Powered by

Home प्रेरक महिलाएं एक सब्ज़ी, चाहो तो खा लो, चाहो तो सजा लो! बूझो क्या?

एक सब्ज़ी, चाहो तो खा लो, चाहो तो सजा लो! बूझो क्या?

सीमा प्रसाद ने अब तक 68 ग्रामीण महिलाओं को इस सब्ज़ी से क्राफ्ट बनाने की मुफ्त ट्रेनिंग देकर उन्हें आत्मनिर्भर बनाया है!

New Update
एक सब्ज़ी, चाहो तो खा लो, चाहो तो सजा लो! बूझो क्या?

र में अक्सर जब भी लौकी या फिर कद्दू की सब्ज़ी बनती है तो हम नाक चढ़ा लेते हैं। बहुत ही कम होता है कि ये सब्ज़ी किसी फैमिली के मेन्यू का रेग्युलर हिस्सा बने। बाजारों में भी इसकी मांग कम होती है और किसान भी इसे ज्यादा नहीं उगाते। अगर उगाते भी हैं तो सिर्फ एक या दो वैरायटी। आपको जानकार हैरानी होगी कि खाने के लिए इस्तेमाल होने वाली लौकी की 38 किस्में होती हैं और जंगली लौकी की 10 किस्में। पोषण से भरपूर लौकी के बारे में ऐसी बहुत-सी बातें हैं जो हम नहीं जानते।

आज इस कहानी में हम आपको ऐसा कुछ बताएंगे जो शायद आपने पहले न तो कभी सुना होगा और न ही देखा होगा। यह कहानी है कर्नाटक के मैसूर की रहने वाली सीमा प्रसाद की जो भारत में लौकी को उसकी असल पहचान दिलाने की कवायद में जुटी हैं।

publive-image
Seema Prasad

बचपन से ही आर्ट और क्राफ्ट के प्रति दिलचस्पी रखने वाली सीमा को अपनी पढ़ाई के दौरान कभी भी इस क्षेत्र में कुछ करने का मौका नहीं मिला। शादी के बाद जब उन्होंने अपने पति जी. कृष्ण प्रसाद के काम में उनकी मदद करना शुरू किया तो उन्हें अपने इस शौक को पूरा करने की राह मिली।

"हमारा सहजा समृद्ध नाम से देशी बीजों के संकलन, संरक्षण और संवर्धन का एक नॉन-प्रॉफिट ऑर्गेनाइजेशन है। हमने सिर्फ चावल की ही 700 देशी और पारम्परिक किस्में इकट्ठा की हुई हैं। अपने इस काम के चलते हमें ज़्यादातर फील्ड में जाना पड़ता है। इसी दौरान मुझे लौकी की अलग-अलग किस्मों को देखने और जानने का मौका मिला," द बेटर इंडिया से बात करते हुए सीमा ने बताया।

यह भी पढ़ें: जॉब, बिज़नेस के साथ भी खेती करना है आसान, इनसे सिखिए!

कर्नाटक के ही कई ग्रामीण इलाकों में उन्होंने लोगों के किचन गार्डन में अलग-अलग आकार और वजन के लौकी देखे। सीमा कहती हैं कि इन लौकियों की शेप इतनी अलग और आकर्षक थी कि वह खुद को इनके बारे में और ज्यादा जानने से रोक नहीं पाईं। उन्होंने जब लौकी की किस्मों, साइज़ और शेप पर रिसर्च करना शुरू किया तो उन्हें बहुत ही चौंकाने वाली बातें पता चलीं।

publive-image
Gourd Farmers
publive-image
Gourd Diversity

वह बताती हैं, "हर लौकी का साइज़ और शेप दूसरे से अलग था। ये क्लाइमेट पर निर्भर करता है। अलग-अलग जगहों पर बिल्कुल अलग-अलग किस्म की लौकी आपको मिल जाएगी। घरों में इस्तेमाल होने वाले लौकी जहां काफी बड़े और वजनदार होते हैं तो वहीं जंगली लौकी छोटे होते हैं। एक बेल पर 30-35 लौकी लग जाते हैं।"

पर किसान लौकी की फसल पर ज्यादा इन्वेस्ट नहीं करता है और न ही इसकी किस्मों को सहेजने पर उनका कोई ध्यान है, क्योंकि इसमें उनको कोई बचत नहीं होती।

यह भी पढ़ें: इस 90 वर्षीय किसान की लंबी उम्र का राज़ है जैविक खेती और प्राकृतिक जीवनशैली!

