भारतीय वैज्ञानिकों ने यूँ तो हज़ारों आविष्कार किये हैं। लेकिन, आज हम आपको एक ऐसे भारतीय वैज्ञानिक (Indian Scientist) के बारे में बताने जा रहे हैं, जिन्होंने अपने विभिन्न आविष्कारों से दुनियाभर के वैज्ञानिकों को चौंका दिया। हम बात कर रहे हैं, हावड़ा के रहने वाले आविष्कारक डॉ. रामेन्द्र लाल मुख़र्जी की।
डॉ. रामेंद्र चार साल के थे, जब वह गर्मी की छुट्टियों में अपने दादा के घर गए थे। एक दोपहर जब वह सो रहे थे, तब कमरे के सारे दरवाज़े बंद थे। खिड़कियों के पर्दे भी लगे हुए थे और पूरे कमरे में अंधेरा छाया हुआ था। केवल दरवाज़े में छोटी सी दरार थी, जहां से एक लकीर जैसी सूरज की रोशनी आ रही थी। रामेंद्र ने दरवाजे के ठीक सामने की दीवार तक, रोशनी की उस लकीर का पीछा किया। कमरे की वह दीवार, मानों एक सिनेमा स्क्रीन में तब्दील हो गई थी, जिससे कमरे के बाहर की हलचल देखी जा सकती थी। रामेंद्र का परिवार सोया हुआ था, लेकिन उन्हें रोशनी की उस लकीर से कमरे के बाहर का सबकुछ (गाड़ी, गाय, लोग और पेड़ ) दिखाई दे रहा था। कमरा एक पिन-होल कैमरा बन गया था।
तब रामेंद्र दोपहर का आराम भी भूल चुके थे। वह अब इस सोच में डूब गए थे कि जो उन्होंने देखा है, क्या उसे दोहराया जा सकता है। उन्होंने अपनी दादी की सफेद रंग की खांसी की दवाई का डिब्बा उठाया और अपनी माँ से एक सेफ्टी पिन लिया। फिर उन्होंने उस डिब्बे के एक तरफ, एक छोटा सा छेद किया ताकि रोशनी अंदर जा सके और ऊपर एक बड़ा छेद बनाया ताकि वह अंदर देख सकें। अब वह इस छोटे से कैमरे के अंदर से पेड़, लोग, गाड़ी और गाय आदि देख सकते थे।
59 वर्षीय रामेंद्र लाल मुखर्जी याद करते हुए बताते हैं, “सालों बाद, जब मैं आठवीं या नौवीं कक्षा में था, तब मैंने पहली बार पिन-होल कैमरा के बारे में पढ़ा। और तब मुझे अहसास हुआ कि मैंने क्या बनाया था।”
डॉ. मुखर्जी अपनी पत्नी और बेटे के साथ हावड़ा में रहते हैं और “सीरियल आविष्कारक” के नाम से जाने जाते हैं। उनके नाम पर, अब तक 30 से अधिक अंतरराष्ट्रीय पेटेंट किए गए आविष्कार हैं। इनमें ‘लाई डिटेक्टर’, ‘स्टोन एनालाइज़र’, ‘इलेक्ट्रॉनिक ईएनटी स्कोप’, ‘ट्रांसमिशन इलेक्ट्रॉनिक माइक्रोस्कोप’ और कान निरीक्षण के लिए ‘पोर्टेबल ऑटो स्कोप’ शामिल हैं।
उनका सबसे शानदार आविष्कार, शायद ‘माइक्रो माइक्रोस्कोप’ है, जिसे उन्होंने 1998 में बनाया था। इसके लिए, उन्हें 2002 में भारत सरकार द्वारा प्रौद्योगिकी दिवस पर ‘राष्ट्रीय पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया था। इस आविष्कार को स्विट्जरलैंड के जेनेवा में ‘वर्ल्ड इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी ऑर्गेनाईजेशन’ द्वारा भी स्वीकार और मान्यता दी गई है।

एक अलग नजरिया
इस ‘माइक्रो माइक्रोस्कोप’ की कहानी वर्ष 1975 की है। द बेटर इंडिया के साथ बात करते हुए डॉ. मुखर्जी बताते हैं, “जब मैं नौवीं कक्षा में था, तब मेरे भाई ने मुझे दो लेंस गिफ्ट किए। मैं एक दिन एक अखबार पढ़ रहा था और लेंस के साथ खेल रहा था और फिर मैंने देखा कि उस लेंस में देखने पर एक विशेष स्थिति में, अक्षर बड़े लग रहे थे। “
