? कैसी पढ़ाई होती है ? जब उनके पिता को शहर के एसडीओ ने खुद फ़ोन करके उनके दाखिले की बधाई दी। तब उन्हें पता चला कि IIT में एडमिशन होना कितनी बड़ी बात है।
2005 में मनीष IIT खड़गपुर पढ़ने चले गए। यहीं पर पढ़ाई के दौरान उनके सामाजिक जीवन की शुरूआत हुई। हालांकि, इस चीज का श्रेय वे अपने एक दोस्त को देते हैं, जो कि रांची के पास एक आदिवासी गाँव में जाकर वहां बच्चों को पढ़ाता था।
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"तब तक मुझे लगता था कि सभी दिक्कतें हमारे साथ ही है। जब मैं उसके साथ वहां गया तो देखा कि उन बच्चों के पास पहनने के लिए कपड़े और खाने के लिए अच्छा खाना भी नहीं था। ऐसे में मुझे लगा कि हमें तो फिर भी इतना कुछ मिला है कि हमारी ज़िंदगी आराम से बसर हो जाए।"
बस उसी दिन से उन्होंने समस्याओं से परेशान होना या फिर किस्मत को दोष देना छोड़ दिया। बल्कि उन्होंने अपने लाइफस्टाइल को ही ऐसा रखा कि कभी कोई कमी लगी ही नहीं। अपने कॉलेज के दिनों में उन्होंने पास के गाँव में जाकर बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया। अपने साथ और साथियों को भी जोड़ा व अपने ग्रुप को 'संभव' नाम दिया। इतना ही नहीं वे कॉलेज और हॉस्टल से पुराने अखबार ले जाते और वहां कि महिलाओं से पेपर बैग बनवाकर बाज़ार में बेच देते। इससे गाँव की औरतों के हाथों में छोटा ही सही पर अच्छा रोज़गार हो गया था ।
बिहार बाढ़ में भी भेजी थी मदद
साल 2009 में जब बिहार में बाढ़ आई, तब भी मनीष ने एक हॉस्टलमेट के साथ मिलकर मात्र 10-15 दिनों में करीब 2 लाख रुपए इकट्ठा किए और बिहार के लोगों की मदद के लिए भेजे थे।
वह कहते हैं, "जब हमने फंड इकट्ठा किया तो सबसे यही अपील थी कि 10 रुपये से लेकर 1000 तक, जिसकी जितनी इच्छा हो, वह उतना दे सकता है। तब हमने जाना कि किसी को दान देने के लिए लोगों का अमीर व गरीब होना मायने नहीं रखता है। बात बड़े घर की नहीं बल्कि बड़े दिल की होती है। जो लोग मौज मस्ती में हजारों रुपए यूं ही खर्च कर देते थे उनसे हमें कुछ खास मदद नहीं मिली लेकिन जिन लोगों के लिए घर चलाना मुश्किल था उन्होंने हर संभव मदद की
दोस्त के साथ शुरू किया ‘फार्म्स एंड फार्मर्स’ नाम से पहला स्टार्ट-अप
अब मनीष अपने इस सपने को पूरा करने में लग गए। उन्होंने अपने दोस्त शशांक के साथ मिलकर एक स्टार्ट-अप शुरू करने की सोची । हालांकि यह शशांक का आइडिया था। वे एक ऐसा स्टार्ट-अप शुरू करना चाहते थे जो किसानों के लिए काम करेगा। जो गांवों में किसानों को बताए कि पारम्परिक फसलों के अलावा वे और कौन-सी व्यवसायिक फसलें उगा सकते हैं। उनके लिए एक्सपर्ट्स और कृषि वैज्ञानिकों द्वारा वर्कशॉप करवाए। उन्नत बीज, खाद, सिंचाई के तरीके और कृषि के लिए नई-नई तकनीकों को किसानों तक पहुँचाया।
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मनीष कहते हैं "तब तक मुझे लगता था कि स्टार्ट-अप बड़े लोगों की चीज़ होती है। शशांक से बात करके लगा कि शायद यही वह काम है जिसे करने में हमें ख़ुशी होगी।"
इसके बाद उन्होंने अपने आख़िरी सेमेस्टर से ही इस पर काम शुरू कर दिया। उन्होंने अपने स्टार्ट-अप का नाम 'फार्म्स एंड फार्मर्स' रखा। शशांक ने दिल्ली में रहकर बाज़ार का सर्वे किया ताकि वे फंडिंग जुटा सके और पहले ही फसलों को बेचने के लिए खरीददार तैयार कर ले। मनीष ने अपने और आस-पास के गाँवों में जाकर किसानों से बात करना व उन्हें समझाना शुरू किया।
