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Home गुजरात इस महिला ने तीन सालों में बनवा दिए 87 तालाब, लाखों खानाबदोशों को दिलाया पहचान पत्र!

इस महिला ने तीन सालों में बनवा दिए 87 तालाब, लाखों खानाबदोशों को दिलाया पहचान पत्र!

ताकी हमारी आने वाली पीढ़ी को न पढ़ना पड़े - "एक था तालाब"!

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इस महिला ने तीन सालों में बनवा दिए 87 तालाब, लाखों खानाबदोशों को दिलाया पहचान पत्र!

"ज़िंदगी में सिर्फ़ अपनी गति बढ़ाने के अलावा, और भी बहुत कुछ है!"
अहमदाबाद में स्थित 'विचरता समुदाय समर्थन मंच' (वीएसएसएम) संगठन के दफ्तर में लगी गाँधीजी की एक तस्वीर पर लिखी हुई यह बात, आज के समय की हक़ीकत बयाँ करती है। इस हक़ीकत को समझते तो सब हैं लेकिन इसके लिए कुछ करने वाले लोग विरले ही हैं।

इन विरले लोगों में ही मित्तल पटेल का नाम भी शामिल होता है। वीएसएसएम संगठन की संस्थापक, जिन्होंने गुजरात में 28 विचरती जातियों (खानाबदोश) को न सिर्फ़ नाम दिलाया है, बल्कि देश में पहचान भी दिलाई है। 'विचरती जातियां' यानी कि ऐसे लोग जिनके पास न तो कोई पहचान है, न ही कोई स्थायी घर और पता। बरसों से ये लोग दर-दर की ठोकरें खाते हुए, यहाँ से वहां और वहां से न जाने कहाँ-कहाँ का सफर करते हैं।

हम सबने अपने जीवन में एक न एक बार तो ऐसे लोगों को देखा होगा, बस कभी ध्यान नहीं दिया क्योंकि इनका होना या न होना किसी के लिए मायने नहीं रखता।

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Mittal Patel, Founder of VSSM

ठिठुरती रात ने दिया ज़िंदगी का मकसद 

मेहसाणा के एक समृद्ध किसान परिवार से आने वाली मित्तल ने भी कभी नहीं सोचा था कि देश में ऐसे भी लोग होंगे, जिनकी कोई पहचान ही न हो। उनका तो एक ही सपना था कि उन्हें आईएएस अफ़सर बनना है। साल 2004 में मित्तल, गुजरात विद्यापीठ से अपनी मास्टर्स कर रही थीं और इसी दौरान, एक फ़ेलोशिप के लिए उन्हें गन्ने के खेतों में मजदूरी करने आने वाले आदिवासी लोगों के जीवन पर स्टडी करने का प्रोजेक्ट मिला।

"सूरत से कुछ दूरी पर था वह गाँव, जहां मुझे जाना था और मुझे कहा गया था कि वो लोग टेंट में रहते हैं। तब तक मेरे लिए टेंट का मतलब था कि जैसे आर्मी टेंट होते हैं... वैसा कुछ होता होगा। इसलिए मैं अपने साथ सिर्फ़ पहनने के कपड़े लेकर गयी, कोई चादर नहीं, कम्बल नहीं। लेकिन जब मैं वहां पहुंची और मैंने तिरपाल की छोटी-छोटी झोपड़ियाँ देखी, तो लगा कि मैं कहाँ आ गयी हूँ," अपने सफ़र के बारे में बात करते हुए मित्तल ने कहा।

इस तरह की परिस्थितियों में भी लोग रहते हैं और जीते हैं- यह मित्तल का पहला अनुभव था। फिर भी जैसे-तैसे उन्होंने खुद को सम्भाला और उन लोगों के बारे में उनके कांट्रेक्टर से पूछने लगीं। उन्होंने मन बना लिया थी कि बस अब वह वहां नहीं रुकेंगी और शाम को वापस चली जाएंगी। वह बात कर ही रही थीं कि एक उनमें से एक मज़दूर, अपने डेढ़-दो साल के बेटे को गोद में लेकर रोते-रोते वहां आया और अपनी आदिवासी बोली में कुछ कहने लगा।

