साल 1962 में एक चैंपियनशिप के दौरान मैनुअल आरों (बाएं), वर्तमान तस्वीर (दाएं)
इतिहासकारों की मानें तो शतरंज का खेल दुनिया को भारत ने दिया है। जिसके बाद इसे अरब देशों ने अपनाया और फिर धीरे-धीरे यूरोप में भी इस खेल ने अपनी पहचान बना ली।
लेकिन विश्व-स्तर पर शतरंज के खेल में भारत को पहचान मिली 1950 के दशक में। इस दशक में एक भारतीय शतरंज खिलाड़ी ने साबित किया कि भारत न सिर्फ़ इस खेल का जन्मदाता है बल्कि इस खेल में महारथ भी रखता है। यह खिलाड़ी थे मैनुअल आरों!
उन्होंने न केवल भारत को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलवाई बल्कि भारत में भी इस खेल को मशहूर किया।
मैनुअल आरों का जन्म 30 दिसम्बर 1935 को बर्मा (वर्तमान म्यांमार) में हुआ था। उनके माता-पिता भारतीय थे। मैनुअल आरों भारतीय राज्य तमिलनाडु में पले बढ़े। यहीं उन्होंने अपनी शुरूआती पढ़ाई की। उन्होंने अपनी बी.एस.सी की डिग्री इलाहाबाद विश्वविद्यालय से प्राप्त की।
मात्र 8 साल की उम्र में चैस खेलना शुरू करने वाले आरों ने अपनी बड़ी बहन से खेल की तकनीक सीखीं। उन्होंने अपना पहला चैस टूर्नामेंट इलाहाबाद विश्वविद्यालय में खेला। और इसके बाद यह सिलसिला कभी भी नहीं रुका।
साल 1950 के मध्य से लेकर 1970 के अंत तक भारत में शतरंज के बादशाह मैनुअल आरों ही रहे। उन्होंने 9 बार राष्ट्रीय शतरंज की चैंपियनशिप का खिताब अपने नाम किया। 1969 से 1973 तक उन्होंने लगातार पांच वर्षों तक राष्ट्रीय खिताब पर कब्जा बनाए रखा।
तमिलनाडु में उन्होंने 11 बार राज्य की चैंपियनपशिप जीती। 1961 में एशियाई-ऑस्ट्रेलिया जोनल फाइनल में मैनुअल आरों ने ऑस्ट्रेलिया के सी.जे.एस. पर्डी को 3-0 से हराया और वेस्ट एशियाई जोनल में मंगोलिया के सुकेन मोमो को 3-1 से हरा दिया। जिसके बाद वे बन गये ‘इन्टरनेशनल मास्टर!'
मैनुअल आरों ‘इन्टरनेशनल मास्टर’ बनने वाले प्रथम भारतीय हैं। यह वह दौर था जब शतरंज भारत में बहुत अधिक नहीं खेला जाता था। इस दौर में आरों की यह उपलब्धियाँ ना केवल उनके लिए बल्कि पुरे देश के लिए गर्व की बात थीं। शतरंज के खेल को एक कायम मुकाम देने के लिए आरों को कई सम्मानों से अलंकृत किया गया।
मैनुअल प्रथम शतरंज खिलाड़ी हैं जिन्हें ‘अर्जुन पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया है। उन्होंने तमिलनाडु चैस एसोसिएशन के लिए सेक्रेटरी के तौर पर अपनी सेवाएँ दीं और फिर, ऑल इंडिया चैस फेडरेशन के चेयरमैन भी रहे।
उनके बाद साल 1978 में वी. रवि दुसरे भारतीय थे जो 'इंटरनेशनल मास्टर' बने। वी. रवि के दस साल बाद साल 1988 में भारत को विश्वनाथ आनंद के रूप में अपना पहला 'ग्रैंड मास्टर' मिला।
पर यह कहना बिलकुल भी गलत न होगा कि शतरंज के इन महारथियों के लिए विश्व-स्तर पर पहुँचने की राह मैनुअल आरों ने ही बनाई थी।