20वीं सदी के प्रारम्भ में भाषा, भाव, शैली, छंद और अलंकार के बंधनों को तोड़ कर कविताएँ लिखने वाली एक शैली का जन्म हुआ, जिसका पुरानी कविता से कोई मेल न था, इसे नाम दिया गया छायावाद। हिंदी साहित्य के इसी छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक थे सुमित्रा नंदन पंत। इस युग को जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ और रामकुमार वर्मा जैसे कवियों का युग कहा जाता है।
सुमित्रानंदन पंत का जन्म अल्मोड़ा के कैसोनी गांव (अब उत्तराखंड में) में 20 मई 1900 को हुआ था। पंत के जन्म के बाद ही उनकी मां का देहांत हो गया था। दादी के लाड़ प्यार में पले पंत ने अपने लिए नाम का चयन भी खुद ही किया। जी हां, पंत का वास्तविक नाम गुसाई दत्त था, जिसे उन्होंने बदल कर सुमित्रानंदन पंत रखा।
पंत को हिंदी साहित्य का ‘विलियम वर्ड्सवर्थ’ कहा जाता था। उन्हें ऐसे साहित्यकारों में गिना जाता है, जिनका प्रकृति चित्रण समकालीन कवियों में सबसे बेहतरीन था। उनके बारे में साहित्यकार राजेन्द्र यादव कहते हैं, “पंत अंग्रेज़ी के रूमानी कवियों जैसी वेशभूषा में रहकर प्रकृति केन्द्रित साहित्य लिखते थे।”
उनकी रचनाओं के अलावा एक और वाकया मशहूर है पंत के बारे में, कि हिंदी सिनेमा जगत के महानायक अभिनेता अमिताभ बच्चन का नामकरण पंत ने ही किया था। पंत और हरिवंश राय बच्चन अच्छे मित्र थे। जब हरिवंश जी के यहाँ बेटे का जन्म हुआ तो उन्होंने तय किया कि उसका नाम ‘इंकलाब’ रखेंगे। पर पंत को उनके बेटे के लिए ‘अमिताभ’ नाम ज्यादा भाया और हरिवंश ने भी अपने दोस्त की बात रख ली।
पंत का पहला काव्य-संग्रह ‘पल्लव’ साल 1926 में प्रकाशित हुआ। संस्कृतनिष्ठ हिंदी में लिखने वाले पंत की 28 रचनाओं में कविताएँ, नाटक और लेख शामिल हैं। जिनमें से ‘खादी के फूल’ उनका और हरिवंश राय बच्चन का संयुक्त काव्य-संग्रह है। कवि के रूप में तो उनकी ख्याति विश्वभर में फैली; लेकिन पंत ने गद्य साहित्य में भी अपना योगदान दिया था। उनके द्वारा लिखे गये कई निबन्ध, आलोचना और समीक्षा आदि प्रकाशित हुए।

हिंदी साहित्य सेवा के लिए उन्हें पद्मभूषण(1961), ज्ञानपीठ(1968), साहित्य अकादमी, तथा सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार जैसे उच्च श्रेणी के सम्मानों से अलंकृत किया गया। साल 1977 में 28 दिसंबर को पंत ने दुनिया से विदा ली। हिंदी साहित्य के इस महान कवि की कुछ कृतियाँ आप हमारे साथ पढ़ सकते हैं।
1. ‘रेखा चित्र’ कविता
चाँदी की चौड़ी रेती,
फिर स्वर्णिम गंगा धारा,
जिसके निश्चल उर पर विजड़ित
रत्न छाय नभ सारा!
फिर बालू का नासा
लंबा ग्राह तुंड सा फैला,
छितरी जल रेखा–
कछार फिर गया दूर तक मैला!
जिस पर मछुओं की मँड़ई,
औ’ तरबूज़ों के ऊपर,
बीच बीच में, सरपत के मूँठे
खग-से खोले पर!
पीछे, चित्रित विटप पाँति
लहराई सांध्य क्षितिज पर,
जिससे सट कर
नील धूम्र रेखा ज्यों खिंची समांतर।
बर्ह पुच्छ-से जलद पंख
अंबर में बिखरे सुंदर
रंग रंग की हलकी गहरी
छायाएँ छिटका कर।
सब से ऊपर निर्जन नभ में
अपलक संध्या तारा,
नीरव औ’ निःसंग,
खोजता सा कुछ, चिर पथहारा!
साँझ,– नदी का सूना तट,
मिलता है नहीं किनारा,
खोज रहा एकाकी जीवन
साथी, स्नेह सहारा!
