कहते हैं कि यदि एक औरत मुश्किलों से लड़ने की ठान ले, तो फिर बड़ी से बड़ी चुनौती उसे नहीं झुका सकती। असल ज़िंदगी की ये नायिकाएं बहुत ही आम औरतें होती हैं, जो अपनी मेहनत और हौसले के दम पर न सिर्फ़ अपनी, बल्कि औरों की भी ज़िंदगी बदलती हैं।
ऐसी ही कुछ कहानी है अहमदाबाद की छाया सोनवाने की; जिन्होंने गरीबी और समाज से लड़कर अपनी एक अलग पहचान बनाई और साथ ही, लगभग 3, 000 लड़कियों को अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए हुनरमंद बनाया है!
55 की उम्र पार कर चुकीं छाया सोनावने को पढ़ने का बहुत शौक था, पर वे सिर्फ़ 10वीं तक ही पढ़ पायीं और फिर उनकी शादी हो गयी।
"मेरे माँ-बाप के पास इतना पैसा नहीं था कि मुझे आगे पढ़ाते, इसलिए मैंने सिर्फ़ दसवीं की। पर मैं अपने गाँव में आस-पड़ोस के बच्चों को पढ़ाती थी। फिर शादी हो गयी, तो मैं अमदावाद आ गयी। यहाँ मेरे पति कैलिको मिल्स में काम करते थे। उनका काम कभी चलता, तो कभी छुट जाता। लेकिन मुझे हमेशा से था कि मैं मेरे बच्चों को अच्छे से अच्छे स्कूल में पढ़ाऊँगी," द बेटर इंडिया से बात करते हुए छाया बेन ने बताया।
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इसलिए अपने बड़े बेटे, अतुल के जन्म के बाद से ही उन्हें उसकी पढ़ाई की चिंता सताने लगी थी। साथ ही, उनके पति की नौकरी छुट जाने से घर की आर्थिक हालत भी बिगड़ने लगी। इस वजह से छाया बेन ने फ़ैसला किया कि वे कोई न कोई काम सीख कर पैसे कमाएंगी।
"हम दर्जी जाति से हैं। इसलिए सिलाई करने का हुनर तो खून में है। हमारी पहली पीढ़ियाँ भी यही काम करती थीं, इसलिए मैंने मेरे पति से कहा कि मुझे कहीं सिलाई सिखवा दें," छाया बेन ने कहा।
हालांकि, छाया बेन के पति तो मान गये, लेकिन उनके बाकी परिवार, ख़ासतौर पर उनकी सास को यह बात नहीं जमी। उनकी सास हमेशा उनको ताने देती और कहती कि उनसे कुछ नहीं होगा। "मेरी सास की बातों का मुझे बहुत बुरा लगता और इसलिए मुझे और भी जुनून हो गया कि अब तो मुझे घर में पैसे कमाने ही हैं।"
उनके पति ने ऑटो-रिक्शा चलाना शुरू किया और छाया बेन सिलाई सीखने जाने लगीं। यहाँ भी उनके लिए मुश्किलें कम नहीं थी। गरीबी का आलम उनके घर में इस कदर था कि वो सिलाई प्रैक्टिस करने के लिए कपड़ा भी नहीं खरीद सकती थीं।
ऐसे में, छाया बेन क्लास में बैठकर सिर्फ़ अपने उस्ताद को सुनती और देखती कि वो दूसरी लड़कियों को कैसे सिखा रहे हैं। सभी चीज़ों के वे नोट्स बना लेती थीं।
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फिर कुछ दिन बाद, जब उन्हें लगने लगा कि वे सिलाई कर सकती हैं, तो उन्होंने अपने आस- पड़ोस के लोगों से कपड़ा मांगना शुरू किया। "मैं अपने पड़ोसियों से यह कहकर कपड़ा ले लेती कि उनके बच्चों के लिए कोई ड्रेस सिलकर दे दूंगी। अब इतना तो भरोसा आ गया था मुझे खुदपर कि मैं किसी का कपड़ा खराब नहीं करुँगी। बस ऐसे कर- करके मैंने सिलाई भी सीख ली," छाया बेन ने बताया।
"ट्रेनिंग पूरी करने के बाद, मैंने कुछ दिन एक ट्रस्ट के साथ भी काम किया, उनके लिए मैं लड़कियों को सिलाई सिखाती थी। पर कुछ समय बाद मुझे पता चला कि वे मुझे मेरी मेहनत के भी पूरे पैसे नहीं दे रहे थे और ट्रस्ट में भी उनका भ्रष्टाचार वाला काम था। इसलिए मैंने वहां से काम छोड़ दिया," उन्होंने आगे कहा।