इस माइक्रोस्कोप का पहला संस्करण, क्यूटी टैल्कम पाउडर का 400 ग्राम का डिब्बा, दो लेंस, एक लकड़ी के ब्लॉक और एक स्विचबोर्ड और घर से ली गई कुछ अन्य चीजों का इस्तेमाल करके बनाया गया था। इस ‘माइक्रोस्कोप’ से डॉ. मुखर्जी ने एक मच्छर को देखा और पाया कि मच्छर की रक्त कोशिकाऐं, कितनी स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही थीं। इस नए आविष्कार के साथ, उन्होंने अपने जीव विज्ञान के शिक्षक से संपर्क किया, जो ये देखने के लिए काफी उत्सुक थे। आविष्कार देखने के लिए, छात्रों और प्रोफेसरों का एक समूह उनके घर पहुंचा। डॉ. मुखर्जी को बताया गया कि उन्होंने एक कंपाउंड माइक्रोस्कोप बनाया है। डॉ. मुखर्जी कहते हैं, “इससे पहले मैंने कभी माइक्रोस्कोप नहीं देखा था। मैंने एक बंगाली मीडियम स्कूल में पढ़ाई की और वहां ऐसी मशीने नहीं थी। ”
डॉ. मुखर्जी कहते हैं, “मेरे शोध और कार्य उसी दिन से शुरू हो गए।” बाद में इंजीनियरिंग के छात्र के रूप में और उसके बाद की नौकरियों में, उन्होंने माइक्रोस्कोप पर संशोधन और निर्माण पर काम किया। वह कहते हैं, “मैं एक माइक्रोस्कोप का निर्माण करना चाहता था ,जो एक कंपाउंड के समान (जो कि 100% तक बढ़ जाता है) स्तर तक बढ़ सके।”
‘वैज्ञानिकों को मेरे आविष्कार पर विश्वास नहीं था‘
1985 में, डॉ. मुखर्जी ने एचसीएल में काम करना शुरू किया। इस दौरन, वह सीनियर पद पर पहुंच गए थे। लेकिन उन्हें अपने शोध के लिए, समय की कमी हमेशा महसूस होती थी। वह कहते हैं “मुझे अपने शोध और माइक्रोस्कोप के निर्माण के लिए बहुत समय नहीं मिल पा रहा था। मैं रात 11 बजे के आसपास घर लौटता और अगले दिन, सुबह 7 बजे फिर ऑफिस शुरू हो जाता। मैंने 1997 में अपनी नौकरी छोड़ने का फैसला किया ताकि मैं अपना सारा समय, इस माइक्रोस्कोप को समर्पित कर सकूं।” इस समय तक, माइक्रो माइक्रोस्कोप पर डॉ. मुखर्जी का लगभग 90% काम पूरा हो गया था। और उन्होंने 1998 तक अपना प्रोजेक्ट पूरा कर लिया था।
यह आविष्कार, उसी वर्ष सभी के लिए उपलब्ध हो गया, जिसके लिए डॉ. मुखर्जी को उनका पेटेंट मिला और कई भारतीय अखबारों से उन्हें पहचान मिली। भारत और विदेशों में लगभग 50 हजार माइक्रो माइक्रोस्कोप बेचे गए हैं। यह पॉकेट-आकार का है, जो फील्ड स्टडी के लिए उपयुक्त है और जिसका उपयोग दूसरी कक्षा के बाद से, किसी भी छात्र द्वारा किया जा सकता है। यह रोज़ाना एक घंटे के उपयोग के साथ एक वर्ष तक काम कर सकता है। डॉ. मुखर्जी अपने आविष्कारों को प्रदर्शित करने के लिए, कई गैर सरकारी संगठनों और कई टीचर ट्रेनिंग वर्कशॉप में भी काम करते हैं। वह कहते हैं, “एक आविष्कार और पेटेंट के लिए आवेदन करने की प्रक्रिया बहुत महंगी है। इस आविष्कार से होने वाली सारी कमाई का इस्तेमाल, मैं अपने अन्य आविष्कार के लिए करता हूं।”
इसके साथ ही, डॉ. मुखर्जी अन्य उपकरणों पर भी काम कर रहे थे। इनमें से एक पोर्टेबल ईसीजी मशीन थी। चंडीगढ़ में अपनी पोस्टिंग के दौरान, उनको अपने ऑफिस के समय के बाद अपने शोध पर काम करने के लिए, जनरल मैनेजर ने काफी प्रोत्साहित किया। डॉ. मुखर्जी कहते हैं, “उस समय, ये मशीनें एक फ्रिज से भी बड़ी थीं। मेरा आइडिया इसे छोटे स्तर पर दोहराने का था।”
अभी हाल ही में, कोरोना महामारी के दौरान भी, उन्होंने कुछ निर्माण किया है। वह कहते हैं कि उन्होंने एक स्मार्टफोन के आकार का ‘यूवी स्टेरेलाइज़र’ डिज़ाइन किया है, जो किसी भी चीज को एक सेकंड के भीतर साफ कर सकता है। इस यंत्र का एक बड़ा संस्करण, बिरला तारामंडल और सिनेमा हॉलों द्वारा स्वच्छता के लिए उपयोग किया जा रहा है।
