सत्यजीत रे की फिल्मों से मेरा प्रथम परिचय 'गुपी गाइन, बाघा बाइन' से हुआ। उस वक़्त एक किशोरी होने के नाते, इस फ़िल्म की जादुई दुनिया में मैं इस कदर खो गयी थी, कि भूतों के राजा पर मेरा विश्वास भगवान से भी बढ़कर हो गया था।
इसके बाद शोनार केला और फेलूदा ने सत्यजीत रे की अजब-गजब कहानियों से जोड़े रखा।
उनकी कहानियां बेशक कल्पनाओं की चरम सीमा पर पहुंचा देती हो, पर उनका आधार हमेशा मानवीयता से ही जुड़ा होता था।
ऐसी ही एक काल्पनिक कहानी है अनुकूल की, जो उनकी साइंस-फिक्शन जॉनर की एक लघु कहानी है।
1976 में लिखी गयी इस कहानी पर सुजॉय घोष ने एक शार्ट फ़िल्म बनाई है। सत्यजीत रे की इस अद्भुत लघुकथा पर आधारित इस फिल्म का नाम है 'अनुकूल'।
फिल्म की कहानी एक शिक्षक की है जो अपनी जिंदगी को आसान बनाने के लिए 'अनुकूल' नाम के रोबोट को घर ले आते है। फ़िल्म में जिस रोबोट को ख़रीद कर वो किसी की नौकरी छीन लेते हैं, वैसे ही एक दिन किसी रोबोट की वजह से उनकी नौकरी छीन ली जाती है।
हैरानी की बात यह है कि टेक्नोलॉजी की चरम सीमा पर पहुंचकर, जिन बातों का डर हमें आज सता रहा है, उस डर को, उस ख़तरे को स्ताय्जीत रे आज से 43 साल पहले ही भांप चुके थे।
फ़िल्म में बताया गया है कि टेक्नोलॉजी हमारी चेतना को किस तरह बनावटी चेतना में बदलती जा रही है। तो आइए इस जटिल मनोविज्ञान को समझने के लिए देखते है 'अनुकूल' -
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