सीमा इन किस्मों को बचाना चाहती थीं और वह इसके लिए जो हो पाए करने को तैयार थी। यह उनका जुनून ही था कि उन्हें इन किस्मों को भारतीय बाज़ार में लाने का तरीका मिल गया और वह भी विदेशी ज़मीन पर।

"हमने अपनी फील्ड ट्रिप्स के लिए अफ्रीका, तांज़ानिया जैसे देशों में भी दौरे किए और वहां कुछ दुकानों में मैंने कुछ हैंडीक्राफ्ट प्रोडक्ट्स देखे जो कि लौकी के बने थे। वो प्रोडक्ट्स दिखने में इतने खूबसूरत थे कि उनसे नजरें हटाना मुश्किल था। बात करने पर पता चला कि वहां पर स्थानीय आर्टिस्ट लौकी को क्राफ्ट्स के लिए इस्तेमाल करते हैं क्योंकि बाजारों में इनकी काफी मांग है," उन्होंने आगे बताया।

publive-image
Some Products made of gourds

इसके बाद उन्हें पता चला कि लौकी को सहेजने और उनसे कलाकृति बनाने का प्रोग्राम यूएस में भी चल रहा है। सबसे पहले लौकी को हार्वेस्टिंग के बाद तीन महीने तक सुखाया जाता है। इसके बाद इसे खोखला करके, इस पर क्राफ्टिंग की जाती है और फाइनल प्रोडक्ट्स बनाए जाते हैं।

सीमा ने इस कला को भारत में लाने की ठानी। इसके लिए उन्होंने खुद इसे सीखना शुरू किया और इसके टूल्स भी खरीदे। साल 2017 में उन्होंने किसानों से अलग-अलग किस्मों की लौकी इकट्ठा करने शुरू किया और ऐसे आर्टिस्ट्स से मिलीं जो कि लौकी पर क्राफ्ट कर सकें।

यहाँ पर अपने अभियान के दौरान उन्हें पता चला कि भारत में भी लौकी पर क्राफ्ट होता है और इस कला को 'तुमा क्राफ्ट' कहते हैं। छत्तीसगढ़ और झारखंड के कुछ आदिवासी समुदाय इस कला में माहिर हैं। हालांकि, उनका काम सिर्फ उनके समुदायों तक सीमित है क्योंकि उन्हें बाज़ार नहीं मिल पाता है।

लौकी की किस्मों और कला को सहेजने के लिए सीमा ने अपने पति के साथ मिलकर जनवरी 2018 में 'कृषिकला' की नींव रखी। इस संगठन के ज़रिए वे न सिर्फ इस कला से लोगों का परिचय करवा रहे हैं बल्कि किसानों के लिए एक बाज़ार भी तैयार कर रहे हैं। साथ ही, वे ग्रामीण महिलाओं और बेरोजगार लोगों को यह कला सिखाकर उन्हें रोज़गार के विकल्प दे रहे हैं।

publive-image
Gourd Farming can lead to more income to farming because f the craft

सीमा का उद्देश्य तो बेशक बहुत ही नेक है पर इसे पूरा करने के लिए उन्होंने काफी संघर्ष किया है। सबसे पहले तो उन्होंने किसानों को इस कला के बारे में बताकर उन्हें ज्यादा से ज्यादा लौकी उगाने के लिए कहा। लेकिन किसानों को उनकी किसी बात पर भरोसा नहीं हो रहा था। किसानों को लग रहा था कि इस तरह के प्रोडक्ट्स बनाना सम्भव नहीं है। इस वजह से शुरू में सीमा और और उनके पति मुश्किल से 5000 लौकी इकट्ठा कर पाए। इसके बाद, उन्होंने लौकी से रोज़मर्रा के इस्तेमाल में आने वाले कम दाम के प्रोडक्ट्स बनाए ताकि इनसे प्लास्टिक को रिप्लेस किया जा सके।

सीमा बताती हैं - "इसके लिए हम कुछ आर्टिस्ट से मिले और उनसे कहा कि वे अपनी आर्ट इन लौकियों पर करें। लक्ष्य तो यूज़ेबल प्रोडक्ट्स बनाने का था पर उन्होंने हमें शोपीस बनाकर दिया। उनकी लागत और मेन्टेनेन्स वैल्यू भी बहुत ज्यादा थी। जिस वजह से उनका रेट बहुत ज्यादा हो गया जबकि हमारी सोच हमेशा से यही थी कि हम ग्राहकों को कम से कम रेट में ये प्रोडक्ट्स दें।"

publive-image

2018 में उन्हें दिल्ली जाकर वर्ल्ड ऑर्गेनिक कांग्रेस के स्टेज को सजाने का मौका मिला। यहाँ की सजावट के लिए उन्होंने अपने लौकी के हैंडीक्राफ्ट प्रोडक्ट्स का इस्तेमाल किया। इस समरोह में देश के किसानों से लेकर विदेशी लोग भी शामिल हुए थे। उन सभी को इन प्रोडक्ट्स ने आकर्षित किया।

