कर्नाटक के बेलगावी स्थित शिरुर गाँव के रहने वाले 38 साल के सतीश शिदगौदर अपने 1.5 एकड़ ज़मीन पर हर साल 50 टन से अधिक करेला उगाते हैं। उस क्षेत्र में उन्हें ‘करेला विशेषज्ञ ’के नाम से जाना जाता है।
एक किसान परिवार से होते हुए भी सतीश शुरू में खेती नहीं करना चाहते थे, बल्कि एक शिक्षक बनना चाहते थे।
वह कहते हैं, “2008 में बीए और बीएड की दोहरी डिग्री हासिल करने के बाद मैंने टीचिंग की नौकरी खोजनी शुरू कर दी। आखिरकार मुझे नौकरी का एक मौका भी मिला। 16,000 रुपए महीने की तनख्वाह थी लेकिन मुझसे 16 लाख रुपए रिश्वत मांगी गई। रिश्वत देने के लिए मेरे पिता लोन लेने के लिए तैयार थे। लेकिन मैंने नौकरी के लिए मना कर दिया और अपने पिता और चाचा के साथ खेती शुरू की।”

सतीश ने अपने पिता की खेती के पुराने तरीकों को अपनाने के बजाय कुछ अलग करने के बारे में सोचा। उन्होंने उत्पादन बढ़ाने और अच्छी कमाई के लिए खेती के आधुनिक तरीकों को आजमाना शुरू कर दिया।
सतीश बताते हैं, “मेरे पिता नागप्पा और उनके भाई पिछले 50 सालों से कई प्रकार की सब्जियों की खेती कर रहे हैं। लेकिन उन्हें इतना मुनाफा कभी नहीं हुआ। उनकी उपज और गुणवत्ता हमेशा ही खराब होती थी। खेती शुरू करने के बाद मैंने पानी की अच्छी व्यवस्था के लिए ड्रिप सिंचाई जैसी आधुनिक तकनीक अपनाई और पौधों में नमी बनाए रखने के लिए उन्हें क्यारियों में लगाया। मैंने दूसरे किसानों और किताबों से खेती के तरीके सीखे। इसके अलावा बाजार की मांग के बारे में भी जानकारी इकट्ठा की।”
बाजार में करेले की भारी मांग थी। लेकिन शिरूर में केवल कुछ ही किसान इसकी खेती करते थे। हाल के सालों में लोगों ने करेले के महत्व को समझा है। उन्हें अब मालूम है कि करेले से हानिकारक कोलेस्ट्रॉल घटता है और डायबिटीज नियंत्रित होती है। उन्होनें शुरूआत में सिर्फ 10 गुंटास (0.25 एकड़) जमीन में ही करेले लगाए। एक तरह से यह ट्रायल था।
उन्होंने खेती के वही तरीके अपनाएं जो वह अन्य फसलों के लिए अपनाते थे जैसे कि ड्रिप सिंचाई का इस्तेमाल करना, बेस पर गीली घास उगाना जिससे खरपतवार की समस्या ना हो और नमी बनी रहे।
सतीश बताते हैं कि, “हमारा ट्रायल राउंड सफल रहा। कुछ ही महीनों में करेले तोड़ने लायक हो गए।”
इसके बाद से उन्होंने अपने 5 एकड़ जमीन में से 1.5 एकड़ पर पूरे साल करेले की खेती करना शुरू किया और बाकी बचे 3.5 एकड़ में गन्ना लगाया।
वह कहते हैं, “सबसे पहले मैंने खेत की 3 से 4 बार जुताई की। इससे मिट्टी भुरभूरी हो गई और खरपतवार नष्ट हो गए। फिर मैंने क्यारियां बनाकर बीज रोपे। हर क्यारी में तीन बीज उगते हैं। इसके साथ ही मैंने ड्रिप सिंचाई और स्प्रिंकल सिस्टम लगाए ताकि पौधों को नियमित अंतराल पर सही मात्रा में पानी मिलता रहे। चूंकि पौधे को हर दूसरे दिन पानी की जरूरत होती है इसलिए ड्रिप सिस्टम बेहतर विकल्प है। करेले के पौधे में लताएं होती हैं इसलिए मैंने इन्हें ऊपर चढ़ने के लिए बांस की लकड़ी से पंडाल बनाए।”
हर साल 50 टन करेले का उत्पादन
सतीश कहते हैं, “पूरे साल में मैं करीब 30 बार जब बेचने के लिए करेले तोड़कर इकठ्ठा करता हूं तो हर बार 1.5 से 2 टन करेले निकलते हैं। साल के अंत तक 50 टन करेले का उत्पादन होता है। एक टन करेले 35,000 रुपए में बिकते हैं लेकिन यह बाजार की मांग पर भी निर्भर करता है। पिछले साल 48,000 रुपए प्रति टन करेले बिके। सीजन के दौरान मैं हर दिन 25,000 रुपए कमा लेता हूं जो कि किसी दूसरी नौकरी से कहीं ज्यादा है।”
लेकिन इस मुकाम पर पहुंचना इतना आसान नहीं था। सतीश कहते हैं कि उन्हें अपनी फसलों को कीटों से बचाने के लिए कई कीटनाशकों का इस्तेमाल करना पड़ा।
वह कहते हैं, “शुरू में कई पौधों में फफूंदी जैसी बीमारियां लग गईं। फिर मैंने कार्बेन्डाजिम और ऑर्गेनिक कीटनाशकों का छिड़काव करके पौधौं को बचाया। इन कीटनाशकों में मुख्य सामग्री नीम ही होती है, इसका उपयोग करने से पौधों की उपज और उनके गुणों पर कोई हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ता है।”
सतीश कहते हैं, “अच्छा हुआ कि उस समय नौकरी पाने के लिए मैंने रिश्वत नहीं दिया। यही वजह है कि आज मैं खेती में कामयाब हूं। खेती शुरू करने के लिए मुश्किल से मैंने 15 लाख रूपए लगाए थे। लेकिन अब तक इससे कहीं अधिक मैं कमा चुका हूं। वह मानते हैं कि स्मार्ट वर्क और लगन से कोई भी कुछ भी हासिल कर सकता है।”
मूल लेख-ROSHINI MUTHUKUMAR
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