Placeholder canvas

रवीन्द्र प्रभात: हिंदी में ब्लॉग लिखने का है शौक, तो इनसे ज़रूर मिले!

हिंदी के प्रसिद्द साहित्यकार और हिंदी ब्लॉगिंग को एक नयी पहचान देने वाले ब्लॉगर, रवीन्द्र प्रभात ने साहित्य की कई विधाओं पर अपनी लेखनी चलाई है। साल 2007 से उन्होंने ब्लॉगिंग के ज़रिए हिंदी साहित्य में उभरते हुए सितारों को पहचान और सम्मान दिलाने का अभियान छेड़ा हुआ है।

“यदि एक ब्लॉगर नई पीढ़ी को समुचित ज्ञान दिये बिना मर जाता है, तो उसका ज्ञान व्यर्थ है।”

मानना है हिंदी के प्रसिद्द साहित्यकार और हिंदी ब्लॉगिंग को एक नयी पहचान देने वाले ब्लॉगर, रवीन्द्र प्रभात का। साहित्य की कई विधाओं पर अपनी लेखनी चलाकर, साल 2007 से उन्होंने ब्लॉगिंग के ज़रिए हिंदी साहित्य में उभरते हुए सितारों को पहचान और सम्मान दिलाने का अभियान छेड़ा हुआ है।

उन्हें हिंदी ब्लॉगिंग जगत में न्यू मीडिया विशेषज्ञ के तौर पर जाना जाता है। प्रिंट में वर्षों तक लिखने के बाद उन्होंने इंटरनेट की दुनिया में भी हिंदी की शाख बनाने में अहम् योगदान दिया है। ‘हिन्दी ब्लॉगिंग का इतिहास’ लिखने वाले वे पहले इतिहासकार हैं।

बिहार के सीतामढ़ी में 5 अप्रैल 1969 को जन्मे रविन्द्र ‘प्रभात’ का पूरा नाम रवीन्द्र कुमार चौबे है। ‘प्रभात’ उनका उपनाम है। स्कूल की पढ़ाई बिहार से पूरी करने के बाद, उन्होंने उत्तर प्रदेश राजर्षि टंडन मुक्त विश्वविद्यालय से पत्रकारिता की डिग्री हासिल की। बचपन से ही उन्हें तुकबन्दी का शौक था और अक्सर वे दोस्तों के बीच बैठकर अपनी तुकबंदी की महफ़िल जमाया करते थे।

रवीन्द्र प्रभात

साल 1987 में उनकी पहली कविता ‘किसलय’ प्रकाशित हुई। इसके बाद, उन्होंने साहित्य की बहुत-सी विधाओं में लिखा – कविता, कहानी, व्यंग्य, निबंध आदि। उन्होंने हिंदी ग़ज़ल के उत्थान में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसके अलावा उन्होंने उर्जिवा, साहित्यांजली, संवाद, हमारी वाणी, वटवृक्ष, परिकल्पना समय जैसी बहुत-सी मैगज़ीन का सम्पादन भी किया है।

उनकी रचनाएँ हमारे समाज का यथार्थ चित्रण करती हैं। उन्होंने साहित्य के अलग-अलग रूपों के ज़रिए समाज के उस चेहरे को उकेरा है, जो सामने होते हुए भी लज्जा के लिहाफ़ में छिपा रहता है। उनका पहला उपन्यास, ‘ताकि बचा रहे लोकतंत्र’ आज भी लोगों के ज़हन में है। हास्य शैली में लिखी गयी यह रचना व्यंग्य से परे जाकर, देश की व्यवस्था के कुरूप चेहरे को सामने रखती है।

इसमें वे लिखते हैं,

“अरे हम हरिजन हैं तो क्या हुआ, हैं तो इंसान ही न। लोकतंत्र में उन्हें मनमानी करने की छूट और हमें अपने ढंग से जीने का अधिकार भी नहीं, क्यों ? समाज से घृणा……….घृणा……… कब होगा इस घृणा का अंत….. सबको रोटी, सबको कपड़ा, सबको मिले मकान, तब हम खुलकर कह पायेंगे, ‘भारत मेरा महान।”