"यह काम जितना आसान लगा था, उतना था नहीं। क्योंकि कोई भी किसान अपनी पारंपरिक खेती छोड़कर कोई और फसल उगाने का रिस्क क्यों ही लेता और वह भी कॉलेज में पढ़े 21-22 साल के लड़के के कहने पर।"
शुरू में बहुत ही कम किसान हुए राजमा की खेती के लिए तैयार
अक्टूबर 2010 में मनीष ने ग्रामीण स्तर पर काम करना शुरू कर दिया। घर-घर जाकर किसानों से मिले, फिर कृषि अनुसन्धान संस्थानों में जाकर साइंटिस्ट, एक्सपर्ट्स से मिले। उस समय बिहार में बारिश काफी कम हुई थी तो उन्होंने एक्सपर्ट्स की राय पर किसानों को गेंहू की जगह राजमा, मंगरैला या फिर सूरजमुखी की खेती करने का सुझाव दिया। लेकिन बहुत ही कम किसान उनके कहने पर राजमा की खेती के लिए तैयार हुए।
पूरे गाँव में सिर्फ 3 एकड़ ज़मीन पर ही राजमा की खेती हुई। मनीष के लगातार प्रयासों से किसानों को हर तरीके से मदद मिली। अप्रैल, 2011 में कटाई हुई तो किसानों को बाजार में फसल बेचने पर काफी मुनाफा हुआ क्योंकि उनके लिए खरीददार भी मनीष और उनकी टीम ने पहले ही फिक्स किए हुए थे।
इसके बाद उन्होंने गांवों में ऐसे सेंटर खोलने पर ध्यान दिया, जहां पर किसानों की हर एक मुश्किल का हल हो सके। उन्नत किस्म के बीज-खाद, एक्सपर्ट्स की सलाह, मौसम की जानकारी, अलग-अलग फसल उगाने की ट्रेनिंग आदि सभी एक ही सेंटर पर मिले। सबसे पहले उन्होंने वैशाली गाँव में यह सेंटर शुरू किया और नाम रखा 'देहात'!
आज इस नाम से 100 से भी ऊपर सेंटर हैं। एक और बेहतर काम, जो मनीष ने किया, वह था कि इन सेंटर्स को चलाने की ज़िम्मेदारी गाँव के ही किसी किसान को दी गई। किसान खुद अपने गाँव में यह सेंटर चलाए, ताकि अन्य किसानों को कहीं दूर जगह जाकर मदद न लेनी पड़े। साथ ही इससे किसान की अतिरिक्त आय भी मिले ।
फिर ज़ीरो से शुरू किया अपना ‘बैक टू विलेज’
मनीष ने साल 2015 तक फार्म्स एंड फार्मर्स के साथ काम किया। लेकिन विचारों में भिन्नता और कुछ निजी मतभेद के चलते उन्होंने संगठन से अलग होने का फैसला किया। उन्होंने अलग होने पर भी इस संगठन से कोई हिस्सा या शेयर नहीं माँगा। साल 2014 के अंत से ही मनीष ने संगठन से अलग होने का मन बना लिया था। तब तक उन्हें नहीं पता था कि वे इसके बाद क्या करेंगे। ऐसे में एक बार फिर किस्मत ने उनका रास्ता तय किया।
मनीष बताते हैं, "इस क्षेत्र में लोगों के लिए काम करने की भावना इतनी प्रबल है शायद इसीलिए मुझे एक बार फिर मेरी राह मिल गई। क्योंकि इसी समय मेरी बात मेरी एक और पुरानी बैचमेट पूजा भारती से हुई, जो उस वक़्त केन्द्र सरकार के साथ कार्यरत थी।"
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पूजा काफी वक़्त से मनीष के काम को फॉलो कर रही थी और उन्होंने मन बना लिया था कि वे अपनी नौकरी छोड़कर उनके साथ किसानों के लिए काम करेंगी । इसलिए जब मनीष ने फार्म्स एंड फार्मर्स छोड़ने का मन बनाया तो पूजा भी वड़ोदरा से अपनी नौकरी छोड़कर कुछ वक़्त के लिए असम चली गई। वहां उन्होंने 'अमृत खेती' की ट्रेनिंग ली और खेती से सम्बंधित और भी कई चीजों को सीखा।
