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3200 किमी की पैदल लद्दाख यात्रा और 7 महीनों का समय, जानना चाहेंगे कैसे हुआ मुमकिन?

Ladakh trip

मिलिए पुणे के निखिल सावलापुरकर और परिधि गुप्ता से, जिन्होंने सात महीने में लद्दाख की यात्रा किसी बाइक या जीप के बजाय पैदल की है। मगर उन्होंने क्यों किया ऐसा और क्या सीख मिली इससे उन्हें, जानने के लिए ज़रूर पढ़ें उनकी कहानी।

कोरोना के दौरान जब सभी अपने-अपने घर के कमरे में कैद थे, तब पुणे में रहनेवाले निखिल सावलापुरकर और परिधि गुप्ता अपने जीवन के सबसे बेहतरीन अनुभव की प्लानिंग कर रहे थे। घूमने-फिरने के शौक़ीन इस कपल ने मिलकर लद्दाख की पैदल यात्रा करने का मन बनाया। करीबन एक साल की प्लानिंग और छोटी-मोटी तैयारियों के बाद, उन्होंने आख़िरकार नौ महीने में 3200 किमी चलकर अपनी यात्रा पूरी कर ली।  

लेकिन उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि इस यात्रा के बाद, उनका पूरा जीवन जीने का तरीका ही बदल जाएगा। इतना ही नहीं पर्यावरण के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को समझते हुए उन्होंने इस यात्रा के दौरान, जिन-जिन बातों का ध्यान रखा है वह कइयों के लिए प्रेरणा है। 

द बेटर इंडिया से बात करते हुए परिधि और निखिल बताते हैं, “हम साल 2019 में एक बार पहले भी लद्दाख गए थे।  लेकिन अपनी उस ट्रिप से हम काफी नाखुश थे। हमें लगा कि हम कोई भी नई जगह नहीं घूम पाए, न ही हम वहां के लोकल लोगों और व्यंजनों आदि के बारे में जान पाए। इसके बाद, हमने फिर से एक बार लद्दाख घूमने का इरादा बनाया।”

हालंकि तब उन्हें पता नहीं था कि उनका दूसरा लद्दाख ट्रिप उनके लिए इतना स्पेशल होगा, जिसमें वे करीबन 18000 फ़ीट की ऊंचाई वाली जगह से लेकर 3200 किमी की पैदल यात्रा करेंगे।  

कैसे आया पैदल लद्दाख यात्रा का ख्याल?

Nikhil and Paridhi during their ladakh trip
लद्दाख यात्रा पर परिधि और निखिल

मूल रूप से ये दोनों ही मध्य प्रदेश के रहने वाले हैं। कोरोनाकाल के पहले दौर में यानी 2020 की शुरुआत में, परिधि इंडोनेशिया से काम कर रही थीं और निखिल पुणे में थे। वे उस समय फ़ोन पर ही बात किया करते थे।  

परिधि अपनी एक फ़ोन कॉल के बारे में बात करते हुए बताती हैं, “26 जून 2020 को हम सोच रहे थे कि अगर घर से ही काम करना है, तो क्यों न कहीं पहाड़ों में जाकर काम किया जाए। वैसे भी लद्दाख फिर से जाना हम दोनों के दिमाग में था। 

लेकिन दूसरे ही पल हमने सोचा कि हम वहां रहते हुए शायद काम पर फोकस न कर पाएं। वहीं, पहले कि तरह घूमने के बजाय, इस बार हमने सोचा क्यों न कुछ अलग किया जाए और तभी उन्होंने फैसला किया चलो पैदल चलें।”

यकीन करना शायद थोड़ा मुश्किल है, लेकिन अपने उस फ़ोन कॉल के बाद ही उन्होंने पैदल लद्दाख घूमने का पक्का इरादा भी बना लिया। उन्होंने एक व्हाट्सऐप ग्रुप बनाकर रिसर्च करना शुरू किया कि किस तरीके से और किस रूट से होते हुए वे अपनी यात्रा कर सकते हैं।  

कैसे की तैयारी?

Heavenly Ladakh
Heavenly Ladakh

कुछ समय बाद जब परिधि, पुणे आईं तो उन दोनों ने मिलकर फिज़िकल तैयारी करनी शुरू की। शुरुआत में उन्हें यह काम काफी मुश्किल भी लग रहा था, लेकिन उन्होंने कभी भी नहीं सोचा कि ऐसा करना नामुमकिन है। 

निखिल बताते हैं, “पुणे में हमारा घर 11वीं मंजिल पर था, तो अपनी ट्रेनिंग के लिए हम दिन में एक बार, 11वीं मंजिल तक 11 बार सीढ़ियां चढ़कर जाते थे। इसके साथ-साथ हमने योग और ब्रीदिंग एक्सरसाइज़ पर भी पूरा-पूरा ध्यान दिया। हमारा मकसद अपने फेफड़ों की शक्ति बढ़ाना था।”

हालांकि, ऑफिस का काम करने के बाद यह सब कुछ करना इतना आसान नहीं था। उन्होंने करीबन एक साल बाद अपनी यात्रा जुलाई 2021 में शुरू की। परिधी ने इस यात्रा के पहले ही अपनी नौकरी छोड़ दी थी, ताकि वह पूरी तरह से अपनी इस यात्रा पर फोकस कर सकें। वहीं, निखिल ने कुछ समय के बाद अपनी नौकरी छोड़ दी।

