विजय सिंह ‘पथिक’: वह क्रांतिकारी पत्रकार, जिनके किसान आंदोलन के आगे झुक गये थे अंग्रेज़!

'राजस्थान केसरी' तथा 'राष्ट्रीय पथिक' जैसी उपाधियों से अलंकृत पथिक को आज भी आधुनिक राजस्थान के पुनर्जागरण के नायक के रूप में याद किया जाता है।

“यश वैभव सुख की चाह नहीं, परवाह नहीं जीवन न रहे; यदि इच्छा है तो यह है- जग में स्वेच्छाचार दमन न रहे।”

– विजय सिंह ‘पथिक’

देश की आज़ादी के संघर्ष को जन-जन तक पहुँचाकर इसे जन-आंदोलन में बदलने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं ने निभाई। इन सभी क्रांतिकारी समाचार-पत्रों के सम्पादक और प्रकाशक भारतीय स्वतंत्रता के वह वीर सेनानी थे, जिन्होंने हर सम्भव प्रयास कर संघर्ष की मशाल को जलाए रखा।

भारतीय पत्रकारिता की इस क्रांतिकारी पत्रकारिता की कड़ी के एक महत्वपूर्ण पत्रकार और स्वतंत्रता सेनानी थे, विजय सिंह ‘पथिक’!

भारत माँ के इस सपूत ने भी बहुत ही कम उम्र से खुद को स्वतंत्रता संग्राम के लिए समर्पित कर दिया था।

बुलंदशहर (यूपी) में उनके जन्म स्थान पर लगी उनकी प्रतिमा

27 फरवरी 1882 को उत्तर-प्रदेश के बुलंदशहर जिले में गुठावली कला नामक गाँव में जन्मे विजय सिंह का वास्तविक नाम भूप सिंह राठी था। उनके पिता का नाम चौधरी हमीर सिंह राठी और माता का नाम श्रीमती कमल देवी था। बचपन से ही पथिक पर अपने दादा दीवान इंद्र सिंह राठी की देशभक्ति का काफ़ी प्रभाव था, जिन्होंने साल 1857 के स्वाधीनता संग्राम में शहादत प्राप्त की थी।

यह भी पढ़ें: ‘केसरी’ : लोकमान्य तिलक का वह हथियार, जिसने अंग्रेज़ों की नींद उड़ा दी थी!

पथिक की प्रारंभिक शिक्षा पालगढ़ के प्राइमरी स्कूल में हुई। प्रारंभिक शिक्षा के बाद, वे अपनी बड़ी बहन के पास इंदौर चले गए। इसके बाद उन्होंने ज़्यादा पढ़ाई तो नहीं की, पर हिंदी, अंग्रेज़ी, बांग्ला, राजस्थानी, मराठी, उर्दू आदि भाषाओँ पर उनकी अच्छी पकड़ थी।

इंदौर में रहते हुए ही उनका संपर्क प्रसिद्ध क्रांतिकारी शचीन्द्र सान्याल से हुआ। सान्याल को उनकी क्रांतिकारी सोच को पहचानने में देर नहीं लगी और जल्द ही वे शचीन्द्र सान्याल के क्रांतिकारी संगठन में शामिल हो गए।

सान्याल ने ही उनका परिचय रासबिहारी बोस से कराया था, जिनकी गढ़ी गयी ‘अभिनव भारत समिति‘ उन दिनों देश में सशस्त्र क्रांति की योजना में थी। बोस की इस योजना में विजय सिंह ने पूरा साथ दिया पर इस अभियान का भेद अंग्रेज़ों के सामने खुल गया और सभी क्रांतिकारियों को अपनी गतिविधियाँ रोकनी पड़ीं।

यह भी पढ़ें: सखाराम गणेश देउस्कर: ‘बंगाल का तिलक,’ जिसकी किताब पर अंग्रेज़ों ने लगा दी थी पाबंदी!

