पूरी दुनिया जानती है कि साल 1971 में बांग्लादेश को पाकिस्तान से जो आज़ादी मिली, उसमें भारतीय सेना का अहम योगदान था। अगर उस समय भारतीय सेना, पूर्वी पाकिस्तान में रह रहे आम लोगों के लिए पाकिस्तान के खिलाफ़ खड़ी ना होती, तो शायद आज बांग्लादेश आज़ाद न होता।
आज भी बांग्लादेश में उन भारतीय अफ़सरों और सैनिकों को सम्मान मिलता है, जिनके हौंसलो और बुलंद इरादों ने उन्हें स्वतंत्रता दिलाई। इस फ़ेहरिस्त में जनरल सैम मानेकशॉ के साथ एक और महत्वपूर्ण नाम है, लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा!
एक इंटरव्यू के दौरान जनरल मानेकशॉ ने कहा था, "साल 1971 में वाहवाही भले ही मेरी हुई, पर असली काम को 'जग्गी' यानी कि जगजीत सिंह ने किया था।"
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जब भारतीय सेना ने पूर्वी पाकिस्तान को आज़ाद कराने के लिए ऑपरेशन शुरू किया, तो उसका नेतृत्व जगजीत सिंह ने किया। इस ऑपरेशन के शुरू होते ही भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव बढ़ गया। भारत उन पर किसी तरह दबाव बनाना चाहता था, ताकि वे पूर्वी पाकिस्तान में रह रहे लोगों पर हो रहे अत्याचारों को खत्म कर, उन्हें स्वतंत्रता दें।
हालांकि, भारतीय सेना को ये भी आदेश थे कि किसी भी कीमत पर पाकिस्तान के साथ लड़ाई की नौबत नहीं आनी चाहिए। पर पाकिस्तान ने उनके जवाब में सिर्फ़ आक्रमण किया। ऐसे में, जगजीत सिंह ने स्थिति को सम्भालने के लिए एक रणनीति बनाई। उन्होंने सेना को छोटी-छोटी टुकड़ियों में बाँट कर अलग-अलग रास्तों से पाकिस्तान की सभी महत्वपूर्ण पोस्ट पर कब्ज़ा करने का आदेश दिया। उनकी रणनीति इतनी मजबूत थी कि चंद दिनों में ही भारतीय सेना ढाका (अब बांग्लादेश की राजधानी) तक पहुँच गयी।
अपनी सेना की अत्यधिक क्षति होते देखकर और भारतीय सेना के पाकिस्तान में बढ़ते क़दमों को देख, पाकिस्तान के तत्कालीन लेफ्टिनेंट जनरल आमिर अब्दुल्लाह ख़ान नियाज़ी ने अपने कदम पीछे हटाने का फ़ैसला लिया।
नियाज़ी ने जगजीत सिंह को एक वायरलेस सन्देश भेजा कि पाकिस्तानी सेना आत्म-समर्पण करने के लिए तैयार है। भारतीय सेना अपनी गतिविधियाँ रोक दे। इसके बाद जगजीत सिंह ने सन्देश भेजा कि यदि वे ऐसा करना चाहते हैं, तो भारतीय सेना भी उनकी सरहद छोड़ देगी।
इसके बाद तुरंत दिल्ली से समझौते के दस्तावेज़ भिजवाये गये और जगजीत सिंह ने इस दस्तावेज़ में यह भी लिखवाया कि अगर कोई पाकिस्तानी अफ़सर या सैनिक उनके सामने आत्म-समर्पण करेगा, तो वे जेनेवा समझौते के अनुसार उनकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी लेंगें। उन्होंने यह भी कहा,
"भारतीय सेना रेसकोर्स की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी लेगी और आत्म-समर्पण वहीं होगा, ताकि बांग्लादेश के लोगों को पता चले कि वो आज़ाद हो गए हैं। मैं किसी कमरे में नहीं, बल्कि आम लोगों के बीच में आत्म-समर्पण स्वीकार करूँगा।"
जब नियाज़ी का सरेंडर लेने के लिए ढाका जाने की बात आई, तो वो अपने साथ अपनी पत्नी भगवंत कौर को भी ले गए। हालांकि, उनके इस फ़ैसले की कुछ साथियों ने आलोचना भी की। पर इस निर्णय के पीछे की वजह लोगों को बाद में समझ में आई। दरअसल, इस पूरे वाकये में न जाने कितनी ही महिलाओं के साथ अमानवीय व्यवहार हुआ था। इसलिए, वे चाहते थे कि एक महिला इस ऐतिहासिक घटना की साक्षी बने और पूरी दुनिया को सन्देश मिले कि हम मानवीय मूल्यों का सम्मान करते हैं और एक महिला को वहाँ ले जाना बताता है कि हम महिलाओं का सम्मान करते हैं।
एडमिरल कृष्णन ने अपनी आत्मकथा 'ए सेलर्स स्टोरी' में लिखा, ''ढाका के रेसकोर्स मैदान में एक छोटी-सी मेज़ और दो कुर्सियाँ रखी गई थीं, जिन पर जनरल अरोड़ा और जनरल नियाज़ी बैठे थे। मैं, एयर मार्शल देवान जनरल सगत सिंह और जनरल जैकब पीछे खड़े थे। आत्मसमर्पण के दस्तावेज़ की छह प्रतियाँ थीं, जिन्हें मोटे सफ़ेद कागज़ पर टाइप किया गया था।''
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समर्पण के कागज़ात पर नियाज़ी ने पहले अपने पूरे हस्ताक्षर नहीं किये और सिर्फ़ 'एएके निया' लिखा। पर जगजीत सिंह ने उनसे पूरे हस्ताक्षर करने के लिए कहा और जैसे ही, नियाज़ी ने यह किया, बांग्लादेश आज़ाद हो गया। यह करते हुए, जनरल नियाज़ी की आँखों में आंसू आ गये थे।
नियाज़ी ने अपने 93,000 सैनिकों के साथ समर्पण किया और इस तरह 16 दिसंबर 1971 को बांग्लादेश का जन्म हुआ। आज इतने सालों बाद भी, बांग्लादेश के लोग जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा का नाम नहीं भूले हैं। उस समय, बांग्लादेश के विदेश मंत्री, मुर्शिद ख़ान ने भी कहा था कि जगजीत सिंह को बांग्लादेश के इतिहास में हमेशा याद रखा जायेगा।
(संपादन - मानबी कटोच)