उन्होंने न सिर्फ़ जातिवाद, बल्कि समाज के अन्य भेदभाव पर भी निस्संकोच अपनी लेखनी चलाई है। अपनी कविता, ‘बाबू! औरत होना पाप है पाप’ में उन्होंने ऐसी नारी का चित्रण किया है, जो समाज के अत्याचार सहते-सहते एक दिन विद्रोह का ज्वालामुखी बनकर फूटती है।

सालों बाद देखा है
धनपतिया को आज
धूप की तमतमाहट से कहीं ज्यादा

उग्र तेवर में
भीतर-भीतर धुआँती
जीवन के एक महासमर के लिए तैयार ।
महज दो-तीन सालों में
कितना बदल गई है वह

भड़कीले चटख रंगों की साडी में भी
अब नहीं दमकता उसका गोरा रंग
बर्फ़ के गोले की तरह
हो चले हैं बाल
और झुर्रियाँ
मरुस्थल के समान बेतरतीब ।

पहले-
बसंत के नव-विकसित पीताभ
नरगिस के फूलों की तरह
निर्मल दिखती थी धनपतिया
हहास बांधकर दौड़ती
बागमती की तरह अल्हड़

आसमानी रंग की साडी में
उमगती जब कभी
पास आती थी
बेंध जाती थी देह का पोर-पोर
अपनी शरारती चितवन से ।

अब पूछने पर
कहती है धनपतिया-
बाबू !
औरत होना पाप है पाप….

कहते-कहते लाल हो जाता है चेहरा
तन आती है नसें
और आँचल में मुँह छुपाकर
बिफ़रने लगती है वह
नारी के धैर्य की
टूटती सीमाओं के भीतर
आकार ले रही
रणचंडी की तरह !

तो वहीं ‘स्मृति शेष’ कविता संग्रह में, वे स्त्रियों के प्रति दुनिया से खत्म हो रही शर्म, सम्मान और इंसानियत का मार्मिक रूप लिखते हैं। इस समाज में जहाँ कभी लड़कियों को सच्चे प्रेम की परिभाषा कहा जाता था, जहाँ कभी कश्मीर जन्नत थी; लेकिन आज यह आस्था कहीं टूटने लगी है। और इसी बिखरती आस्था को रविन्द्र ने शब्दबद्ध किया है।

बहुत पहले-
लिखे जाते थे मौसमो के गीत जब
रची जाती थी प्रणय की कथा और –
कविगण करते थे
देश-काल की घटनाओं पर चर्चा
तब कविताओं में ढका होता था युवतियों का ज़िस्म….!

सुंदर दिखती थी लड़कियाँ
करते थे लोग
सच्चे मन से प्रेम
और जानते थे प्रेम की परिभाषा….!

बहुत पहले-
सामाजिक सड़ान्ध फैलाने वाले ख़टमलों की
नहीं उतारी जाती थी आरती
अपने कुकर्मों पर बहाने के लिए
शेष थे कुछ आँसू
तब ज़िंदा थी नैतिकता
और हाशिए पर कुछ गिने – चुने रक़्तपात….!

तब साधुओं के भेष में
नहीं घूमते थे चोर-उचक्के
सड़कों पर रक़्त बहाकर
नहीं किया जाता था धमनियों का अपमान
तब कोई सम्बन्ध भी नहीं था
बेहयाई का बेशर्मी के साथ….!

बहुत पहले-
शाम होते
सुनसान नहीं हो जाती थी सड़कें
गली-मोहल्ले / गाँव-गिराँव आदि
असमय बंद नहीं हो जाती थी खिड़कियाँ
माँगने पर भी नहीं मिलता था
आगज़ला सौगात

तब दर्द उठने पर
सिसकने की पूरी छूट थी
और सन्नाटे में भी
प्रसारित होते थे वक़्तव्य
खुलेआम दर्ज़ा दिया जाता था कश्मीर को
धरती के स्वर्ग का…..!

