दरभंगा और मधुबनी के हज़ारों प्रवासी मजदूरों में से दिलीप साहनी भी एक थे। दिलीप पूर्णिया, बिहार के खेतों में मखाना की फसल के लिए मजदूरी करते थे। पर 23 साल के दिलीप ने सारी ज़िन्दगी मज़दूरी न कर, अपनी किस्मत को बदलने की ठान ली।
इस प्रवासी मज़दूर ने मैकेनिकल इंजीनियर बनने के अपने सपने को हासिल करने के लिए अपने रास्ते में आई ढेर सारी मुश्किलों को बहुत हिम्मत के साथ पार किया। और आज अपने इसी मेहनत और लगन के दम पर उन्हीने सिंगापुर में नौकरी पायी है। इसके बाद हजारों प्रवासी श्रमिकों के लिए वे एक उदाहरण बन गए हैं।
एक कृषि मज़दूर परिवार से ताल्लुक रखने वाले दिलीप के परिवार की मासिक आय दो-तीन हज़ार रूपये से ज्यादा नहीं थी। पर आज उनको सिंगापुर की एक कंपनी ने 8 लाख रूपये प्रति साल का पैकेज दिया है। उनका यह सफ़र चुनौतियों से भरा हुआ था पर दिलीप और उनके परिवार के हौंसलों के आगे कोई कुछ न कर सका।
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दिलीप अपनी सफ़लता का श्रेय अपने पिता और अपने छोटे भाई को देते हैं।
उन्होंने हिंदुस्तान टाइम्स को बताया कि, "मेरे और मेरे परिवार के लिए अभियंता/इंजीनियर बनने के अपने सपने को पूरा कर पाना कभी आसान नहीं था।"
उन्होंने बताया कि उनका पूरा परिवार कटाई के मौसम में हर साल जुलाई से जनवरी तक दरभंगा से पूर्णिया, अपने घर से 245 किमी दूर, चला जाता था।
लेकिन दिलीप ने किसी भी मजबूरी को अपनी शिक्षा के बीच नहीं आने दिया। साल 2013 में, उन्हें भोपाल के एक निजी तकनीकी कॉलेज मिलेनियम ग्रुप ऑफ इंस्टीट्यूशंस में एक इंजीनियरिंग कार्यक्रम में दाखिला मिल रहा था, पर पैसे की कमी सबसे बड़ी समस्या थी। उन्होंने शिक्षा ऋण के लिए बैंकों के दरवाजे भी खटखटाये पर सब ने इंकार कर दिया।
लेकिन दिलीप के हौंसले को बनाये रखा उनके भाई और पिता ने। उनके भाई विजय ने उनकी पढ़ाई के लिए पैसे जुटाने के लिए चेन्नई की एक टाइल्स कंपनी में नौकरी कर ली। दिलीप के पिता, लल्तुनी साहनी ने भोपाल में अपने बेटे की मदद के लिए गैर-कटाई के मौसम के दौरान, नेपाल में आइसक्रीम बेचना शुरू कर दिया।
"अगर मेरे भाई और पिता मेरे साथ नहीं होते तो मैं कभी इंजीनियर नहीं बन पाता ," उन्होंने बताया।
अन्तोर गांव से 10वीं पास करने वाले वे पहले व्यक्ति हैं। जेएनजेवी हाई स्कूल, नवादा, बेनीपुर से पहले डिवीजन के साथ उन्होंने 10वीं कक्षा पास की। साल 2013 में बहेरा कॉलेज, दरभंगा से कक्षा 12वीं की परीक्षा दी। स्कूल के दौरान भी अक्सर वे काम करने और कुछ पैसे कमाने के लिए मखाना कटाई के मौसम के दौरान पूर्णिया जाते थे।
उनके गांव के लोग उनका मज़ाक बनाते थे, पर दिलीप ने बिना कुछ कहे केवल अपनी मेहनत पर ध्यान दिया।
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साल 2016 में इस युवा इंजीनियर को अपने इंजीनियरिंग कार्यक्रम में अकादमिक उत्कृष्टता के लिए, मध्य प्रदेश सरकार द्वारा टॉपर्स का पुरस्कार मिला।
उनका यह कठिन परिश्रम रंग लाया जब संगम ग्रुप, स्टील कंपनी ने उन्हें 8 लाख रुपये के वार्षिक वेतन के साथ सिंगापुर में नौकरी की पेशकश की। बहुत से लोग सोचते होंगे कि यह संघर्ष का अंत है पर हम समझते हैं की यह उनकी सफलता की शुरुआत है।
अपने गांव के लिए उनके कई सपने हैं, जिसमें से एक है वंचित प्रवासी बाल मजदूरों की शिक्षा में मदद करना। इसके लिए उनकी प्रमुख प्रेरणा पूर्णिया पुलिस अधीक्षक निशांत तिवारी हैं, जिन्होंने वंचित बच्चों की शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए 'मेरी पाठशाला' शुरू किया था।
हम दिलीप की इस मेहनत की सराहना करते हैं और कामना करते हैं कि वे इसी तरह सफलता की बुलंदियों को हासिल करते रहें।
( संपादन - मानबी कटोच )