"मैंने और पूजा ने प्लान किया कि हम अपना ऐसा संगठन शुरू करेंगे जो जैविक खेती को बढ़ावा दे। लेकिन हम बिहार से शुरू नहीं कर सकते थे क्योंकि यहां सबके लिए फार्म्स एंड फार्मर्स का मतलब था मनीष। इसलिए हमने उड़ीसा के आदिवासी इलाकों से शुरुआत करने का फैसला किया," मनीष ने कहा।
लगभग 1 साल के ग्राउंड वर्क के बाद पूजा और मनीष ने अप्रैल, 2016 में उड़ीसा के मयूरभंज जिले से 'बैक टू विलेज' को लॉन्च किया। उन्होंने इस जिले के पांच गांवों को चुना और किसानों के साथ मिलकर जैविक खेती पर काम शुरू किया। यहां उन्हें काफी अच्छा रिस्पांस मिला। वे आदिवासी किसानों के लिए एक्सपर्ट्स द्वारा ट्रेनिंग करवाते, अलग-अलग तरह के देसी बीज के लिए बाजार उपलब्ध करवाते और उन्हें जैविक खाद आदि बनाने की ट्रेनिंग भी देते थे।
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"यहां भी हमारा मकसद हर एक गाँव में ऐसा ही एक सेंटर तैयार करना था, जहां किसानों को सभी जानकारी मिल सके। इस बार हम जैविक खेती पर काम कर रहे थे और जैविक खेती के लिए किसानों को तैयार करना आसान नहीं होता। इसलिए हमने निश्चित किया कि हम हर एक सेंटर के साथ छोटा-सा ऑर्गेनिक फार्म भी तैयार करेंगे, जहां पर किसी भी सरकारी वैज्ञानिक को बुलाकर किसानों को ट्रेनिंग करवाई जा सके। साथ ही उनके लिए एक जैविक फार्म का उदाहरण भी रहे।"
इसके लिए उन्होंने 3 एकड़ की ज़मीन लेकर काम शुरू किया। अपने इस ऑर्गनिक फार्म सेंटर पर उन्होंने एक छोटा-सा तालाब बनाया। पेड़-पौधे लगाए। जैविक खाद तैयार करने के लिए एक-दो गाय - भैंस भी खरीदी । फार्म पर एक-दो व्यक्तियों के रहने के लिए कमरा भी बनाया। इस ऑर्गेनिक फार्म सेंटर का काम अभी भी चल रहा है।
बैक टू विलेज के साथ 5000 किसान हुए रजिस्टर्ड
'बैक टू विलेज' के साथ अब तक 5000 किसान रजिस्टर्ड हो चुके हैं। उनके काम को देखते हुए इस साल उन्हें ONGC कंपनी ने सीएसआर फंडिंग दी है। उन्हें उड़ीसा के तीन जिलों, मयूरभंज, बालेश्वर और पुरी में 10 आर्गेनिक फार्म सेंटर बनाने का प्रोजेक्ट मिला है।
"इन सेंटर्स के साथ-साथ हम किसानों के लिए इन्फॉर्मेशन कियोस्क तैयार करने पर भी काम कर रहे हैं। इन कियोस्क पर किसानों को सरकारी योजनाओं, नवीन तकनीकी, बाज़ार के भाव और मौसम के बारे में जानकारी दी जाएगी। साथ ही हर फसल के मौसम में कम से कम 3 ट्रेनिंग सेशन किसानों के लिए होंगे।
वह आगे बताते हैं कि उन्होंने अपने इस संगठन के लिए कोई भी निजी फंडिंग नहीं ली है ताकि उनका संगठन नॉन-प्रॉफिट ही रहे। लेकिन वे ज़मीनी स्तर पर काम कर रहे एनजीओ के साथ टाई-अप कर रहे हैं, जिससे वे पिछड़े से पिछड़े गाँवों में भी किसानों तक पहुँच पाएं।
वे किसानों के लिए एक भरोसेमंद और पारदर्शी बाजार तैयार करना चाहते हैं, जहां किसानों को उनकी लागत और मेहनत के अनुसार फसल की कीमत मिले। अंत में वे सिर्फ इतना ही कहते हैं,
"मैं नहीं समझता कि मैं किसी और के लिए कुछ कर रहा हूँ। इसलिए 'वेलफेयर' या फिर 'फेवर' जैसे भारी शब्दों के जाल से हम बचते हैं। क्योंकि मैं और मेरी टीम, यहां जो कुछ भी कर रही है, वह अपनी ख़ुशी से, अपनी आत्म-संतुष्टि के लिए कर रही है। इस काम को करके मुझे सुकून मिल रहा है। मुझे तो इन किसानों का शुक्रगुज़ार होना चाहिए कि वे अपने साथ काम करने का मौका देकर मुझे यह ख़ुशी और सुकून दे रहे हैं।"
यदि आप भी मनीष कुमार की इस पहल से जुड़ना चाहते हैं तो 7682930645 पर संपर्क कर सकते हैं!
संपादन: भगवती लाल तेली