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हिन्दी कविता प्रोजेक्ट करने की सबसे बड़ी ऊर्जा मिलती रही है वरिष्ठ साहित्यकारों के सानिध्य और उनके साक्षात्कार से. इतने साल गुज़रे हैं लेकिन बातों की विविधता, नवीनता और रोचकता कम नहीं होती. और मैं सबसे दरख़्वास्त करता हूँ कि साहिबा / साहब बहुत सी फ़ुरसत निकाल कर मिलें. चाय-वाय पियेंगे, खाना-वाना होगा, दुनिया जहान की बातें होंगी और फिर हुआ तो कोई वीडियो भी बन जाएगा. बचपन की कहानियाँ, कचोटती हुई जवानी की उलझनें, शादी, उसके इतर, उसके इधर-उधर की बातों में कब घण्टे गुज़र जाते हैं पता ही नहीं चलता. एक वीडियो तो तीन-चार मिनट का बनता है लेकिन बातें होती हैं दिन दिन भर. और हर विषय पर. जीवन, कर्म, कॉफ़ी, किताबें, सेक्स, प्यार, व्यार (ये ज़्यादा मज़ेदार वाकये होते हैं अक्सर). प्यार के बाद जैसे ही उनके 'व्यार के बारे में तहकीकात करता हूँ, एक शरारती हँसी उभरती है दिग्गजों के चेहरे पर :) और फिर कहाँ कहाँ के क़िस्से निकलते हैं. अमूमन हर दफ़ा कैमरा तो बंद ही करवा दिया जाता है..
एक बार पद्मश्री पद्मा सचदेव जी (डोगरी कविता की माँ कहा जाता है इन्हें) के साथ शूट कर रहे थे और किसी बात पर उन्होंने एक क़िस्सा सुनाया जिसे आपके साथ साझा करता हूँ. लेखकों की अंदरूनी नोक-झोंक चलती रहती होगी - एक बार इस्मत चुगतई थीं कमरे में और पद्मा जी किसी किताब के पन्ने पलट रही थीं. अभिसारिका शब्द पर निग़ाह पड़ने पर उन्होंने इस्मत आपा को छेड़ते हुए कहा:
"अभिसारिका!! अहा! देखिये आपा कितना सुन्दर शब्द है. कितना सशक्त, कितना मीठा, कितना संगीतमय.. क्या लय है इसकी, क्या मायने हैं. दुनिया की किसी भी भाषा में इसके जैसा शब्द हो ही नहीं सकता. आप ही बतायें, है उर्दू में इसके लिए कोई शब्द?"
इस्मत चुगतई ने छूटते ही जवाब दिया - "है! बिल्कुल है, क्यों नहीं है. हमारे यहाँ ऐसी लड़की को कहते हैं - लफ़ंगी!!" उनकी हाज़िरजवाबी पर सबकी हँसी निकल गयी.
* * *
इसी बात पर एक कविता साझा कर रहा हूँ, जिसका शीर्षक है 'अभिसार' इसे उपासना झा ने लिखा है. इसे पढ़ लीजिये (और बहुत कुछ पढ़ने की आदत डालिये - ज़िन्दगी समृद्ध होती है इससे)
अभिसार
इस तेज भागती दुनिया में
एक दोपहर
चुपचाप, दीवारों को भी ख़बर किये बिना
मिले दो प्रेमी
दुनिया, जिसमें प्रेम बहुत कम है
मिलने की जगहें
उससे भी कम
मिले वे जैसे
आधी रात के बाद
चुपचाप गिरती है शीत
जैसे ठंडी रहती है भीत
जैसे झरते हैं शिउली फूल
चुपचाप जैसे जमती है धूल
जैसे हवा उड़ाती है मेघ
हथेली में उगती है रेख
जैसे जेठ में होती है बरसात
जैसे शरद पूर्णिमा की हो रात
जैसे बसन्त में खिलता है पलाश
जैसे निर्जल में लगती है प्यास
वंचित स्वप्नों की जगह भरी
उन्होंने साझी दोपहरी से
संग-संग हँसते हुए
हँसती आँखो से रोये संग
देह को ओढ़ी रही देह
आत्मा लिपटी रही आत्मा से
उंगलियाँ कहती रही
अनगिनत विकल छंद
भाषा में कहाँ हैं वे शब्द
जो कह सके
उनके हृदयों ने गाये
किस सुर में गीत
इतिहास नहीं दर्ज़ करता
जिन मुलाक़ातों को
कविताएँ रखती हैं
उन्हें अनन्त काल तक याद
और अब देखें वरिष्ठ कवि उदयप्रकाश जी की कविता प्रस्तुत कर रहे हैं वरुण ग्रोवर.
इस कविता का शीर्षक है 'चलो कुछ बन जाते हैं'. और वीडियो देखने के बाद अपना फ़ोन, कम्प्यूटर बंद कर दें और अपना सप्ताहांत प्यार-व्यार-और अभिसार की बातों, ख़यालों में बितायें :)
लेखक - मनीष गुप्ता
हिंदी कविता (Hindi Studio) और उर्दू स्टूडियो, आज की पूरी पीढ़ी की साहित्यिक चेतना झकझोरने वाले अब तक के सबसे महत्वपूर्ण साहित्यिक/सांस्कृतिक प्रोजेक्ट के संस्थापक फ़िल्म निर्माता-निर्देशक मनीष गुप्ता लगभग डेढ़ दशक विदेश में रहने के बाद अब मुंबई में रहते हैं और पूर्णतया भारतीय साहित्य के प्रचार-प्रसार / और अपनी मातृभाषाओं के प्रति मोह जगाने के काम में संलग्न हैं.