"बहुत से विदेशी लोगों ने पूछा कि अगर हम ये बेचना चाहें तो? शुरू में हमने मना किया पर फिर लगा कि शायद यही हमारा मौका है और फिर हमने आखिरी दिन अपनी स्टॉल लगा ली। मात्र 3 घंटे में हमने 18, 000 रुपये के प्रोडक्ट्स बेचे," उन्होंने हंसते हुए कहा।

यह भी पढ़ें: जानिए कम जगह में जंगल उगाने की तकनीक!

इसके बाद, कृषिकला को एक पहचान मिली। किसानों ने भी उन्हें सम्पर्क करना शुरू किया। सीमा कहती हैं कि 2019 में उन्होंने कुल 16, 000 लौकी इकट्ठा किए। साथ ही, उनके प्रोडक्ट्स की रेंज भी बढ़ी। पहले जहाँ सिर्फ शोपीस बन पाए थे, वहीं दूसरे साल उन्होंने यूजेबल प्रोडक्ट जैसे कि पेन होल्डर, टिश्यू होल्डर, की-चैन, डॉल्स, प्लांटर्स, डोर हैंगिंग, वॉल हैंगिंग आदि बनाना शुरू किया है। उन्होंने लौकी के प्रोडक्ट्स पर रंग इस्तेमाल करना भी बंद कर दिया ताकि उनके सभी प्रोडक्ट्स नैचुरल और इको-फ्रेंडली रहें। इससे उनकी लागत भी काफी कम हुई है।

publive-image
Products
publive-image
Some of the products

publive-image

सीमा कहती हैं कि अब उन्हें पूरी उम्मीद है कि उनका व्यवसाय, जो कि पिछले दो सालों में बहुत ही मुश्किल से अपनी लागत निकाल पाया है, आने वाले समय में प्रॉफिट कमाएगा। पिछले साल से उनके प्रोडक्ट्स की काफी मांग बढ़ी है। साथ ही, अब किसान और आर्टिस्ट, दोनों उन पर भरोसा कर रहे हैं।

"हमने लगभग 68 ग्रामीण महिलाओं को मुफ्त में ट्रेनिंग कराई है ताकि वे खुद अपने यहाँ लौकी उगाकर अपने प्रोडक्ट्स बना सकें।"- सीमा

मार्च 2020 तक वे ज्यादा से ज्यादा लोगों को रोज़गार देने की योजना पर काम कर रहे हैं। साथ ही, उनका उद्देश्य ग्राहकों को प्लास्टिक प्रोडक्ट्स के ज्यादा से ज्यादा इको-फ्रेंडली विकल्प देना है ताकि प्लास्टिक को रोका जा सके। इसके लिए वे इवेंट डेकॉर प्रोडक्ट्स बनाने पर भी काम कर रहे हैं।

publive-image

"मैं बस चाहती हूँ कि यह कला और ये प्रोडक्ट्स भारत में प्रीमियम प्रोडक्ट्स बनें, जिनके डिज़ाइन और वैल्यू एकदम हटके हों। इसके अलावा मेरा सपना है कि मैसूर में बोटलगार्ड म्यूजियम (लौकी म्यूजियम) भी हो। इसके लिए हम दिन-रात काम कर रहे हैं। उम्मीद है कि इसके ज़रिए हम किसानों और कलाकारों, सभी के लिए आय के अच्छे विकल्प बना पाएंगे," उन्होंने अंत में कहा।

संपादन - अर्चना गुप्ता

यह भी पढ़ें: घर से शुरू किया पेपरलैंप बनाने का कारोबार, आज 80 महिलाओं को दे रहीं हैं रोज़गार!

यदि आपको इस कहानी ने प्रभावित किया है और आप यह हैंडीक्राफ्ट प्रोडक्ट्स खरीदना चाहते हैं तो कृषिकला के फेसबुक पेज पर सम्पर्क कर सकते हैं। आप उन्हें [email protected] पर मेल भी कर सकते हैं!


यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है, या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ साझा करना चाहते हो, तो हमें [email protected] पर लिखें, या Facebook और Twitter पर संपर्क करें। आप हमें किसी भी प्रेरणात्मक ख़बर का वीडियो 7337854222 पर व्हाट्सएप कर सकते हैं।