अब तो टूटने लगा हैं मिथक
चटखने लगी है आस्थाएँ
और दरकने लगी हैं
हमारी बची- खुची तहजीब….!

दरअसल आदमी
नहीं रह गया है आदमी अब
उसी प्रकार जैसे-
ख़त्म हो गई समाज से सादगी
आदमी भी ख़त्म हो गया
और आदमीयत भी….!

कविता के साथ-साथ रविन्द्र प्रभात को उनके व्यंग्य और ग़ज़ल लेखन के लिए प्रसिद्धि मिली है। ‘हमसफ़र’ (1991) और ‘मत रोना रमज़ानी चाची'(1999) में प्रकाशित हुए उनके ग़ज़ल संग्रह पाठकों को बेहद पंसद आये। इनके अलावा, उनके उपन्यास, ‘प्रेम न हाट बिकाए,’ और ‘धरती पकड़ निर्दलीय’ बहुत प्रसिद्द हैं।

हालांकि, आज उनकी पहचान उनके ब्लॉग लेखन से है। उन्होंने ही हिन्दी ब्लॉग आलोचना का सूत्रपात किया है। इनके ही प्रयासों से ब्लॉग साहित्यिक पुरस्कार परिकल्पना सम्मान शुरू किया गया है। यह सम्मान प्रत्येक वर्ष आयोजित अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी ब्लॉगर सम्मेलन में देश-विदेश से आए जाने-माने ब्लॉगर्स की उपस्थिति में दिया जाता है। इस सम्मान को बहुचर्चित तकनीकी ब्लॉगर रवि रतलामी ने ‘हिन्दी ब्लॉगिंग का ऑस्कर’ कहा है।

फोटो साभार

आज उन्होंने साहित्यिक उत्सवों की तरह ही ‘ब्लॉगोत्सव’ के आयोजन भी शुरू किये हैं। अपनी मौलिक सोच के द्वारा रवीन्‍द्र प्रभात ने इस आयोजन के माध्‍यम से पहली बार ब्‍लॉग जगत के लगभग सभी प्रमुख रचनाकारों को एक मंच पर प्रस्‍तुत किया और गैर ब्‍लॉगर रचनाकारों को भी इससे जोड़कर समाज में एक सकारात्‍मक संदेश का प्रसार किया।

इसके अलावा, उनका ‘ब्लॉग विश्लेषण’ भी काफ़ी महत्वपूर्ण है। जिसके द्वारा ब्‍लॉग जगत में बिखरे अनमोल मोतियों से पाठकों को परिचित करने का बीड़ा उठाया है। इसमें वे हिंदी में उपलब्ध अलग-अलग ब्लॉग्स पर चर्चा करते हैं। एक साक्षात्कार के दौरान साहित्य में ब्लॉग लेखन के महत्व के बारे में उन्होंने कहा,

“ब्लॉगिंग विधा नहीं एक नया माध्यम है विचारों को प्रस्तुत करने का। चाहे वह साहित्यिक विचार हों, सामाजिक हो अथवा सांस्कृतिक। यदि मैं कहूं कि ब्लॉगिंग अभिव्यक्ति का एक ऐसा माध्यम है जो अन्य सभी माध्यमों से सशक्त है तो शायद किसी को न अतिश्योक्ति होगी और न शक की गुंजाईश ही।”

उनका एक ब्लॉग विश्लेषण, ‘बिन ब्लोगिंग सब सून’ पढ़ने के लिए क्लिक करें!