2010 में, डॉ. मुखर्जी ने एक माइक्रोस्कोप बनाया था। उन्होंने यह दावा किया था कि यह सभी माइक्रोस्कोप के कार्य कर सकता है। इसका मतलब था कि यह उपकरण ‘ट्रांसमिशन माइक्रोस्कोप’, ‘स्कैनिंग माइक्रोस्कोप’, ‘पोलराइजर माइक्रोस्कोप’, ‘मेटलर्जी माइक्रोस्कोप’, आदि के रूप में कार्य कर सकता है। उन्होंने उस साल डिवाइस के लिए, एक पेटेंट के लिए आवेदन किया और उसके प्रोटोटाइप को नष्ट कर दिया था। क्योंकि, अन्य आविष्कारों के लिए उन्हें कुछ कल-पुर्जों की जरूरत थी, जिन पर वह काम कर रहे थे। लेकिन उनका पेटेंट ठप हो गया। वह कहते हैं “मैंने अपने शोधपत्र कई देशों में भेजे थे और वैज्ञानिकों को विश्वास नहीं था कि यह माइक्रोस्कोप, वास्तव में वह कर सकता है, जो मैं दावा कर रहा था।”
2020 में, इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी ऑफिस ( जिसका मुख्यालय कोलकाता में है ) के कंट्रोलर ने डॉ. मुखर्जी को पत्र लिखकर सात दिनों के भीतर, इस उपकरण को प्रदर्शित करने के लिए कहा। वह कहते हैं, “मैं फंस गया था, क्योंकि मैंने बहुत पहले ही इसका प्रोटोटाइप नष्ट कर दिया था। इसके अलावा, मुझे यह सुनिश्चित करना था कि मैं जो प्रोटोटाइप भेजूं, वह वैसा ही होगा जैसा मैंने पेटेंट में बताया था। आकार से लेकर, सब कुछ समान होना चाहिए। ”
“यह मेरा हिस्सा है”
एक सीरियल आविष्कारक के रूप में, अपनी प्रतिष्ठा खतरे में देखने पर उन्होंने सात दिनों तक, दिन-रात काम किया। सात दिनों के भीतर उनका प्रोटोटाइप तैयार था। अपने मॉडल के साथ वह पेटेंट कार्यालय तक गए और माइक्रोस्कोप के कार्यों का प्रदर्शन किया। दो दिनों के भीतर, उनके हाथ में उनका पेटेंट प्रमाण पत्र था।
नवंबर 2019 में, उन्हें भारत सरकार के ‘पर्यावरण विज्ञान विभाग’ से एक कॉल आया, जिसमें उनसे माइक्रोस्कोप बनाने का अनुरोध किया गया था। जो अंटार्कटिका में एक अभियान के लिए, पानी में ‘माइक्रोप्लास्टिक’ का पता लगा सकें। लेकिन, यहां मुश्किल ये थी कि यह तीन सप्ताह में तैयार होना था। वह कहते हैं, “ज़ाहिर है, यह असंभव लग रहा था लेकिन, मैंने इसे दो सप्ताह के भीतर बना दिया।”
डॉ. मुखर्जी कहते हैं, “लेकिन इस काम के आसपास की चुनौतियां मुझे आगे बढ़ाती रहती हैं। मैं असंभव को संभव बनाने के लिए कड़ी मेहनत करता हूं, चाहे वह कितना भी चुनौतीपूर्ण क्यों न हो। मैं हमेशा अपने आविष्कारों पर काम करता रहता हूं। जब मैं सोता हूं तब भी नए आविष्कारों के ही सपने देखता हूं। मैं ऑफिस के समय से पहले और बाद में, अपना शोध कार्य करता हूं। मैं हमेशा सोचता हूँ कि आगे क्या करना है।”
डॉ. मुखर्जी उस समय को याद करते हैं, जब उन्होंने एचसीएल में अपनी नौकरी छोड़ दी थी। उनका बेटा, उस समय केवल डेढ़ साल का था। वह कहते हैं, “बचपन से ही इन आविष्कारों पर काम करना मेरे जीवन का एक बड़ा हिस्सा रहा है। इसे जारी रखना, मेरी पत्नी, वैशाली के समर्थन के बिना संभव नहीं हो पाता। इसमें मेरे परिवार ने भी मुझे पूरा सहयोग दिया है।” 2019 में, डॉ. मुखर्जी को उनके क्षेत्र में, उनके कार्यों के लिए ‘पर्सनैलिटी ऑफ द ईयर’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वह ‘ऑल-इन-वन माइक्रोस्कोप’ को अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि मानते है, जिसे पहचान दिलाने के लिए उन्होंने एक दशक तक लड़ाई लड़ी।
मूल लेख – दिव्या सेतू
संपादन- जी एन झा
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