एंटीबायोटिक दवाओं की खोज से सालों पहले इस भारतीय डॉक्टर ने ढूंढ निकाला था इस बिमारी का इलाज!

काला-आज़ार के इलाज पर डॉ. ब्रह्मचारी का शोध " ट्रॉपिकल चिकित्सा विज्ञान में सबसे उत्कृष्ट योगदान रहा जिसके कारण केवल असम प्रांत में तीन लाख जीवन को बचाया जा सका!

एंटीबायोटिक दवाओं की खोज से सालों पहले इस भारतीय डॉक्टर ने ढूंढ निकाला था इस बिमारी का इलाज!

किसी भी बीमारी का इलाज खोजना एक बड़ी उपलब्धि होती है। कई भारतीयों ने चिकित्सा विज्ञान में महत्वपूर्ण खोज की है लेकिन क्या आप एक ऐसे भारतीय डॉक्टर के बारे में जानते हैं जिनकी ऐसी ही एक उपलब्धि ने सन् 1929 में उन्हें नोबल पुरस्कार के करीब लाकर खड़ा कर दिया था?

हम बात कर रहे हैं डॉ. उपेन्द्रनाथ ब्रह्मचारी की, जिन्होंने यूरिया स्टिबेमाइन नामक एक ऐसी दवा की खोज की जिसका प्रयोग काला-आज़ार जैसी जानलेवा बीमारी के इलाज के लिए होता है। काला-आज़ार एक ऐसी बीमारी है जो हमारे आंतरिक अंगों जैसे जिगर, अस्थिमज्जा (बोन मैरो) और तिल्ली को प्रभावित करता है।

publive-image

काला-आज़ार रेत की मक्खियों द्वारा फैलता है और सन् 1870 में असम इस बीमारी से प्रभावित होने वाला पहला राज्य था। इससे नागाओ, गोलपारा, गारो हिल और कामरूप जैसे इलाकों में कई लोगों की मृत्यु हो गई और धीरे धीरे ये पश्चिम बंगाल और बिहार में फैलने लगा।

पूरे विश्व के चिकित्सक इसका इलाज खोजने में लग गए पर अधिकतर को इसमें असफलता हासिल हुई। अंत में डॉ. ब्रह्मचारी ही थे जिन्होंने इस नामुमकिन को मुमकिन कर दिखाया और इनकी खोज के कारण इस बीमारी के कारण होने वाली मृत्यु दर सन् 1925 में  95% से घट 10% हो गई। यह दर सन् 1936 में 7% तक घट गई।

शैक्षणिक जीवन 

डॉ. ब्रह्मचारी का जन्म बिहार के जमालपुर में 19 दिसम्बर 1873 को हुआ था। उनके पिता निलमोनी ब्रह्मचारी पूर्व भारतीय रेलवे में चिकित्सक थे और माँ सौरभ सुंदरी देवी एक गृहिणी थी। उन्होंने अपनी पढ़ाई ईस्टर्न रेलवे बॉयज़ हाई स्कूल जमालपुर से की।

उन्होंने 1893 में हुगली के मोहसिन कॉलेज से गणित व रसायन विज्ञान में स्नातक की पढ़ाई पूरी की। इसके बाद वे 1894 में रसायन विज्ञान में स्नातकोत्तर की पढ़ाई करने प्रेसीडेंसी कॉलेज चले गए।

publive-image

इसके बाद उन्होंने अपना पाठ्यक्रम फिर से बदल लिया और डॉक्टर ऑफ मेडिसिन की डिग्री प्राप्त करने के लिए कलकत्ता विश्वविद्यालय में दाखिला ले लिया। उन्होनें 1902 में यह डिग्री प्राप्त की और उसके बाद 1904 में ‘हेमोल्य्सिस’ पर थेसिस लिख कर पीएचडी की डिग्री हासिल कर ली।

चिकित्सा के क्षेत्र में कार्य 

साल 1899 में उन्होंने प्रोविंशियल मेडिकल सर्विस में पथोलोजी एंड माटेरिया मेडिका के प्रोफेसर का पद संभाला। 1901 में उन्होंने ढाका मेडिकल स्कूल में फिजिशियन के रूप में काम किया, 1905 में फिर वे कोलकाता चले गए जहां कंपबेल मेडिकल स्कूल में टीचर व फिजिशियन के रूप में काम किया। इसी जगह उन्होंने काला-आज़ार का इलाज खोजने की प्रक्रिया शुरू की थी।

1919 के अंत तक, इंडियन रिसर्च फ़ंड असोसियेशन ने डॉ. ब्रह्मचारी को इस बीमारी के इलाज पर अनुसंधान जारी रखने के लिए करने के लिए अनुमति दी।

