“अपने काम के साथ अपनी राह बनाते रहो और इस राह में दूसरों की मदद करना मत भूलो!”

मुंबई की सना शेख़ ने कॉर्पोरेट हॉस्पिटल की नौकरी छोड़ एड्स पीड़ितों के लिए काम करना शुरू किया। इसके लिए उन्होंने पुरे भारत में प्रोग्राम किया और यूनिसेफ के साथ भी जुड़ी रहीं। आज वे एमबीए की डिग्री पूरी कर कंपनी में मार्केटिंग की एसोसिएट डायरेक्टर हैं और साथ ही सोशल वर्क भी कर रही हैं।

“जब मैं मेडिकल कॉलेज में पढ़ रही थी तो मैं चाहती थी कि मैं और भी बहुत कुछ करूँ। कॉलेज में मैंने एक फाउंडेशन के साथ काम करना शुरू किया, जो सेक्स वर्कर रहीं महिलाओं के पुनर्वास के लिए काम करती है।

यहाँ मुझे एक 11 साल की लड़की का केस दिया गया, जो न तो किसी से बात करती थी और न ही कुछ खाती थी। वह अपनाप में खोयी हुई सी बस एक कोने में अकेली, चुपचाप बैठी रहती। कोई भी उससे बात करने में सफल नहीं हो पाया था। उसके चारों तरफ बनीं उस दीवार को गिराने के लिए- मैं भी घंटों चुपचाप उसके साथ बैठी रहती और उसे सिर्फ इतना पूछती कि क्या वो मेरे साथ खाना खाएगी। कुछ समय लगा, पर फिर उसने खाना शुरू किया और इसके बाद हम दोनों एक-दुसरे से बात भी करने लगे। एक औपचारिक जांच के बाद पता चला कि वह लड़की एचआईवी-पॉजिटिव है। मैं सिर्फ 19 साल की थी पर न जाने क्यों मुझे उसकी तरफ एक जिम्मेदारी महसूस हुई। मैंने उसका आर्थिक खर्च उठाने का फ़ैसला किया और आज भी वह मेरी ‘बेटी’ है।

डॉक्टर बनने के बाद मैंने एक कॉर्पोरेट हॉस्पिटल में काम करना शुरू किया। लेकिन सिर्फ 10 दिनों में मुझे समझ आ गया कि मैं इस तरीके से डॉक्टरी करने के लिए नहीं बनी हूँ। और अपनी आय से 70% कम तनख्वाह पर मैंने एक एड्स फाउंडेशन के साथ काम करना शुरू किया। और इसी के साथ मुझे पूरे भारत की यात्रा करने का मौका मिला, लोगों को मदद के लिए प्रोग्राम लीड किये। मैंने यूनिसेफ के साथ भी एक प्रोग्राम ज्वाइन किया और एनजीओ के साथ काम करने से मुझे एक उद्देश्य मिला।

जल्दी ही, मुझे अहसास हुआ कि स्वयंसेवा करना अच्छी चीज़ है, लेकिन इसके लिए इकट्ठा करना भी बहुत ज़रुरी है। मेरी उपस्थिति और मेरे काम ने बहुत से लोगों की मदद की, लेकिन आगे और भी काम करने के लिए मुझे भी तरक्की करनी होगी। मेरा सौभाग्य है कि मुझे ऐसे बॉस मिले, जो मेरे लिए मेरे गुरु भी थे और उन्होंने सुझाव दिया कि अगर मैं लम्बे समय तक अच्छा काम करना चाहती हूँ तो अच्छा कमाना भी बहुत ज़रूरी है।

मैंने फिर से एक बार पढ़ाई शुरू कर, मार्केटिंग में एमबीए करने का निर्णय किया। 25 की उम्र में शादी के लिए बढ़ते सामाजिक दबाव को नजरअंदाज कर और मेरे परिवार के समर्थन से मैंने एक और डिग्री हासिल कर ली। शायद यही मेरा उद्देश्य था! काम में मैंने अपने लक्ष्यों को पूरा किया और मेरी काबिलियत को साबित किया; अवसर मिलते रहे और आज मैं अपनी कंपनी में मार्केटिंग की एसोसिएट डायरेक्टर हूँ— और मेरी उम्र अभी 30 साल भी नहीं है। अपने रास्ते को बदलना मेरे लिए सही रहा।

दुनिया में बदलाव लाने का यह मतलब नहीं है कि आप उसके लिए अपनी पूरी ज़िन्दगी न्योछावर कर दें- आप एक साथ दोनों दिशा में काम कर सकते हैं! हर इंसान के लिए सफ़लता के अलग मायने हैं- और शायद मेरे लिए यही सफ़लता है। अपने काम के साथ अपनी राह बनाते रहो और इस राह में दूसरों की मदद करना मत भूलो- इससे ज्यादा संतुष्टि की बात और कुछ नहीं है और मैं इसी को जीत मानती हूँ।”

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