आठ दिसम्बर 1971 की रात को भारत-पाक युद्ध के दौरान, भुज में भारतीय वायुसेना के एयरस्ट्रिप पर, सेबर जेट विमान के एक दस्ते ने 14 से अधिक नापलम बम गिराए। इसकी वजह से यह एयरस्ट्रिप टूट गयी और भारतीय लड़ाकू विमानों का उड़ान भरना नामुमकिन हो गया।
भारतीय वायु सेना ने एयरस्ट्रिप की मरम्मत के लिए सीमा सुरक्षा बल के जवानों को बुलाया, पर समय तेज़ी से गुज़र रहा था और मज़दूर कम थे। ऐसे में, भुज के माधापुर गाँव से 300 गाँव वाले अपने घरों से निकलकर भारतीय वायुसेना की मदद के लिए आगे आये, जिनमें ज़्यादातर महिलाएं थीं। मन में देशभक्ति लिए, वे सभी अपने घरों से निकल पड़ी।
यह शायद उनकी असाधारण देशभक्ति ही थी, कि उन्होंने एयरस्ट्रिप की मरम्मत जैसे असंभव काम को सिर्फ़ 72 घंटों के भीतर संभव कर दिखाया!
इन साहसी महिलाओं में से एक, वल्बाई सेघानी ने अहमदाबाद मिरर से बात करते हुए बताया कि उस समय वे खुद को एक सैनिक जैसा महसूस कर रही थी।
वे याद करती हैं कि किस प्रकार 9 दिसम्बर 1971 को, जब उन्हें बम गिरने की सूचना मिली, तब आर्मी ट्रक में चढ़ते हुए एक बार भी इन महिलाओं ने अपनी या अपने परिवार की सुरक्षा के बारे में नहीं सोचा, बल्कि वे बस चल पड़ी थीं, इस एयरस्ट्रिप की मरम्मत करने के लिए!
उन्होंने बताया, “हम करीब 300 औरतें थीं, जो वायु सेना की मदद के लिए इस दृढ़ निश्चय के साथ अपने घरों से निकल कर आई, ताकि पायलट यहाँ से फिर से उड़ान भर पाये। अगर हम मर भी जाते तो यह एक सम्मानजनक मौत होती।”
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तत्कालीन जिला कलेक्टर ने इन 300 बहादुर महिलाओं को इस नेक कार्य में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित किया। पर जब गाँव के सरपंच, जाधवजीभाई हिरानी ने पहला कदम बढ़ाया और इन महिलाओं से वायु सेना की मदद करने के लिए सहयोग माँगा, तो सभी ने सहर्ष उनका साथ दिया।
युद्ध के दौरान कार्निक भुज एयरपोर्ट के इंचार्ज थे, और इन महिलाओं को प्रोत्साहित करने वालों में स्क्वाड्रन लीडर विजय कार्निक का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा।
50 आइएएफ़ और 60 डिफेन्स सिक्यूरिटी कोर के जवानों और अन्य दो वरिष्ठ अधिकारियों के साथ मिलकर, उन्होंने ही यह सुनिश्चित किया कि विस्फोट में क्षतिग्रस्त होने के बाद भी एयरस्ट्रिप चालू रहे।
एशियन एज से बात करते हुए, स्क्वाड्रन लीडर कार्निक उस घटना को याद करते हुए बताते हैं, “हम एक जंग लड़ रहे थे और अगर इनमें से कोई भी महिला घायल होती, तो हमारे प्रयास को बड़ा नुकसान पहुँचता। पर मैंने फैसला ले लिया था और यह काम भी कर गया। हमने उन्हें बता दिया था कि हमला होने पर वे कहाँ शरण ले सकती हैं, और उन्होंने बड़ी बहादुरी से इसका पालन किया।”
आप जल्द बॉलीवुड एक्टर अजय देवगन को आगामी फिल्म, 'भुज : द प्राइड ऑफ़ इंडिया' में इस बहादुर अफ़सर के चरित्र को निभाते हुए देखेंगे।
