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20 सालों से डॉक्टर दंपति कर रहे नेक काम, सड़कों पर भटक रहीं 500 कमजोर महिलाओं की बचाई जान

Doctor Couple working for old age women wandering on street

साल 2019 में वरीष्ठ नागरिकों के पुनर्वास और कल्याण के लिए काम करने वाले एक एनजीओ हेल्पएज इंडिया ने बुजुर्गों को घर से निकाल देने और उनकी बदहाली के बारे में एक चौंकाने वाली रिपोर्ट जारी की थी। ‘होम केयर फॉर द एल्डरलीः कॉल टु एक्शन’ नामक इस रिपोर्ट के अनुसार, भारत में वरिष्ठ नागरिकों की दूसरी सबसे बड़ी आबादी है, जिनमें से अधिकांश खराब सेहत, उपेक्षा और दुर्व्यवहार का शिकार हैं और बदहाली में जीवन गुजारने के लिए मजबूर हैं।”

बेंगलुरु के एक अन्य संगठन नाइटिंगेल्स मेडिकल ट्रस्ट (NMT) ने पाया कि शहर के नागरिक निकाय के अनुमानित 25,000 बेघर लोगों में से 7500 बुजुर्ग महिलाएं थीं, जिन्हें उनके बच्चों ने घर से निकाल दिया था। यह केवल संख्या नहीं है, बल्कि सड़कों पर भटकने के लिए छोड़ दी गई जिंदगियां हैं। यह एक ऐसा विचार था, जिसने अहमदाबाद के डॉक्टर दम्पत्ति को झंकझोर कर रख दिया। वे ऐसे बुजुर्गों की मदद करने और अपने स्तर पर कुछ करने के लिए आगे आए। 

डॉक्टर राजेंद्र धमाने और डॉ सुचेता धमाने ने अहमदाबाद के काकासाहेब महस्के होम्योपेथिक मेडिकल कॉलेज से साल 1998 में डिग्री ली थी। इसके बाद उन्होंने अपना क्लीनिक खोला और समाज के लिए कुछ करने का फैसला लिया। उन्होंने तय किया कि वे नियमित तौर पर मरीजों की देखभाल तो करेंगे ही साथ ही फ्री हेल्थ चेकअप कैंप लगाएंगे और गरीब व बेघर लोगों को खाना भी खिलाएंगे।

एक घटना ने बदल दी काम करने की दिशा

डॉ राजेंद्र ने द बेटर इंडिया को बताया, “हम हमेशा से समाज के लिए कुछ करना चाहते थे। साल 2000 में हमने सड़क पर रह रहे बेसहारा लोगों की मदद करने का फैसला किया। सेवा करते हुए उस दौरान हमें कई ऐसे बुजुर्ग मिले, जिनके परिवार ने उन्हें घर से निकाल दिया था। उनमें से ज्यादातर की मानसिक हालत ठीक नहीं थी। वे अपने खाने तक का भी इंतजाम नहीं कर पा रहे थे।”

इस समस्या को उन्होंने काफी गंभीरता से लिया। दोनों ने मिलकर उसी साल मौली सेवा प्रतिष्ठान की शुरुआत की। उनके एनजीओ का लक्ष्य एक दिन में लगभग 90 बेघर लोगों को खाना खिलाना था। लेकिन 2007 में एक घटना ने उनके काम करने की दिशा को बदल दिया। 

40 साल के राजेंद्र कहते हैं, “मैं क्लीनिक जा रहा था। रास्ते में एक बेसहारा महिला को कूड़ेदान से निकाल कर बचा-कुचा खाना और गंदगी खाते हुए देखा। उसकी इस हालत से मुझे बहुत दुख हुआ। मैंने अपना टिफिन उसकी ओर बढ़ा दिया। उस पल में सब कुछ बदल गया था।” घर आकर राजेंद्र ने इस बारे में अपनी पत्नी से बात की और काफी सोचने-विचारने के बाद उन्हें लगा कि जरूरतमंदों को सिर्फ खाना खिलाना ही काफी नहीं है। अब इससे आगे भी जाना होगा। वे बेसहारा लोगों को एक सुरक्षित स्थान देने के बारे में सोच रहे थे।

Dr Sucheta with recovered women at the kitchen

बेघर बुजुर्ग महिलाओं के हालात बेहद दर्दनाक

बेघर बुजुर्गों की समस्या जैसी दिखाई देती है, उससे कहीं ज्यादा बद्तर है। डॉ सुचिता ने बताया, “मानसिक रूप से बीमार जिन महिलाओं को घर से निकाल दिया जाता है। उन्हें मदद की ज्यादा जरूरत होती है। बेघर लोगों को खाना खिलाते समय, अक्सर कई महिलाओं ने अपनी सुरक्षा और बलात्कार की बातें मुझसे साझा की थीं, जिसकी कोई रिपोर्ट दर्ज नहीं की जाती।”