मित्तल बताती हैं कि उन्हें बाद में पूछ-ताछ करने पर पता चला कि वह मज़दूर और उसकी पत्नी कहीं जा रहे थे।  तभी दो लोग बाइक पर आये और उसकी बीवी को अगवा करके ले गए। जब उसने उन्हें रोकना चाहा तो उन्होंने उसे बहुत मारा और बच्चे को कांटे की झाड़ियों में फेंक दिया।

"इस बात को बात सुनकर मैं सदमे में थी क्योंकि मुझे लगा कि थोड़ी देर पहले मैं भी उसी रास्ते से आई हूँ, यह मेरे साथ भी हो सकता था। फिर मैंने सोचा कि अब मैं शाम को तो वापिस उस रास्ते से नहीं जा सकती। इसलिए मैं सुबह जाऊंगी और मैंने वहीं पर उन आदिवासी औरतों से पूछा कि क्या मैं उनके साथ रुक सकती हूँ?"

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the struggle wasn't easy but Mittal faced every problem

मित्तल के लिए वो एक रात बहुत भारी थी क्योंकि सर्दी का मौसम था और उनके पास न तो गर्म कपड़े थे और न ही कुछ ओढ़ने के लिए। जैसे-तैसे वह रात तो बीत गयी पर पूरी रात मित्तल उस मज़दूर और उसकी बीवी के बारे में सोचती रहीं। सुबह जब उठीं तो उन्होंने देखा कि सब कुछ सामान्य था। किसी ने पुलिस में शिकायत तक नहीं की थी। सब हर दिन की तरह अपना-अपना काम कर रहे थे।

जब उन्होंने पूछा तो उनसे कहा गया कि अगर वे पुलिस के पास गये तो पुलिस उन्हें ही पीटेगी, क्योंकि उनकी न तो कोई पहचान है और न ही कोई ठिकाना। इसके बाद, मित्तल ने अपने स्तर पर कोशिश की और उस इलाके के पुलिस अफ़सर और वरिष्ठ अधिकारीयों से मिली। पर हर जगह उन्हें एक ही जवाब मिला कि 'कुछ नहीं हो सकता'।

"उसके बाद आईएएस बनने का सारा जोश चला गया। मुझे लगा कि जिन्हें सबसे ज़्यादा ज़रूरत है अगर मैं उनकी आवाज़ ही नहीं बन सकती तो क्या फायदा? बस वो एक घटना थी जिसने मेरे अंदर बहुत कुछ बदल दिया। उसके बाद मैंने ऐसे विकल्प तलाशने शुरू किए, जहां मैं इन लोगों के लिए कुछ कर सकती," मित्तल ने आगे बताया।

आख़िर कौन हैं 'विचरती जातियां' और 'क्रिमिनल समुदाय'

इन जातियों में ऐसे समुदाय आते हैं, जिन्हें बरसों पहले अपनी जगहों से विस्थापित होना पड़ा क्योंकि उनका रोज़गार उनसे छिन गया। जैसे की सांप का खेल दिखाने वाले लोग, तवा-चिमटा जैसे लोहे के बर्तन बनाने वाले लोग, चाकू की धार तेज करने वाले लोग, तमाशा दिखाने वाले नट या फिर बंजारे, जो कि ऊँटों पर लादकर सामान पहुंचाते थे।

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मित्तल ने अपनी पढ़ाई के बाद 'जनपद' नामक एक संगठन के साथ इन 'बेनाम जातियों' के ऊपर एक रिसर्च प्रोजेक्ट पर काम करना शुरू किया। सरकारी दस्तावेज़ों से उन्हें पता चला कि ऐसी 28 जातियां हैं और इनके अलावा 12 ऐसे समुदाय भी हैं जिन्हें 'क्रिमिनल कम्युनिटी' कहा जाता है क्योंकि ब्रिटिश सरकार के जमाने में उन्हें कानून में यह नाम दिया गया। और आज़ादी के इतने सालों बाद भी उन्हें उनकी सही पहचान नहीं मिली।