इसके बाद उन्होंने अपना कुछ शुरू करने की सोची। उन्हें सिलाई का काम तो मिलने लगा था, पर उससे घर में कितनी ही मदद हो पाती। साथ ही, उन्हें अपने बेटे का स्कूल में दाखिला भी करवाना था।
"फिर एक दिन, मेरी एक जानने वाली, जो मुझसे कपड़े सिलवाती थी, अपनी बेटी को मेरे पास लेकर आई और पूछने लगी कि क्या मैं उसे सिलाई सिखा सकती हूँ। मैंने हाँ कर दी और फिर वहीं से मेरी सिलाई का ट्रेनिंग सेंटर भी शुरू हो गया। मुझे कभी भी किसी से नहीं कहना पड़ा कि वो अपनी बेटी को मेरे पास सिलाई सिखने भेजे, बल्कि खुद ब खुद ही मुझे इतनी स्टूडेंट मिल गयी कि मुझे तीन शिफ्ट में अपनी क्लास करनी पड़ती थीं," छायाबेन ने हंसते हुए कहा।
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इसके बाद उन्होंने कभी भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्होंने अपने बेटे का दाखिला एक अच्छे इंग्लिश-मीडियम स्कूल में करवाया। हालांकि, इसके लिए भी उन्हें सलाह दी गयी कि वे अपने बच्चे को सरकारी स्कूल में पढ़ायें, क्योंकि वे बड़े स्कूल की फीस नहीं भर पाएंगी। पर छाया बेन ने किसी की परवाह नहीं की।
अपने बच्चों की पढ़ाई, घर की ज़िम्मेदारी और अपना काम, सभी कुछ छाया बेन ने एक साथ सम्भाले रखा। अपनी क्लास में भी आने वाली हर एक लड़की को वे इस सोच के साथ सिलाई सिखाती कि जो वे खुद झेल रही हैं; वह किसी और की बेटी न झेले।
"मैं तो उन लड़कियों में अपनी बेटी ही देखती थी। उन्हें अच्छे से सिखाती और साथ ही, समझाती भी रहती कि एक लड़की के लिए अपने पैरों पर खड़ा होना कितना ज़रूरी है। अगर कल को वो यहाँ से सीखकर, अपना कुछ कमाएंगी, तो मुझे बहुत ख़ुशी होगी," छायाबेन ने कहा।
उनका काम तो धीरे- धीरे बढ़ने लगा, पर घर की मुश्किलें अभी भी हल नहीं हुई थीं। उनके पति ऑटो- रिक्शा चलाते और वे दिन- रात सिलाई के काम में लगी रहती। पर फिर भी जैसे- तैसे वे अपने बच्चों की पढ़ाई का खर्च जुटा पाती थीं। उन्हें आज भी याद है, जब उनके बेटे ने दसवीं कक्षा के बाद साइंस से पढ़ाई करने की बात कही तो, उनके सभी रिश्तेदारों ने उनका मनोबल तोड़ा कि इतने बड़े ख़्वाब क्यों देखने, जब औकात न हो तो।
"पर मेरा बेटा बहुत होशियार था। इसलिए मैंने उसको साइंस ही दिलवाया। फिर ट्यूशन लगवाने के लिए फीस भी देनी थी। पैसे तो नहीं थे इतने, लेकिन मैंने सोचा कि उसके टीचर से बात करके कुछ डिस्काउंट मिल जायेगा तो अच्छा रहेगा। जब उसके स्कूल के टीचर्स से मैंने बात की, तो हमारे हालात समझते हुए उन्होंने बिना किसी पैसे के मेरे बेटे को पढ़ाने के लिए कहा। लेकिन फिर भी मुझसे जो बन पाता, मैं उनकी फीस के लिए देती थी," छाया बेन ने बताया।
इसके बाद जब उनके बेटे का इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला हुआ, तो उन्होंने दिन- रात एक करके कॉलेज और हॉस्टल की फीस का इंतजाम किया।
