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किसी के संघर्ष की कहानी हमको प्रेरणा देती है तो किसी की भावुक कर देती है ...और कुछ कहानियां ऐसी होती हैं कि हम बस मौन हो जाते हैं।
ऐसी ही कहानी है मध्य-प्रदेश की जूही झा की।
यदि आप कभी भी सार्वजनिक शौचालय में गए हैं, तो आपको पता होगा कि वहां कितनी बदबू और गंदगी होती है। आप अंदर कदम रखते हैं और तुरंत अपनी नाक भींच लेते हैं। क्या हो, अगर आपसे कोई कह दे कि आपको ऐसी जगह के बिल्कुल पास या फिर ऐसी ही जगह में रहना है!
आप शायद सपने में भी न सोचें, लेकिन जूही आपको ऐसे रहने का अपना अनुभव बता सकती हैं। जूही के पिता सुबोध कुमार झा, इंदौर के सार्वजनिक शौचालय में एक पूर्व कर्मचारी थे। 7000 रुपये की आय के साथ, पांच सदस्यों के परिवार को वहां आवंटित क्वार्टर में रहना पड़ता था।
यह कमरा सार्वजनिक शौचालय भवन में था, और यही वह जगह है जहां जूही ने अपने जीवन के 12 साल बिताए थे।
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कक्षा 4 में, जूही हैप्पी वंडरर्स समूह में शामिल हो गयी और खो-खो प्लेयर के रूप में प्रशिक्षण शुरू किया। हालांकि उनके परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत तंग थी, लेकिन उन्होंने अपने खेल के जुनून के साथ-साथ अपनी पढ़ाई भी जारी रखी।
20 साल की जूही ने दैनिक जागरण से बात करते हुए कहा, "मैं यहां (सार्वजनिक शौचालय क्वार्टर) लगभग 12 वर्षों तक रही हूँ। मेरे पिता 6000-7000 रुपये कमाते थे जिससे हमारा घर चलता। हालात खराब थे, लेकिन मैंने कभी खेलना नहीं छोड़ा। तीन साल पहले, उनकी वह नौकरी छुट गयी और इसके साथ घर भी।"
इसके बावजूद उन्होंने खेलना जारी रखा और उसमें महारत हासिल कर ली। और आज, जूही की मेहनत और लगन को उसका इनाम मिला है!
इस साल मध्य-प्रदेश के खेल और युवा कल्याण विभाग ने 10 खिलाड़ियों को विक्रम पुरस्कार से सम्मानित किया और जूही उनमें से एक थी। यह पुरुस्कार 4 अक्टूबर को दिया गया।
पिछले कुछ वर्षों में झा परिवार के लिए स्थितियों में सुधार हुआ है। वे मध्यप्रदेश में एक किराए के घर में शिफ्ट हो गये हैं।
"मेरी माँ ने दर्जी का काम शुरू किया और मुझे भी स्कूल में नौकरी मिल गयी है, तो इससे परिवार की आय बढ़ी है। मुझे खुशी है कि मेरी सरकारी नौकरी मेरे परिवार को आगे बढ़ाने में मदद करेगी। मैं अभी बीकॉम के अंतिम वर्ष में हूँ और आगे पढ़ना चाहती हूँ," उसने कहा।
हमें यकीन है कि जूही के लिए कुछ भी मुश्किल नहीं। वह अपनी मेहनत के दम पर अब अपना हर एक सपना पूरा करेंगी।
संपादन - मानबी कटोच