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16 साल की उम्र में बच्चे अपने करियर की प्लानिंग करने लगते हैं कि वह आगे क्या करेंगे, क्या पढ़ेंगे? लेकिन ऐसे भी बहुत से बच्चे हैं, जिन्हें इस उम्र में अपने घर-परिवार की ज़िम्मेदारी का बोझ उठाना पड़ता है। ऐसा ही कुछ, नागालैंड (Nagaland) के रॉविलहोखो चूज़ो के साथ हो रहा था। उन्हें 16 साल की उम्र में तय करना था कि वह अपनी पढ़ाई करेंगे या फिर अपने परिवार को चलाने के लिए काम?
नागालैंड के मेडजीफेना में रहने वाले रॉविलहोखो को साल 2005 में अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ी क्योंकि घर के आर्थिक हालातों के चलते उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं था। वह अपने पिता की तरह दिहाड़ी-मजदूरी करने लगे। आजीविका के लिए उन्होंने खेतों में काम किया, लकड़ियाँ काटी, जंगल साफ़ किए और भी छोटी-मोटी जगह काम करते रहे।
चार भाई-बहनों में से एक रॉविलहोखो ने 12 साल की उम्र में ही अपनी माँ को खो दिया था। इस दुःख के साथ-साथ उनके परिवार की माली हालत भी ठीक नहीं थी और दो वक़्त की रोटी जुटा पाना भी मुश्किल था। बहुत मुश्किलों से उन्होंने अपनी पढ़ाई छोड़ने का फैसला किया और काम करने लगे। दिन के कभी उन्हें 150 रुपये मिलते तो किसी दिन 200 रुपये।
लेकिन यह लगभग 10 साल पहले की कहानी है। आज रॉविलहोखो 29 साल के हैं और एक उद्यमी हैं। जी हाँ! कभी दिहाड़ी-मजदूरी करने वाला यह लड़का आज 3 एंटरप्राइज का मालिक है और हर महीने लगभग 50 हज़ार रुपए कमाते हैं।
पाँच रुपए की कीमत:
साल 2012 तक उनकी स्थिति में कोई बदलाव नहीं हुआ और फिर एक दिन, उन्हें कोहिमा में औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान (ITI) में एक साल के कारपेंटर डिप्लोमा कोर्स के बारे में पता चला। उन्हें यह कुछ अलग लगा और उन्होंने इसे करने का फैसला किया।
“मेरे चाचा कोहिमा में रहते थे और मेरे प्रशिक्षण के दौरान उन्होंने मुझे अपने पास रखा। उन्होंने मुझे संस्थान से आने-जाने के लिए हर दिन रु.20 भी दिए। बजट बहुत कम था जिसमें मैं केवल सुबह 7.30 बजे नाश्ता करता था, और फिर रात में सीधे डिनर करता था। दिन के लिए मिले 20 रुपये में से 5 रुपये भी अगर मैं कहीं एक्स्ट्रा खर्च करता, तो मुझे घर पैदल जाना पड़ता था। कई बार ऐसा हुआ भी, तेज गर्मी में या बारिश में भीगते हुए मैं घर पहुंचा। इसलिए मैं 5 रुपये की कीमत अच्छी तरह से जानता हूँ," उन्होंने आगे कहा।
“कारपेंटर का काम सीखने के बाद मैंने अपना काम करने की ठानी और अपने घर लौट आया। कोई नौकरी नही थी, इसलिए मैंने अपना बिज़नेस शुरू करने का फैसला किया। कोई भी बैंक मुझे क़र्ज़ नहीं दे रहा था, क्योंकि मेरे पिता एक मजदूर थे। मैं किसी भी उपकरण को खरीदने का जोखिम नहीं उठा सकता था, सिर्फ किराए पर ले सकता था। लेकिन बिना किसी ऑर्डर के, मैंने महसूस किया कि मैं ऐसा नहीं कर सकता। सही प्रशिक्षण और कौशल होने के बावजूद, मैं अपने परिवार की आर्थिक स्थिति में सुधार नहीं पा रहा था," उन्होंने कहा।
2013 में, रॉविलहोखो को एक और भारी नुकसान का सामना करना पड़ा, जब उनके भाई का एक दुर्घटना में निधन हो गया। “भाई मेदो मेरे लिए सब कुछ थे, खासकर हमारी माँ के गुजर जाने के बाद। सात से 11 वर्ष की उम्र तक, उन्होंने स्कूल की फीस भरी और हम सभी भाई-बहनों का ध्यान रखा। उन्होंने माँ की ज़िम्मेदारी निभाई और इसलिए वह बहुत ख़ास थे," उन्होंने आगे कहा।
काम आया बैम्बू क्राफ्ट:
भाई की मौत और हाथ में कोई स्थिर काम नहीं, इस सबने उन्हें डिप्रेशन में पहुँचा दिया। वह कहते हैं कि साल 2014 में एक ऐसा भी मौका था जब उन्होंने अपनी ज़िंदगी को खत्म करने के बारे में सोचा। लेकिन फिर जैसे-तैसे खुद को समझाया और तय किया कि वह कोई गलत कदम नहीं उठाएंगे। उन्होंने हर दिन संघर्ष करते हुए भी सकारात्मक रहने की ठानी।