उन्होंने मनाली से अपनी पैदल यात्रा की शुरुआत की थी, जिसके बाद वह करीबन हर दिन 20 से 22 किमी  पैदल चलते थे।  

उन्होंने अपने लिए एक मैप प्लान बनाया था, लेकिन बावजूद इसके परिधि बताती हैं कि उन्होंने कभी अपनी यात्रा को किसी नियम में नहीं बांधा, कभी कोई गांव उन्हें बेहद पसंद आता, तो वे वहां रुक जाते। इसके अलावा वह कहती हैं, “हम लोकल लोगों पर ज्यादा विश्वास करते थे और उनके बताने पर हम उन गांवों और जगहों पर भी घूमने जाया करते थे, जो शायद गूगल या हमारे प्लान में भी नहीं थीं। हम इस यात्रा में जिन लोगों से मिले, असल मायनों में उन्हीं ने हमारी ट्रिप और बेहतरीन बनाई।”

लद्दाख यात्रा के दौरान एक अनोखे गांव में रहने का मिला मौका

Walking couple during Ladakh trip
Walking couple during Ladakh trip

परिधि और निखिल को लोकल लोगों की मदद से ही लद्दाख के एक ऐसे गांव में रहने का मौका मिला, जो ज्यादा विकसित नहीं था। चारों ओर से पहाड़ों से घिरा ‘तार’ गांव, जिसमें सिर्फ नौ घर हैं। वहां रहना और वहां के लोगों से एक सस्टेनेबल तरीके से जीवन जीना सीखना उनके लिए काफी रोमांचक अनुभव था।

वहीं उन्होंने लद्दाख में दिखने वाले दुर्लभ हिम तेंदुए को करीबन 14 घंटों तक देखा। साथ ही अपनी ट्रिप पर वह दलाई लामा से भी मिले।  

वे नवंबर 2021 में सियाचिन तक पहुंच चुके थे। लेकिन उस समय निखिल को अपनी बहन की शादी के लिए कुछ समय के लिए वापस घर आना पड़ा, जिसके बाद वे अप्रैल 2022 में वापस अपनी यात्रा पर लौटे। 

लोगों को यकीन दिलाना मुश्किल था कि वे पैदल चल रहे हैं

लद्दाख ट्रिप पर जाना कई लोगों का सपना होता है। ऐसे में कई टूरिस्ट आपको लद्दाख के ट्रिप पर दिख ही जाएंगे। कोई बाइक से, तो कोई जीप में। लेकिन पहाड़ों वाले इस मुश्किल रास्तों में पैदल चलने वाले इस कपल को देखकर हर कोई आश्चर्य करता था।

परिधि बताती हैं, “कई बार ट्रक ड्राइवर या लोकल कार वाले और आर्मी की गाड़ी हमें रुककर पूछती कि हमें लिफ्ट तो नहीं चाहिए। हम किसी ढाबे पर भी रुकते, तो लोगों को यकीन दिलाना मुश्किल होता कि हम पैदल ही घूम रहे हैं।”

निखिल और परिधि अपने साथ 20 से 25 किलो का सामान लेकर चलते थे, जिसमें उनका निजी सामान, थोड़ा खाना और टेंट आदि होता था। ऐसे में उन्हें तेज़ गर्मी में चलना पड़ता था, जो उनकी इस ट्रिप की सबसे बड़ी चुनौतोयों में से एक थी। 

लद्दाख यात्रा से मिली जीवन को बेहतर तरिके से जीने की सीख 

Walking trough mountains
Walking trough mountains

अपनी इस यात्रा से वे लोकल खाने से लेकर, लोकल पानी तक पर ही पूरी तरह से निर्भर थे। जी हाँ, परिधि कहती हैं कि उन्होंने अपनी इस नौ महीने की यात्रा में कभी भी प्लास्टिक की बोतल नहीं खरीदी। बल्कि वह हमेशा रास्ते में बहते नहरों और झीलों का पानी अपनी बोतल में भरकर पीते थे। इसके लिए वे लोकल लोगों से सलाह लेते थे कि कहाँ का पानी पीने लायक है और कहाँ का पानी नहीं पीया जा सकता। 

इस तरह अपनी यात्रा के दौरान, उन्होंने कई हज़ार प्लास्टिक बोतलें लैंडफिल में जाने से बचाई, जिसे अब वे अपने निजी जीवन में नियमित रूप से फॉलो कर रहे हैं। साथ ही वे जिस भी जगह जाते थे, वहां एक पौधा भी ज़रूर लगाते थे।

उन्होंने कम ज़रूरतों के साथ और ज्यादा से ज्यादा लोकल चीजों पर निर्भर होना सीख लिया है। ऐसा नहीं है कि नौकरी छोड़ने के बाद, अब वे कोई काम नहीं करेंगे।

निखिल बताते हैं, “हम लद्दाख में सैकड़ों लोगों से मिले। उस दौरान, हम एक गांव के स्कूल में गए थे, जहाँ पर हिंदी और अंग्रेजी शिक्षक की ज़रूरत थी। वहीं एक बुज़ुर्ग, जिसके साथ हम अपनी यात्रा के दरमियान रुके थे, उन्होंने हमें अपनी एक किताब को ट्रांसलेट करने के लिए मदद मांगी है। इसलिए आने वाले समय में हम अपने उन सभी वादों पर काम करने के बारे में सोच रहे हैं।”

आशा है आपको इस अनोखी यात्रा से ज़रूर कुछ प्रेरणा मिली होगी। 

संपादनः अर्चना दुबे

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