वे आगे कहती हैं, “जिन महिलाओं की दीमागी हालत ठीक नहीं है, वे ज्यादा असुरक्षित हैं। अगर वह अपने साथ हुए बलात्कार के बारे में किसी को बताती हैं या फिर पुलिस में इसकी रिपोर्ट करना भी चाहें, तो उन पर कोई विश्वास नहीं करता। ऐसे लोगों से बचने के लिए वह अक्सर रात में सड़क के डिवाइडर या गली के किनारों पर सोती हैं।”

एनजीओ में कई महिलाओं ने बलात्कार की बात कही

ऐसी ही एक बुजुर्ग पीड़ित महिला ने बताया, “कुछ साल पहले दो लोगों ने मेरे साथ बलात्कार किया था। जब मैंने उनसे पुलिस में रिपोर्ट करने की बात कही, तो उन्होंने मुझे जान से मारने की धमकी दी। मेरे परिवार में कोई भी जिंदा नहीं बचा है। मेरा बेटा भी मर गया, मुझे इस केंद्र में अपना नया घर मिला है।”

कई मामलों में तो आर्थिक स्थिति ठीक होने के बावजूद, परिवार वाले मानसिक रूप से बीमार महिला या रिश्तेदारों को घर से निकाल, सड़क पर मरने के लिए छोड़ देते हैं। डॉ सुचेता कहती हैं, “मानसिक बीमारी का इलाज भी अन्य बीमारियों की तरह किया जाना चाहिए। समय पर इलाज मिल जाए, तो हालात ज्यादा नहीं बिगड़ते। हमारा उद्देश्य सड़क पर बेसहारा महिलाओं की मदद करना और ऐसी किसी भी संभावित घटनाओं को होने से रोकना है।”

उन्होंने बताया, “एक महिला होने के नाते, ऐसी किसी समस्या को देखकर, मैं भला अनदेखा कैसे कर सकती थी? महिलाओं को ऐसे गलत लोगों से बचाने और बेहतर इलाज के लिए एक ‘जगह’ की जरूरत थी। मानसिक स्वास्थ्य संवेदनशील विषय है और आमतौर पर समाज इसपर ध्यान नहीं देता। हम ऐसी महिलाओं की सभी जरूरतों को पूरा कर, उनके सारे दुखों को दूर करना चाहते हैं।”

पिता की मदद से बनाया आवासीय केंद्र

डॉ दंपत्ति ने इस दिशा में काम करने का फैसला कर लिया था। राजेंद्र अपने पिता बाजीराव के पास मदद के लिए गए। उनके पिता एक रिटायर्ड शिक्षक हैं, जिनके पास शहर के बाहरी इलाके में 673 गज की जमीन थी और फिर आपसी सहमति से जमीन पर 18 साल से ऊपर की महिलाओं के रहने के लिए एक सुरक्षित जगह या यूं कहें आवासीय केंद्र बना दिया गया। 

डॉक्टर राजेंद्र के अनुसार, वे सभी जरूरतमंद महिलाओं के रहने, खाने और पहनने की व्यवस्था करते हैं। जिनकी मानसिक हालत ठीक नहीं है या फिर कोई अन्य शारीरिक बीमारी है, उनका इलाज किया जाता है। उनमें से बहुत सी महिलाएं तो जीवन भर इसी केंद्र में रह जाती हैं। परिवार वाले इलाज के बाद भी उन्हें स्वीकार नहीं करते।

अपनी दिनचर्या के बारे में बताते हुए वह कहते हैं, “सुबह 6 बजे सभी लोग नाश्ता करने के लिए उठ जाते हैं। वॉलेंटियर्स उनकी मदद करते हैं, जिन मरीजों को ज्यादा या फिर विशेष देखभाल की जरूरत होती है उन्हें अलग से देखा जाता है। रोजाना के कामों में हर कदम पर उनकी सहायता की जाती है।”

घर से दूर एक घर

इस संस्था को चलाने के लिए उन्हें कई संगठनों से आर्थिक सहायता मिलती है। उन्होंने बताया, “सरकार की तरफ से कोई सहायता नहीं मिली है और न ही उसके लिए उन्होंने कभी कोशिश की।” अब तक ये दोनों लगभग 500 से ज्यादा महिलाओं की मदद कर चुके हैं। लगभग 350 महिलाएं केंद्र में बेहतर तरीके से जीवन गुजार रही हैं। कुछ की बुढ़ापे या फिर बीमारी के कारण मौत भी हो गई है।

डॉ राजेंद्र कहते हैं, “बलात्कार से पीड़ित कुछ महिलाएं बच्चों को भी जन्म देती हैं। आज हम ऐसे 29 बच्चों का पालन पोषण कर रहे हैं। वे एक खुशहाल और सुरक्षित वातावरण में पल बढ़ रहे हैं।” किसी समय गंभीर मानसिक बीमारी से जूझ रहीं मोनिका साल्वे साल 2013 में केंद्र में आई थीं।