साल 2011 में उन्होंने 51 हिंदी ब्लॉगर्स को दिल्ली में परिकल्पना सम्मान से सम्मानित कर ब्लॉगिंग की ताक़त का एहसास कराया। साथ ही, अब तक उन्हें भी ब्लॉगिंग के लिए कई सम्मानों से नवाज़ा गया है।

प्रभात को बहुत से सम्मानों से नवाज़ा गया है

साल 2012 में खटीमा ब्लॉगर मीट के दौरान साहित्य शारदा मंच ने उन्हें ‘ब्लॉग श्री,’ तो राष्ट्रीय ब्लॉगर संगोष्ठी कल्याण (मुम्बई) में उन्हें ‘ब्लॉग भूषण’ और फिर बैंकॉक में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मलेन में हिंदी ब्लॉगिंग में उल्लेखनीय कार्य हेतु “सृजन श्री” सम्मान से सम्मानित किया गया।

हिंदी ब्लॉग लेखन को वैश्विक स्तर पर पहचान दिला रहा यह साहित्यकार, जब भी अपनी कलम उठाता है, तो लगता है कि इतिहास रच रहा है। उनकी रचनाएँ अपने आप में कालजयी हैं और हमारे देश की राजनैतिक, सामाजिक व्यवस्था पर न सिर्फ़ कटाक्ष करती हैं, बल्कि आमजन को जागरूकता का संदेश भी देती हैं।

आज द बेटर इंडिया के साथ पढ़िये उनकी कुछ और रचनाएँ:

‘बनारस : दो शब्दचित्र’ कविता

1. पिस्ता-बादाम की ठंडई में
भांग के सुंदर संयोग से
बना-रस
एक घूँट में गटकते हुए
बनारस
गुम हो जाता सरेशाम
’दशाश्वमेध’ की संकरी गलियों में !

और उस वक़्त
उसके लिए मायने नही रखती
‘गोदौलीया’ की उद्भ्रान्त भीड़
शोर-शराबा/ चीख़-पुकार आदि

सहजता से
मुस्कुराती हिंसा को देखकर
मुस्कुरा देता वह भी
कि नहीं होता उसे
गंगा के मैलेपन का दर्द
और “ज्ञानवापी” के विभेद का एहसास
कभी भी…….!

पसंद करता वह भी
ब्यूरोक्रेट्स की तरह
निरंकुशता का पैबंद
व्यवस्थाओं के नाम पर
और मनोरंजन के नाम पर
भौतिकता का नंगा नृत्य
रात के अंधेरे में !

अहले सुबह
घड़ी-घंटों की गूँज
और मंत्रोचारण के बीच
डुबकी लगाते हुए गंगा में
देता अपनी प्राचीन संस्कृति की दुहाई
अलमस्त सन्यासियों की मानिन्द
निर्लज्जतापूर्वक !

आख़री समय तक रखना चाहता वह
आडंबरों से यु्क्त हँसी
और सैलानी हवा के झकोरों से
गुदगुदाती ज़िंदगी

ताकि वजूद बना रहे
सचमुच-

बनारस शहर नहीं
गोया नेता हो गया है
सत्तापक्ष का…..! !

2. करतालों की जगह
बजने लगा है पाखंड
अंधविश्वास-
रूढ़ियों को कंधे पर लटकाए
सीढ़ियाँ चढ़ रहा है चट्ट-चट्ट

लज्जित हैं सुबह की किरणें
खंड-खंड तोता रटन्त यजमान लुभाते आख्यान
एक अखंड मु्जरा
एक तेलौस मेज़ पर
तले हुए नाश्ते के समान फैला पाश्चात्य
सुबह-ए-बनारस !

‘मसलों से ग्रस्त है जब आदमी इस देश में’ कविता

मसलों से ग्रस्त है जब आदमी इस देश में,
किस बात की चर्चा करें आज के परिवेश में?

कल तक जो पोषक थे, आज शोषक बन गए
कौन करता है यकीं अब गाँधी के उपदेश में ?