कुछ साल बाद, उन्हें नागालैंड बांस संसाधन केंद्र (NBRC) से बाँस शिल्प में नि: शुल्क प्रशिक्षण प्राप्त करने का एक और अवसर मिला। “गाँव के अध्यक्ष ने कहा कि NBRC प्रशिक्षित करने के लिए हर गाँव में उम्मीदवारों की तलाश कर रहा था, और मैंने साइन अप कर लिया। उसी वर्ष, नागालैंड बांस विकास एजेंसी (NBDA) व्यवसाय शुरू करने के लिए उपकरण और मशीनरी देने के लिए भी मान गयी," उन्होंने कहा।
उनका कहना है कि उन्होंने अपना उद्यम, Ruovi का क्रॉफ्ट कलेक्शन, तेनपी में शुरू किया, जो उनके घर से लगभग 30 मिनट की दूरी पर है। उन्होंने खिलौने, सजावटी सामान और पेन होल्डर जैसे उपयोगी उत्पाद बनाने शुरू किए, जो एनबीआरसी बांस एम्पोरियम में प्रदर्शित किए गए। “मैंने अपने उत्पादों को बेचकर 1,500 रुपये कमाए। मैंने इसमें से 500 रुपये बचाए, और अन्य जरूरतों पर 1,000 रुपये का इस्तेमाल किया। फिर बड़े पैमाने पर ऑर्डर मिलते ही आमदनी बढ़ने लगी," उन्होंने बताया।
वह कहते हैं कि उसकी सफलता की कहानी जल्द ही गाँव में फैलने लगी, और फिर आसपास के इलाके में भी। उनकी प्रेरक कहानी के लिए उन्हें स्थानीय एनजीओ कैन यूथ से एक पहचान मिली।
“उस कार्यक्रम के दौरान, एक महिला ने मुझसे संपर्क किया और पूछा कि क्या मैं उसके बेटे को बांस शिल्प/बैम्बू क्राफ्ट सिखा सकता हूँ। मैंने हाँ कर दी और तब से, कई अन्य लोग यह कला सीखने के लिए मेरे पास आए हैं," उन्होंने कहा। उन्होंने 2016 के बाद से 400 से अधिक लोगों को सिखाया है। इनमें स्कूल छोड़ने वाले और बेरोजगार युवा शामिल हैं, जो तीन महीने तक मुफ्त में प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं। प्रशिक्षण, और कक्षाओं के दौरान खाना भी दिया जाता है। इसके बाद उन्होंने अपने उद्यम का नाम बदल कर 'द नागाज़ फीदर' रखा और’ कलेक्शन स्टोर' नाम से एक और स्टोर भी खोला, जहाँ वह अपने क्राफ्ट बेचने लगे।
उनके प्रयासों के लिए NBDA ने उन्हें 2017 में 'प्रोमिसिंग आर्टिजन ऑफ द ईयर' नाम दिया।
सकारात्मकता है ज़रूरी
2017 में, रॉविलहोखो की मुलाक़ात, केविंगो सानो से हुई जो एक रेस्टोरेंट शुरू करना चाहतीं थीं। बाद में दोनों ने शादी कर ली। इन दोनों ने मिलकर 'चॉप स्टिक्स' शुरू किया। वह आगे कहते हैं, "हम नूडल्स और डम्पलिंग बेचते हैं, और इस संयुक्त उद्यम प्रति माह लगभग 50,000 रुपये कमाते हैं।"
उनके पिता के पास अब एक सरकारी नौकरी है, और उनके छोटे भाई ने एक कंप्यूटर इलेक्ट्रॉनिक्स स्टोर खोला है। दोनों आर्थिक रूप से स्थिर हैं और उनकी बहन की शादी हो गयी है।
वह कहते हैं कि वह अब अपने व्यवसाय के विस्तार की योजना बना रहे हैं। "अब जब मैं मशीनरी और उपकरण खरीद सकता हूँ, तो मैं लकड़ी के फर्नीचर का काम करना चाहता हूँ और बांस शिल्प के निर्यात के अवसर तलाश रहा हूँ," वह कहते हैं।
अपने जीवन को "अच्छा" और अपनी आय को "परिवार के लिए पर्याप्त" बताते हुए, उनका मानना ​​है कि सकारात्मकता सफलता का शुरूआती कदम है। "समाज ने मुझे हमेशा नीचा दिखाया, और उन समय मैं लगातार नकारात्मकता से घिरा हुआ था, परिस्थितियों से जूझ रहा था। मेरे जैसे लोगों को अधिक संघर्ष करना पड़ता है, और हम नकारात्मक सामाजिक पहलुओं से भी निपटते हैं और निरंतर आलोचना का सामना करते हैं," उन्होंने कहा।
“परिवार के पास कुछ भी नहीं था, तो हमारे दोस्त भी नहीं थे। उस वक़्त जीवन में बहुत अकेलापन था। लेकिन सकारात्मकता और एक बेहतर जीवन की उम्मीद, ये एकमात्र विचार थे जो मेरे मन में थे,” उन्होंने अंत में कहा। रॉविलहोखो अपने संघर्ष से भरे अतीत को भूल अब एक नए सफर पर कदम रखने वाले हैं। वह पिता बनने वाले हैं और वह बहुत खुश हैं।
यक़ीनन, रॉविलहोखो की कहानी हम सबके लिए एक प्रेरणा है!
सपादन - जी. एन झा
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