Children of destitute playing in the premises

वह बताती हैं, “मैं मानसिक और भावनात्मक रुप से टूट चुकी थी। निजी अस्पताल और डॉक्टरों से इलाज भी कराने की कोशिश की। मगर सब बेकार रहा। आखिरकार मेरे परिवारवालों ने मुझे अकेला छोड़ दिया। इससे मेरी दीमागी हालत और ज्यादा खराब हो गई। लेकिन मैं भाग्यशाली रही कि मुझे समय पर मौली सेवा प्रतिष्ठान के बारे में पता चल गया।”

सिर्फ अच्छे इरादे काफी नहीं

मोनिका का एक साल तक लंबा इलाज चला और आज वह डिप्रेशन से बाहर आ चुकी हैं। मोनिका कहती हैं, “अब मैं संस्था से जुड़े रोजाना के कामों में हाथ बंटाने लगी हूं। दरअसल, मैं अब इसका एक हिस्सा बन चुकी हूं। कुछ महिलाएं अपने बच्चों को नहीं संभाल पाती हैं। वह मानसिक या भावनात्मक स्तर पर स्थिर नहीं है। मैं उनके बच्चों की भी देखभाल करती हूं। मैं उन्हें जीवन में आत्मनिर्भर बनता हुआ देखना चाहती हूं।”

सामाजिक क्षेत्र में काम करते समय, सिर्फ अच्छे इरादे काफी नहीं होते। डॉ राजेंद्र बताते हैं कि समाज और सरकारी एजेंसियों का विश्वास पाने में उन्हें कई साल लग गए। राजेन्द्र याद करते हैं, “हम पहले दिन से ही महाराष्ट्र के मानसिक स्वास्थ्य प्राधिकरण के साथ अधिकृत और रजिस्टर्ड थे। लेकिन जब हमने अनुमति लेने के लिए उनसे संपर्क किया, तो अधिकारियों ने न केवल हमारे इरादों पर सवाल उठाया बल्कि हम पर संदेह भी किया।”

कई बार तो अंतिम संस्कार करना और महिलाओं की मेडिकल औपचारिकताएं पूरी करना भी चुनौती बन जाती है। वह कहते हैं, “अधिकारियों को यकीन दिलाने और अपने काम के बारे में समझाने में कई साल लगाए हैं। हालांकि हमें अपने परिवार का पूरा साथ मिला है, लेकिन आसपास के लोगों ने हमारा मजाक भी उड़ाया और हमारी सफलता पर संदेह भी किया।”

संस्था को आर्थिक रूप से मजबूत बनाने की एक कोशिश

कई बार ऐसी महिलाएं केंद्र पर आती हैं, जिन्हें तत्काल इलाज की जरूरत होती है। तब इलाज के खर्चे के लिए उन्हें काफी संघर्ष करना पड़ता है। आर्थिक मदद के लिए हमेशा नई संस्थाओं की तलाश रहती है। इस समस्या के स्थायी समाधान के लिए यह दम्पत्ति अब अपनी इस संस्था को आर्थिक रुप से मजबूत बनाने के मॉडल पर काम कर रहा है। उन्होंने

बताया, “‘हमने केंद्र में एक डेयरी फार्म और एक बेकरी यूनिट लगाई है। इससे लोगों को रोजगार भी मिलेगा और कुछ पैसा भी हाथ में आएगा। इससे हम सभी महिलाओं के लिए समय पर दवाओं का इंतजाम भी कर सकेंगे और उनकी ठीक ढंग से देखभाल भी की जा सकेगी।” जमीनी स्तर पर काम करते हुए, हर किसी को उस काम से होने वाले प्रभाव का आकलन करते रहना चाहिए। कभी-कभी आपके द्वारा किया गया एक प्रयास समुद्र में एक बूंद की तरह दिखता है। पर वास्तव में वह परिवर्तन की लहर होती है।

डॉक्टर सुचेता कहती हैं, “कई बार मुझे लगता है कि हम सिर्फ 500 महिलाओं की ही मदद कर पा रहे हैं। हमें एक से दो हजार महिलाओं के रहने की व्यवस्था करनी चाहिए थी. लेकिन वहीं दूसरी तरफ फिर सोचती हूं कि इस मुद्दे को जड़ से निपटाया जाना चाहिए ताकि हमारे जैसे संस्थानों की जरूरत ही न पड़ें। मानसिक रूप से पीड़ित महिलाओं को घर से निकालकर सड़कों पर छोड़ देना, परिवार वालों को बंद करना होगा।”

मूल लेखः हिमांशु नित्नावरे 

संपादनः अर्चना दुबे

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