माहौल को अशांत कर शांति का उपदेश दे,
घूमते हैं चोर-डाकू साधुओं के वेश में।

कोशिशें कर ऐसी जिससे शांति का उद‍घोष हो,
हर तरफ अमनों-अमाँ हो गांधी के इस देश में ।

है कोई वक्तव्य जो पैगाम दे सद्भावना का,
बस यही है हठ छिपा ‘प्रभात’ के संदेश में।

‘जहाँ शेर-बकरी साथ बैठे वह पड़ाव चाहिए’ कविता

हमें-
स्वच्छ , प्रदूषण रहित
शहर-कस्वा-गाँव चाहिए ।
जहाँ शेर-बकरी साथ बैठे
वह पड़ाव चाहिए ।।

हमें नहीं चाहिए
कोई भी सेतु
इस उफनती सी नदी को
पार करने हेतु
हाकिम और ठेकेदार
पैसे हज़म कर जाएँ
और उद्घाटन के पहले
टूटकर बिखर जाएँ
हमें पार करने के लिए
बस एक नाव चाहिए ।
जहाँ शेर-बकरी साथ वैठे
वह पड़ाव चाहिए ।।

हमें नही चाहिए
कारखानों का धुँआ
जल- जमाव
सुलगता तेल का कुँआ
चारो तरफ
लौदस्पिकर की आवाज़
प्रदूषित पानी
और मंहगे अनाज
सुबह की धूप, हरे- भरे
पेड़ों की छाँव चाहिए ।
जहाँ शेर-बकरी साथ बैठे
वह पड़ाव चाहिए ।।

हमें नहीं चाहिए
रिश्वत के घरौंदे
जिसमें रहते हों
वहशी / दरिन्दे
मंडी में –
औरत की आबरू बिके
असहायों की आंखों से
रक्त टपके
जहाँ पूज्य हो औरत
हमें वह ठांव चाहिए ।
जहाँ शेर- बकरी साथ बैठे
वह पड़ाव चाहिए ।।

व्यंग्य: हर शाख पे उल्लू बैठा है!

“हो गयी हर घाट पर पूरी व्यवस्था, शौक़ से डूबें जिसे भी डूबना है” दुष्यंत ने आपातकाल के दौरान ये पंक्तियाँ कही थी , तब शायद उन्हें भी यह एहसास नहीं रहा होगा कि आनेवाले समय में बिना किसी दबाब के लोग स्वर्ग या फिर नरक लोक की यात्रा करेंगे।

वैसे जब काफी संख्या में लोग मरेंगे , तो नरक हाऊसफुल होना लाजमी है, ऐसे में यमराज की ये मजबूरी होगी कि सभी के लिए नरक में जगह की व्यवस्था होने तक स्वर्ग में ही रखा जाये। तो चलिए स्वर्ग में चलने की तैयारी करते हैं। संभव है कि पक्ष और प्रतिपक्ष हमारी मूर्खता पर हँसेंगे, मुस्कुरायेंगे, ठहाका लगायेंगे और हम बिना यमराज की प्रतीक्षा किये खुद अपनी मृत्यु का टिकट कराएँगे।

जी हाँ, हमने मरने की पूरी तैयारी कर ली है, शायद आप भी कर रहे होंगे, आपके रिश्तेदार भी, यानी कि पूरा समाज ! अन्य किसी मुद्दे पर हम एक हों या ना हों मगर वसुधैव कुटुम्बकम की बात पर एक हो सकते हैं, माध्यम होगा न चाहते हुये भी मरने के लिए एक साथ तैयार होना।

तो तैयार हो जाएँ मरने के लिए , मगर एक बार में नहीं , किश्तों में। आप तैयार हैं तो ठीक, नहीं तैयार हैं तो ठीक, मरना तो है हीं, क्योंकि पक्ष- प्रतिपक्ष तो अमूर्त है, वह आपको क्या मारेगी, आपको मारने की व्यवस्था में आपके अपने हीं जुटे हुये हैं।

यह मौत दीर्घकालिक है, अल्पकालिक नहीं। चावल में कंकर की मिलावट , लाल मिर्च में ईंट – गारे का चूरन, दूध में यूरिया, खोया में सिंथेटिक सामग्रियाँ , सब्जियों में विषैले रसायन की मिलावट। और तो और देशी घी में चर्वी, मानव खोपडी, हड्डियों की मिलावट क्या आपकी किश्तों में खुदकुशी के लिए काफी नहीं?