2. ‘बूढ़ा चाँद’ कविता
बूढ़ा चांद
कला की गोरी बाहों में
क्षण भर सोया है ।
यह अमृत कला है
शोभा असि,
वह बूढ़ा प्रहरी
प्रेम की ढाल ।
हाथी दांत की
स्वप्नों की मीनार
सुलभ नहीं,-
न सही ।
ओ बाहरी
खोखली समते,
नाग दंतों
विष दंतों की खेती
मत उगा।
राख की ढेरी से ढंका
अंगार सा
बूढ़ा चांद
कला के विछोह में
म्लान था,
नये अधरों का अमृत पीकर
अमर हो गया।
पतझर की ठूंठी टहनी में
कुहासों के नीड़ में
कला की कृश बांहों में झूलता
पुराना चांद ही
नूतन आशा
समग्र प्रकाश है।
वही कला,
राका शशि,-
वही बूढ़ा चांद,
छाया शशि है।
महाकवि रबीन्द्र नाथ टैगोर द्वारा लिखी गई कविता ‘जन-मन-गण’ देश का राष्ट्रगान बन गई और देशभक्ति की एसी ही निर्मल भावना ओत-प्रोत पंत ने भी अपनी कविता ‘राष्ट्र गान’ लिखी। आप यहाँ पढ़ सकते हैं,
3. ‘राष्ट्र गान’ कविता
जन भारत हे!
भारत हे!
स्वर्ग स्तंभवत् गौरव मस्तक
उन्नत हिमवत् हे,
जन भारत हे,
जाग्रत् भारत हे!
गगन चुंबि विजयी तिरंग ध्वज
इंद्रचापमत् हे,
कोटि कोटि हम श्रम जीवी सुत
संभ्रम युत नत हे,
सर्व एक मत, एक ध्येय रत,
सर्व श्रेय व्रत हे,
जन भारत हे,
जाग्रत् भारत हे!
समुच्चरित शत शत कंठो से
जन युग स्वागत हे,
सिन्धु तरंगित, मलय श्वसित,
गंगाजल ऊर्मि निरत हे,
शरद इंदु स्मित अभिनंदन हित,
प्रतिध्वनित पर्वत हे,
स्वागत हे, स्वागत हे,
जन भारत हे,
जाग्रत् भारत हे!
स्वर्ग खंड षड ऋतु परिक्रमित,
आम्र मंजरित, मधुप गुंजरित,
कुसुमित फल द्रुम पिक कल कूजित
उर्वर, अभिमत हे,
दश दिशि हरित शस्य श्री हर्षित
पुलक राशिवत् हे,
जन भारत हे,
जाग्रत् भारत हे!
जाति धर्म मत, वर्ग श्रेणि शत,
नीति रीति गत हे
मानवता में सकल समागत
जन मन परिणत हे,
अहिंसास्त्र जन का मनुजोचित
चिर अप्रतिहत हे,
बल के विमुख, सत्य के सन्मुख
हम श्रद्धानत हे,
जन भारत हे,
जाग्रत् भारत हे!
किरण केलि रत रक्त विजय ध्वज
युग प्रभातमत् हे,
कीर्ति स्तंभवत् उन्नत मस्तक
प्रहरी हिमवत् हे,
पद तल छू शत फेनिलोर्मि फन
शेषोदधि नत हे,
वर्ग मुक्त हम श्रमिक कृषिक जन
चिर शरणागत हे,
जन भारत हे,
जाग्रत् भारत हे!
4. ‘दो लड़के’ कविता
मेरे आँगन में, (टीले पर है मेरा घर)
दो छोटे-से लड़के आ जाते है अकसर!
नंगे तन, गदबदे, साँबले, सहज छबीले,
मिट्टी के मटमैले पुतले, – पर फुर्तीले।
जल्दी से टीले के नीचे उधर, उतरकर
वे चुन ले जाते कूड़े से निधियाँ सुन्दर-
सिगरेट के खाली डिब्बे, पन्नी चमकीली,
फीतों के टुकड़े, तस्वीरे नीली पीली
मासिक पत्रों के कवरों की, औ\’ बन्दर से
किलकारी भरते हैं, खुश हो-हो अन्दर से।
दौड़ पार आँगन के फिर हो जाते ओझल
वे नाटे छः सात साल के लड़के मांसल
सुन्दर लगती नग्न देह, मोहती नयन-मन,
मानव के नाते उर में भरता अपनापन!