क्षतिग्रस्त एयरस्ट्रिप को ठीक करना एक मुश्किल काम था, क्योंकि इन नागरिकों की जान को लगातार ख़तरा था। उन्होंने अपने अफ़सर के माग्रदर्शन में काम शुरू किया। जब भी भारतीय वायु सेना को पाकिस्तानी बॉम्बर के अपनी तरफ बढ़ने की शंका होती, तो ये एक सायरन बजा कर इन नागरिकों को सावधान कर देते।
“हम तुरंत भाग कर झाड़ियों में छुप जाते थे। हमें हल्के हरे रंग की साड़ी पहनने के लिए कहा गया था, ताकि झाड़ियों में छुपना आसान हो जाए। एक छोटा-सा सायरन इस बात का संकेत था, कि हम वापस काम शुरू कर सकते हैं। हम सुबह से शाम तक कड़ी मेहनत करते थे, ताकि दिन में रौशनी का पूरा फायदा मिले,” वल्बाई ने बताया।
एयरस्ट्रिप को ठीक करने में योगदान देने वाली एक और साहसी महिला,वीरू लछानी ने द टाइम्स ऑफ़ इंडिया को बताया, “दुश्मन के विमान को धोखा देने के लिए हमें एयरस्ट्रिप को गोबर से ढकने की हिदायत दी गयी थी। काम के दौरान, सायरन की आवाज़ पर हमें छिपने के लिए बंकर की ओर भागना पड़ता था। एयर स्ट्राइक के समय बंकर में, हमें सुखड़ी और मिर्च पर गुज़ारा करना पड़ता था।”
पहले दिन खाने के लिए कुछ न होने के कारण उन्हें भूखे पेट सोना पड़ा। दूसरे दिन, पास के मंदिर से उनके लिए फल और मिठाई भिजवाई गयीं। इससे उन्हें तीसरे दिन काम करने में मदद मिली।
चौथे दिन, शाम के 4 बजे, एक लड़ाकू विमान ने एयरस्ट्रिप से उड़ान भरी। आख़िरकार, यह काम कर रहा था।
“यह हमारे लिए गर्व का क्षण था," कहते हुए वल्बाई का चेहरा चमक उठता है।
वल्बाई को आज भी याद है कि उस समय उनका बेटा सिर्फ 18 महीने का था। अपने बेटे को वे अपने पड़ोसियों के पास छोड़ कर आई थीं। जब उनसे पड़ोसियों ने पूछा कि अगर उनको कुछ हो गया, तो उनके बेटे को वे किसे सौंपें, तो उनके पास कोई जवाब नहीं था।
वल्बाई ने अहमदाबाद मिरर को बताया, “मुझे सिर्फ यह पता था कि उस समय मेरे भाइयों को मेरी ज़्यादा ज़रूरत थी। मुझे आज भी याद है कि किस प्रकार सारे पायलट हमारा ख्याल रखते थे।”
वल्बाई की साथी और एक और एक सच्ची देशभक्त, हीरूबेन भूदिया बताती हैं, “युद्ध के मैदान में एयरस्ट्रिप को ठीक करने की ज़रूरत थी। पर मजदूरों की कमी के कारण उन्होंने हम पर भरोसा किया। 72 घंटों में हमने सुनिश्चित किया कि पायलट वापस आकाश की ऊँचाई को छू सकें। आज भी हम में वही जज़्बा है, और सेना को ज़रूरत पड़ने पर हम फिर से उनके लिए काम करेंगे।”
इस युद्ध के तीन साल बाद, जब प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने इन महिलाओं को उपहार देना चाहा, तो उन्होंने विनम्रतापूर्वक मना कर दिया और कहा, “हमने जो भी किया वह हमारे देश के लिए था।”
वल्बाई बताती हैं कि 50, 000 रूपये की पुरस्कार राशि भी माधापुर के एक कम्युनिटी हॉल के लिए दे दी गयी थी। साल 2018 में केंद्रीय सरकार ने भुज के माधापुर गाँव में ‘वीरांगना स्मारक’ नामक एक युद्ध स्मारक इन बहादुर महिलाओं को समर्पित किया है!
मूल लेख: जोविटा अरान्हा
संपादन: निशा डागर