भाई साहब, क्या मुल्ला क्या पंडित इस मिलावट ने सबको मांसाहारी बना दिया। अब अपने देश में कोई शाकाहारी नहीं, यानी कि मिलावट खोरो ने समाजवाद ला दिया हमारे देश में, जो काम सरकार चौंसठ वर्षों में नहीं कर पाई वह व्यापारियों ने चुटकी बजाकर कर दिया, जय बोलो बईमान की।

भाई साहब, अगर आप जीवट वाले निकले और मिलावट ने आपका कुछ भी नही बिगारा तो नकली दवाएं आपको मार डालेगी। यानी कि मरना है, मगर तय आपको करना है कि आप कैसे मरना चाहते हैं एकवार में या किश्तों में?

भूखो मरना चाहते हैं या या फिर विषाक्त और मिलावटी खाद्य खाकर?

बीमारी से मरना चाहते हैं या नकली दवाओं से?

आतंकवादियों के हाथों मरना चाहते हैं या अपनी हीं देशभक्त जनसेवक पुलिस कि लाठियों, गोलियों से?

इस मुगालते में मत रहिए कि पुलिस आपकी दोस्त है। नकली इनकाऊंटर कर दिए जायेंगे, टी आर पी बढाने के लिए मीडियाकर्मी कुछ ऐसे शव्द जाल बूनेंगे कि मरने के बाद भी आपकी आत्मा को शांति न मिले।

अब आप कहेंगे कि यार एक नेता ने रबडी में चारा मिलाया, खाया कुछ हुआ, नही ना? एक नेतईन ने साडी में बांधकर इलेक्ट्रोनिक सामानों को गले के नीचे उतारा, कुछ हुआ नही ना? एक ने पूरे प्रदेश की राशन को डकार गया कुछ हुआ नही ना? एक ने कई लाख वर्ग किलो मीटर धरती मईया को चट कर गया कुछ हुआ नही ना? और तो और अलकतरा यानी तारकोल पीने वाले एक नेता जी आज भी वैसे ही मुस्करा रहे हैं जैसे सुहागरात में मुस्कुराये थे। भैया जब उन्हें कुछ नही हुआ तो छोटे – मोटे गोरखधंधे से हमारा क्या होगा? कुछ नही होगा यार टेंसन – वेंसन नही लेने का। चलने दो जैसे चल रही है दुनिया।

भाई कैसे चलने दें, अब तो यह भी नही कह सकते की अपना काम बनता भाड़ में जाये जनता। क्योंकि मिलावट खोरो ने कुछ भी ऐसा संकेत नही छोड़ रखा है जिससे पहचान की जा सके की कौन असली है और कौन नकली?

जिन लोगों से ये आशा की जाती थी की वे अच्छे होंगे, उनके भी कारनामे आजकल कभी ऑपरेशन तहलका में, ऑपरेशन दुर्योधन में, ऑपरेशन चक्रव्यूह में , आदि- आदि में उजागर होते रहते हैं। अब तो देशभक्त और गद्दार में कोई अंतर ही नही रहा। हर शाख पर उल्लू बैठा है अंजाम – गुलिश्ता क्या होगा?

कविता साभार: कविता कोश 
व्यंग्य साभार: गद्य कोश 


यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ बांटना चाहते हो तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखे, या Facebook और Twitter पर संपर्क करे। आप हमें किसी भी प्रेरणात्मक ख़बर का वीडियो 7337854222 पर भेज सकते हैं।

We at The Better India want to showcase everything that is working in this country. By using the power of constructive journalism, we want to change India – one story at a time. If you read us, like us and want this positive movement to grow, then do consider supporting us via the following buttons:

X