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उन्होंने अपनी ज़िंदगी में कितना भी मुश्किल वक़्त देखा हो, पर कभी भी इंसानियत को नहीं खोया। अपनी ट्रेनिंग क्लास में आने वाली लड़कियों के बारे में बताते हुए उन्होंने कई दिल छु जाने वाले वाकया साझा किये। उन्होंने बताया कि एक बार उनके पास एक दिव्यांग लड़की सिलाई सीखने आई थी। उस लड़की का कमर से नीचे का हिस्सा अपंग था। उस लड़की की माँ ने छाया बेन से विनती की कि वो उसे सिलाई सिखा दें; क्योंकि बाकी जगह कोशिश करके उन्हें सिर्फ़ निराशा मिली है।
"पहले तो मैं सोच में पड़ गयी कि ये लड़की सिलाई मशीन पर बैठेगी कैसे और पैरवाली मशीन तो चला ही नहीं पायेगी। पर फिर मुझे लगा कि वो लड़की भी तो सोचती होगी कि वो खुद को सम्भाले; इसलिए मैंने हाँ कर दी। मेरे पति ने भी मुझे बोला कि हम उसके लिए हाथ वाली मशीन खरीद लेंगें, जिस पर उसे सिखाया जा सके। अब हमारे पास बहुत पैसे तो नहीं थे, पर उस लड़की को सिखाने के लिए मुझे जो करना पड़े, मैंने किया," छाया बेन ने बताया।
इसके अलावा, वो नेपाल से आई दो बहनों के बारे में याद करते हुए बताया, जो उनके पास सिलाई सीखने आती थीं। उन दोनों बहनों के पिता यहीं किसी फैक्ट्री में गार्ड का काम करते थे। तभी उन्होंने छाया बेन के पास सिलाई सीखना शुरू किया। "वो दोनों बहने जब वापिस अपने यहाँ जा रही थीं, तो ख़ास तौर पर मुझसे मिलने आयीं और मुझे बोला कि टीचर, आप अपनी एक फोटो दे दो। हम उसे अपने यहाँ रखेंगे और अगर हमको कुछ समझ नहीं आएगा, तो हम आपकी तस्वीर को देखकर ही मुश्किल का हल ढूंढने की कोशिश करेंगें," छाया बेन ने भावुक होते हुए बताया।
उन्होंने आगे कहा कि उन्हें बहुत ख़ुशी होती है, जब भी उनकी कोई स्टूडेंट अपना काम शुरू करती है। आज भी उनकी बहुत सी स्टूडेंट उनसे मिलने आती हैं। उन्हें उनके जन्मदिन पर फ़ोन करके बधाई देती हैं।
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उनके पास सीखने आने वाली लड़कियों के माता- पिता ने भी कई बार मुसीबत में छाया बेन की बिना कुछ कहे ही मदद की है। शहर में जब डीज़ल वाला ऑटो- रिक्शा चलाना बंद हो गया और गैस वाला ऑटो-रिक्शा चलने लगा; तो छाया बेन और उनके पति के पास इतने पैसे नहीं थे कि वो नया ऑटो खरीद सकें। ऐसे में, उनकी एक छात्रा की माँ ने उनकी मदद की और उन्हें नया ऑटो खरीदने के लिए पैसे दिए।
पिछले 31 सालों में छाया बेन ने लड़कियों को न सिर्फ़ कपड़े सिलना-जोड़ना सिखाया है, बल्कि रिश्ते भी जोड़ना सिखाया है। आज भी उनकी क्लास में सीखने वाली लड़कियों की कोई कमी नहीं।
"मुझे काम करने का शौक हमेशा से है। मैं खाली नहीं बैठ सकती। आज भले ही पैसे कमाना मेरी ज़रूरत नहीं, पर मैं फिर भी ये काम करते रहना चाहती हूँ।"
हालांकि, उन्हें सबसे ज़्यादा ख़ुशी इस बात की है कि उन्होंने अपने बेटों के लिए जो सपने देखे थे, वे सब पूरे हुए हैं। उनका बड़ा बेटा, पुणे की कंपनी में अच्छे पद पर इंजिनियर है और छोटा बेटा, अहमदाबाद में ही एक आईटी कंपनी में अच्छी नौकरी कर रहा है। उनके दोनों बेटे चाहते हैं कि अब उनकी माँ आराम करे।
पर छाया बेन बस चलते रहना चाहती हैं और अपने पास आने वाली हर एक लड़की को काबिल बनाना चाहती हैं; ताकि उसे किसी पर भी निर्भर रहने की ज़रूरत न पड़े।