इसी दौरान साल 1915 के लाहौर असेंबली बम कांड के बाद, ब्रिटिश पुलिस के सामने भूप सिंह का नाम उजागर हो गया। ऐसे में उन्होंने अपनी पहचान छिपाने के लिए अपना नाम भूप सिंह से बदलकर विजय सिंह ‘पथिक’ रख लिया, ताकि अंग्रेजी सरकार को धोखा दे सकें। उन्होंने अपने नाम के साथ-साथ अपनी वेश-भूषा को भी बदला और राजस्थान में मेवाड़ियों की तरह रहने लगे। यहाँ पर उन्होंने ‘वीर भारत सभा‘ नाम के एक गुप्त संगठन की स्थापना में अपना योगदान दिया।

बिजौलिया आंदोलन

जब मेवाड़ के बिजौलिया गाँव से किसान आंदोलन का सूत्रपात हुआ, तो बिना एक पल भी गंवाए विजय सिंह किसानों के समर्थन के लिए यहाँ पहुँच गये। यहाँ उन्होंने ‘विद्या प्रचारिणी सभा‘ की स्थापना की, गाँव-गाँव जाकर लोगों को संगठित किया और किसान आंदोलन से जुड़ने के लिए प्रेरित किया।

यहीं से उन्होंने पत्रिकारिता की भी शुरूआत की। गणेश शंकर विद्यार्थी द्वारा सम्पादित पत्र ‘प्रताप’ के माध्यम से उन्होंने बिजौलिया के किसान आंदोलन को समूचे देश में चर्चा का विषय बना दिया।

यह भी पढ़ें: गणेश वासुदेव मावलंकर : स्वतंत्र भारत के प्रथम लोकसभा अध्यक्ष!

उनके नेतृत्व में हुआ यह बिजौलिया आंदोलन जनक्रांति का रूप ले रहा था, जिससे प्रभावित होकर लोकमान्य तिलक ने महाराणा फ़तेह सिंह को किसानों की मांगे पूरी करने के लिए पत्र लिखा। उनके नेतृत्व और कार्यों से न सिर्फ़ तिलक, बल्कि महात्मा गाँधी भी बहुत प्रभावित हुए। संयोगवश इसी वक़्त गाँधी जी बॉम्बे (अब मुंबई) में एक सभा का आयोजन कर रहे थे, जिसमें शामिल होने के लिए उन्होंने विजय सिंह को आमंत्रित किया।

गाँधी जी के साथ हुई इस सभा में निर्णय लिया गया कि राजस्थान में चेतना जागृत करने के लिए वर्धा से एक समाचार पत्र निकाला जाए, जिसकी ज़िम्मेदारी विजय सिंह को सौंपी गयी और वे वर्धा आ गए। यहाँ से उन्होंने ‘राजस्थान केसरी‘ नामक साप्ताहिक पत्र प्रकाशित करना शुरू किया, जिसके प्रकाशन का खर्च जमनालाल बजाज ने उठाया।

अपने उत्कृष्ट राष्ट्रीय विचारों और सरकारी दमन के खिलाफ़ आवाज़ उठाने के कारण, यह अख़बार राजस्थान और मध्य भारत में इतना लोकप्रिय हुआ कि इसकी लोकप्रियता से भयभीत सरकार ने इस पर रोक लगा दी। पर फिर भी यह अख़बार आम लोगों को जागरूक करता रहा।

यह भी पढ़ें: केसरी सिंह बारहठ: वह कवि जिसके दोहों ने रोका मेवाड़ के महाराणा को अंग्रेजों के दिल्ली दरबार में जाने से!

दुर्भाग्यवश एक समय बाद, विजय सिंह और जमनालाल बजाज की विचारधाराओं में तालमेल न होने के कारण ‘राजस्थान केसरी‘ का प्रकाशन बंद करना पड़ा। इसके बाद विजय सिंह अजमेर आ गए और उन्होंने राजस्थान सेवा संघ की स्थापना की। राजस्थान में उन्होंने विधवा विवाह करने के लिए जागृति फैलाई और स्वयं भी एक विधवा से विवाह करके मिसाल पेश की। साथ ही उन्होंने बाल विवाह, सती-प्रथा, भेद-भाव और धार्मिक पाखंडो के खिलाफ़ आवाज़ उठाई।

अपने पिछले अनुभवों से विचलित न होते हुए, उन्होंने एक बार फिर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लिखने के लिए कमर कस ली और अजमेर से ‘नवीन राजस्थान‘ नामक साप्ताहिक पत्र की शुरूआत की।

‘नवीन राजस्थान‘ से किसान आंदोलनों को इतना बल मिला, कि सरकार के लिए इन आंदोलनों को दबा पाना मुश्किल हो गया था। अंत में हार कर मेवाड़ में ‘नवीन राजस्थान‘ पर भी सरकार द्वारा रोक लगा दी गई।