मानव के बालक है ये पासी के बच्चे
रोम-रोम मावन के साँचे में ढाले सच्चे!
अस्थि-मांस के इन जीवों की ही यह जग घर,
आत्मा का अधिवास न यह- वह सूक्ष्म, अनश्वर!
न्यौछावर है आत्मा नश्वर रक्त-मांस पर,
जग का अधिकारी है वह, जो है दुर्बलतर!
वह्नि, बाढ, उल्का, झंझा की भीषण भू पर
कैसे रह सकता है कोमल मनुज कलेवर?
निष्ठुर है जड़ प्रकृति, सहज भुंगर जीवित जन,
मानव को चाहिए जहाँ, मनुजोचित साधन!
क्यों न एक हों मानव-मानव सभी परस्पर
मानवता निर्माण करें जग में लोकोत्तर।
जीवन का प्रासाद उठे भू पर गौरवमय,
मानव का साम्राज्य बने, मानव-हित निश्चय।
जीवन की क्षण-धूलि रह सके जहाँ सुरक्षित,
रक्त-मांस की इच्छाएँ जन की हों पूरित!
-मनुज प्रेम से जहाँ रह सके, मानव ईश्वर!
और कौन-सा स्वर्ग चाहिए तुझे धरा पर?
5. ‘करुणा’ कविता
शब्दों के कंधों पर
छंदों के बंधों पर
नहीं आना चाहता ।
वे बहुत बोलते हैं ।
तब ?
ध्यान के यान में
सूक्ष्म उड़ान में,
रुपहीन भावों में
तत्व मात्र गात्र धर
खो जाऊँ?
अर्थ हीन प्रकाश में
लीन हो जाऊँ ।
तुम परे ही रहोगी ।
नहीं,…
तुम्हीं को बुलाऊँ
शब्दों भावों में
रूपों रंगों में,
स्वप्नों चावों में,-
तुम्हीं आओ
सर्वस्व हो ।
मैं न पाऊँगा
नि:स्व हो ।
6. ‘वाचाल’ कविता
‘मोर को
मार्जार-रव क्यों कहते हैं मां’
‘वह बिल्ली की तरह बोलता है,
इसलिए ।’
‘कुत्ते् की तरह बोलता
तो बात भी थी ।
कैसे भूंकता है कुत्ता,
मुहल्ला गूंज उठता है,
भौं-भौं ।’
‘चुप रह !’
‘क्यों मां ?…
बिल्ली बोलती है
जैसे भीख मांगती हो,
म्या उं.., म्या उं..
चापलूस कहीं का ।
वह कुत्ते की तरह
पूंछ भी तो नहीं हिलाती ‘-
‘पागल कहीं का ।’
‘मोर मुझे फूटी आंख नहीं भाता,
कौए अच्छे लगते हैं ।’
‘बेवकूफ ।’
‘तुम नहीं जानती, मां,
कौए कितने मिलनसार,
कितने साधारण होते हैं ।…
घर-घर,
आंगन, मुंडेर पर बैठे
दिन रात रटते हैं
का, खा, गा …
जैसे पाठशाला में पढ़ते हों ।’
‘तब तू कौओं की ही
पांत में बैठा कर ।’
‘क्यों नहीं, मां,
एक ही आंख को उलट पुलट
सबको समान दृष्टि से देखते हैं ।-
और फिर,
बहुमत भी तो उन्हीं का है, मां ।’
‘बातूनी ।’
7. ‘चींटी’ कविता
चींटी को देखा?
वह सरल, विरल, काली रेखा
तम के तागे सी जो हिल-डुल,
चलती लघु पद पल-पल मिल-जुल,
यह है पिपीलिका पाँति! देखो ना, किस भाँति
काम करती वह सतत, कन-कन कनके चुनती अविरत।
गाय चराती, धूप खिलाती,
बच्चों की निगरानी करती
लड़ती, अरि से तनिक न डरती,
दल के दल सेना संवारती,
घर-आँगन, जनपथ बुहारती।
चींटी है प्राणी सामाजिक,
वह श्रमजीवी, वह सुनागरिक।
देखा चींटी को?
उसके जी को?
भूरे बालों की सी कतरन,
छुपा नहीं उसका छोटापन,
वह समस्त पृथ्वी पर निर्भर
विचरण करती, श्रम में तन्मय
वह जीवन की तिनगी अक्षय।
वह भी क्या देही है, तिल-सी?
प्राणों की रिलमिल झिलमिल-सी।
दिनभर में वह मीलों चलती,
अथक कार्य से कभी न टलती।
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