कैंपबेल हॉस्पिटल के छोटे कमरे व सीमित साधनों के बीच उन्होंने अपना अनुसंधान जारी रखा और 1922 में कामयाब हुए। यहाँ उन्होंने काला-आज़ार से लड़ने की क्षमता रखने वाले तत्व यूरिया सॉल्ट ऑफ पारा अमीनो फिनायल स्टीबनिक एसिड की खोज की जिसका नाम उन्होंने यूरिया स्टिबेमाइन रखा।

publive-image
Distribution of Kala-azar in British India (From ‘A Treatise on Kala-azar’, by Upendranath Brahmachari)

उपलब्धियों के बारे में बात करते हुए असम के तत्कालीन राज्यपाल सर जॉन केर ने टिप्पणी  की:

“असम में  काला-आज़ार के विरुद्ध अभियान की प्रगति काफी तेज़ी से हुई। काला-आज़ार के इलाज पर डॉ. ब्रह्मचारी का शोध " ट्रॉपिकल चिकित्सा विज्ञान में सबसे उत्कृष्ट योगदान रहा जिसके कारण केवल असम प्रांत में तीन लाख जीवन को बचाया जा सका।"  

एंटीबायोटिक दवाओं की खोज के सालों पहले डॉ. ब्रह्मचारी की यह उपलब्धि साइंस व मेडिकल ट्रीटमेंट के क्षेत्र में एक मील का पत्थर साबित हुई।

मेडिसिन के क्षेत्र में इनका योगदान यहीं खत्म नहीं होता है। काला-आज़ार से उबरे हुए रोगियों में होने वाली त्वचा संक्रमण को पहचानने वाले यह पहले व्यक्ति थे और इसलिए इस रोग का नाम ब्रह्मचारी लेशमनोइड उनके नाम पर रखा गया।

इन्हें मलेरिया, बर्दवान बुखार, क्वार्टन मलेरिया, कालापानी बुखार, सेरेब्रोस्पाइनल मेनिंनजाइटिस, कुष्टरोग, हाथीपाँव और उपदंश जैसी बीमारियों के इलाज के क्षेत्र में किए गए कार्यों के लिए भी याद किया जाता है।

अन्य उपलब्धियां 

publive-image
Honoured as Rai Bahadur, 1915 and Knighted ,1937

इस खोज के बाद, वह 1923 में एडिशनल फिज़ीशियन के रूप में मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल के साथ जुड़ गए और कोलकाता में ‘ब्रह्मचारी रिसर्च इंस्टीट्यूट की खोज की।

1927 में सरकारी नौकरी से सेवानृवित होने के बाद, उन्होंने कारमाइकल मेडिकल कॉलेज में प्रोफेसर ऑफ ट्रॉपिकल डीजीज़ के रूप में काम किया। वे नेशनल मेडिकल इंस्टीट्यूट में ट्रॉपिकल डीजीज़ वर्ड के इंचार्ज थे, साथ ही कोलकाता के यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ साइंस में बायोकैमिस्ट्री डिपार्टमेंट के एचओडी व बायोकैमिस्ट्री के माननीय प्रोफेसर भी थे।

डॉ. ब्रह्मचारी एक समर्पित सामाजिक कार्यकर्ता भी थे। विश्व का दूसरा ब्लड बैंक कोलकाता में स्थापित करने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बंगाल के रेड क्रॉस के चेयरमैन बनने वाले वे पहले भारतीय थे।

पुरस्कार व प्रशंसा 

फीजियोलोजी एंड मेडिसिन की श्रेणी में नोबल पुरस्कार के लिए नामांकित होने के अलावा उन्हें कलकत्ता स्कूल ऑफ ट्रॉपिकल मेडिसिन एंड हाइजीन द्वारा 1921 में ‘मिंटो मेडल’ प्रदान किया गया।

1934 में ब्रिटिश सरकार द्वारा उन्हे ‘नाइटहूड़’ घोषित किया गया। बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी नें उन्हे ‘सर विलियम्स जोंस मेडल’ से सम्मानित किया और साथ ही यूनिवर्सिटी ऑफ कलकत्ता द्वारा उन्हें ‘ग्रीफ़्फ़िथ मेमोरियल प्राइज़’ दिया गया।

6 फरवरी 1946 को 72 वर्ष की आयु में इस महान वैज्ञानिक का निधन हो गया। मेडिसिन के क्षेत्र में इनके योगदानों को भले ही उतनी पहचान न मिल पाई हो पर फिर भी उन्हें एक ऐसे वैज्ञानिक के रूप में याद किया जाएगा जिनके कारण करोड़ों लोगों की जान बची ।

संपादन - अर्चना गुप्ता
मूल लेख - अंगारिका गोगोई 


यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है, या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ साझा करना चाहते हो, तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखें, या Facebook और Twitter पर संपर्क करें। आप हमें किसी भी प्रेरणात्मक ख़बर का वीडियो 7337854222 पर व्हाट्सएप कर सकते हैं।

Related Articles
Here are a few more articles:
Read the Next Article
Subscribe