![कविता-क्लोनिंग [क्या इससे बचना सम्भव है?]](https://img-cdn.publive.online/fit-in/1280x960/filters:format(webp)/hindi-betterindia/media/post_attachments/uploads/2019/01/चाय.png)
आ ज से तीस बरस पहले हॉस्टल में रहने वाले दिनों में हम कुछ लड़कों ने गुलज़ार की अभिव्यक्ति के एक आयाम को डीकोड कर लिया था, जो लड़कियों को लट्टू बनाने में बड़ा काम आता था. "तुम्हारी आँखों की सुर्ख़ ख़ुशबू बनी रही रात भर" जैसी बातें पर्याप्त थीं किसी पंजाबन की नींद उड़ाने के लिए. वो झूठ था, यहाँ रात भर क्रिकेट की बात होती थी, एक दूसरे की टाँग खींची जाती थी, चाय का जुगाड़ घंटों खा जाता था.. कहने का मतलब यह कि सम्वेदना हमारी नहीं थी लेकिन "इस शाम का नीला तुम्हारे साथ पी लूँ" जैसी बातें बनाना हम सब बख़ूबी सीख गए थे.
कुछ लोग तो बाक़ायदा गुलज़ार जैसी कविता ही लिखने लगे और अपने आपको वाकई कवि भी समझने लगे थे. चूँकि चुराई हुई शैली थी, तो किसी ने उनकी कविता छापी नहीं और वे जल्द ही कवित्त छोड़ छाड़ कर नौकरी के जोड़तोड़ में लग गए. हो सकता है कि फ़ेसबुक जैसा कोई मंच होता और सब वहाँ लिखते, एक दूसरे की तारीफ़ों के पुल बाँधते, ख़ास लोगों की चमचागिरी करते, उनसे अपनी किताब के बारे में कुछ लिखवा लेते, अपने जूनियर बैच के कवियों को दबाए रखते तो आज वे सब आज के वरिष्ठ कवियों में शुमार होते.
मनस में पहले सम्वेदना उतरती है. जब वह सम्वेदना किसी वजह से अभिव्यक्ति ढूँढती है, तब कला का जन्म होता है. किसी भी माध्यम में हो, अभिव्यक्ति को भाषा चाहिए जैसे हर पेंटर की एक अपनी भाषा होती है, हर मूर्तिकार की अलग और साहित्यकार की अलग. यह भाषा कलाकार ख़ुद अपनी सलाहियत से गढ़ता/अपनाता है. और इस भाषा की आभा से ही लोग उस कलाकार के शिल्प में दिलचस्पी रखते हैं.
एम. एफ. हुसैन की तरह पेंटिंग बनाने वाले की कद्र कैसे हो? वह तो उनकी भाषा, उनके प्रतीक, उनके स्ट्रोक्स, उनकी अभिव्यक्तियों की युक्तियों को समझ कर उनकी प्रतिलिपियाँ बना रहा है. वैसे ही एस. डी. बर्मन की धुन पर कोई दूसरा गीत रचे तो कहाँ से वाहवाही मिलेगी उन्हें? आज आप जिस शहर में जाएँ चार-छः ग़ज़ल गायक टकरा ही जाएँगे - सभी की एक जैसी धुनें होती हैं ये लोग क्यों नहीं बेग़म अख़्तर, मेंहदी हसन या इक़बाल बानो की तरह अपना हस्ताक्षर बनाने की सोचते हैं? एक दूसरे की तरह गा कर आप कैसे स्थापित हो पाएँगे? जैसे आजकल हर शहर में रेडियो जॉकी एक ही अंदाज़ में बात करते नज़र आते हैं. ये उनके स्वयं के अंदाज़ नहीं हैं, वरन सीखी हुई स्किल है, जो उन्हें नौकरी-वौकरी तो दिलवा दे लेकिन एक अमीन सायानी की तरह इतिहास में स्थान नहीं दिलवा पाएगा न ही वे कलाकार कहलायेंगे.
वैसे ही कविता लिखने की स्किल सीख सीख कर किताबें छपवाई जा रही हैं, वैसे भी आजकल कोई सम्पादन का मुआमला तो है नहीं, अपने पैसे दे कर जैसी चाहे छपवा लो, फिर सोशल मीडिया पर अपने आपको प्रमोट कर लो. कवि मित्र एक दूसरे की किताबें प्रमोट करते रहें और ज़िन्दगी आगे चलती रहे. लेकिन इन्हीं में से कुछ लोग हैं, जो जुटे हुए हैं अपनी संवेदनाओं को समझने, अपनी अभिव्यक्ति के हस्ताक्षर तराशने. वक़्त के साथ वही टिकेंगे, बाक़ी लाइक्स गिनते हुए जैसे तैसे अपने को ख़ुद के सामने श्रेष्ठ साबित करने के असंतोषजनक प्रयास करते रहेंगे।
[उपन्यासों की क्लोनिंग नहीं हो रही है क्योंकि उपन्यास लिखना तो बड़ी मेहनत का काम है.]
अब विषय बदलते हैं. आज कुछ भारी हो गया इसे ठीक करने के लिए मिलिए चुलबुली आकृति सिंह से:
लेखक - मनीष गुप्ता
हिंदी कविता (Hindi Studio) और उर्दू स्टूडियो, आज की पूरी पीढ़ी की साहित्यिक चेतना झकझोरने वाले अब तक के सबसे महत्वपूर्ण साहित्यिक/सांस्कृतिक प्रोजेक्ट के संस्थापक फ़िल्म निर्माता-निर्देशक मनीष गुप्ता लगभग डेढ़ दशक विदेश में रहने के बाद अब मुंबई में रहते हैं और पूर्णतया भारतीय साहित्य के प्रचार-प्रसार / और अपनी मातृभाषाओं के प्रति मोह जगाने के काम में संलग्न हैं.
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