सरकार ने अपने राजकीय राजपत्र में घोषणा की, कि इस अख़बार को पढ़ना, रखना अथवा उसकी पूर्ण या आंशिक सामग्री को प्रचारित-प्रसारित करना अपराध माना जाएगा।

विजय सिंह ‘पथिक’

सरकार की इस घोषणा के बाद ‘नवीन राजस्थान‘ का प्रकाशन बंद करना पड़ा। पर विजय सिंह ‘पथिक’ कहाँ रुकने वाले थे! उन्होंने इस अख़बार को ‘तरूण राजस्थान‘ के नाम से एक बार फिर शुरू किया। इस अख़बार से मुकुट बिहारी वर्मा, रामनाथ गुप्त जैसे पत्रकार जुड़े हुए थे, जो बाद में नामवर संपादक हुए। उनका यह अख़बार भी किसानों का हितैषी था। इस अख़बार में वे ‘राष्ट्रीय पथिक’ के नाम से अपने विचार व्यक्त करते थे और इसलिए आज भी लोग उन्हें ‘राष्ट्रीय पथिक’ के नाम से जानते हैं।

यह भी पढ़ें: “सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है” : कब और कैसे लिखा राम प्रसाद बिस्मिल ने यह गीत!

उनके नेतृत्व में चल रहे बिजौलिया किसान आन्दोलन के आगे आख़िरकार सरकार को झुकना पड़ा। उन्होंने इसे रोकने के लिए किसानों की कई मांगों को मान लिया। उस समय किसानों पर लगने वाले कई तरह के करों को हटा दिया गया। इस आंदोलन की सफ़लता ने विजय सिंह को पूरे देश में प्रसिद्द कर दिया।

उनके कार्यों की प्रशंसा करते हुए महात्मा गांधी ने एक बार कहा था, ‘‘बाकी सभी केवल बातें करते हैं पर पथिक कर्मठ व्यक्ति है। वह एक सैनिक की भांति साहसी है, तेज़ है, और साथ ही ज़िद्दी भी है।‘‘

विजय सिंह ‘पथिक‘ ने पत्रकारिता के अलावा लेखक के रूप में भी अपनी पहचान बनाई। उन्होंने तीस से ज़्यादा किताबें लिखी।

विजय सिंह ‘पथिक’ की किताबें

उन्होंने अपना ज़्यादातर लेखन-कार्य कारावास में रहने के दौरान ही किया। इनमें शामिल हैं – तरुण मेरु, पथिक प्रमोद (कहानी-संग्रह), पथिक जी के जेल के पत्र और पथिक जी की कविताओं का संग्रह। भारत को आज़ादी मिलने के बाद भी आम लोगों के अधिकारों के लिए उनकी लेखनी प्रखर रही।

यह भो पढ़ें: दुर्गा भाभी : जिन्होंने भगत सिंह के साथ मिलकर अंग्रेज़ो को चटाई थी धूल!

साल 1954 में 28 मई को उन्होंने अपनी आख़िरी सांस ली। लेकिन आज भी उनका नाम इतिहास में अमर है।

राजस्थान में उनकी प्रतिमा

उनकी स्मृतिचिन्ह के तौर पर उनकी प्रतिमा राजस्थान और उत्तर-प्रदेश में लगवाई गयी। भारत सरकार ने उनकी स्मृति में डाक टिकट भी जारी किया।

‘राजस्थान केसरी’ तथा ‘राष्ट्रीय पथिक’ जैसी उपाधियों से अलंकृत पथिक को आज भी आधुनिक राजस्थान के पुनर्जागरण के नायक के रूप में याद किया जाता है।

भारत के इस महान स्वतंत्रता सेनानी को हमारा नमन!

( संपादन – मानबी कटोच )


यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ बांटना चाहते हो तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखे, या Facebook और Twitter पर संपर्क करे। आप हमें किसी भी प्रेरणात्मक ख़बर का वीडियो 7337854222 पर भेज सकते हैं।

We at The Better India want to showcase everything that is working in this country. By using the power of constructive journalism, we want to change India – one story at a time. If you read us, like us and want this positive movement to grow, then do consider supporting us via the following buttons:

X