"मैंने एक सरकारी दफ़्तर में इनके बारे में पूछा कि इनका पता बता दो, मुझे जाना है इनसे मिलने। तो उन्होंने हंसते हुए कहा, 'बिना पते वाले लोगों का पता पूछ रही हैं आप।' इस बात ने मुझे प्रेरित किया कि आखिर क्यों इन लोगों का कोई स्थायी पता नहीं हो सकता," उन्होंने आगे बताया।

'बिना पते के लोगों को दिया पता'

इसके बाद मित्तल ने हर दिन गुजरात के गाँव छान-छान कर इन लोगों को ढूंढा। इनसे मुलाक़ात की। जानने की कोशिश की, कि वे कैसे इनके लिए ज़िंदगी में कोई बदलाव ला सकती हैं। उन्होंने इलेक्टोरल ऑफिस में लगातार चक्कर काटे और उन्हें इन लोगों का वोटर कार्ड बनाने के लिए कहा। उन्होंने सिर्फ़ इन लोगों के पहचान पत्र बनवाने के लिए 'विचरता समुदाय समर्थन संगठन' की स्थापना की, ताकि पहचान पत्र के आवेदन के लिए उन्हें एक स्थायी पता मिल सके।

"गुजरात में लगभग 50 लाख जनसंख्या है इन लोगों की। इनमें से हमने 90% से ज़्यादा लोगों को पहचान पत्र दिलाये हैं। बाकी काम भी चल रहा है। अब तो पॉलिसी भी है कि बिना घर वालों का भी वोटर कार्ड बन सकता है," मित्तल ने जानकारी दी।

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She has given an identity to 28 nomadic tribes

सिर्फ़ पहचान ही नहीं, मित्तल अपने संगठन के ज़रिए इन लोगों को बेहतर रोज़गार के अवसर देने का भी प्रयास कर रही हैं। उनका संगठन इन लोगों को बिना किसी ब्याज के लोन देता है ताकि ये अपना कोई छोटा-मोटा व्यापार कर सकें। अब तक 2600 से भी ज़्यादा परिवारों को वह इस तरह से सपोर्ट कर चुकी हैं।

इन समुदायों की आने वाली पीढ़ियों के साथ कोई अन्याय न हो, इसलिए ज़रूरी है कि बच्चों को शिक्षित किया जाए। वीएसएसएम फ़िलहाल 250 से ज़्यादा बच्चों की शिक्षा का कार्यभार संभाल रहा है। अहमदाबाद में इन बच्चों के रहने के लिए दो हॉस्टल भी हैं, एक लड़कियों के लिए और दूसरा लडकों के लिए।

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जल-संरक्षण तक कैसे पहुंची पहल

अपनी मुहीम को आगे बढ़ाने के लिए मित्तल कुछ साल पहले गुजरात के बनासकांठा जिले में पहुंची, जहाँ के वाडिया गाँव में 'सरानिया जाति' के लोग रहते हैं। उन्हें रोज़गार के लिए कुछ ज़मीन उन्होंने दिलवाई ताकि वे खेती कर सकें। लेकिन पानी न होने के कारण उन्हें काफ़ी मुसीबतें झेलनी पड़ रही थीं। ऐसे में, मित्तल ने सोचा कि आख़िर क्या किया जाये?
बस फिर क्या था, उन्होंने एक नया अभियान छेड़ दिया- पानी बचाओ, पानी बढाओ का। उन्होंने तालाबों को फिर से जीवित करने की पहल शुरू की।

इन तालाबों की वजह से इन गांवों में अब वर्षा जल संचयन हो रहा है और साथ ही, भूजल स्तर में भी इजाफा हुआ है।

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साल 2015 में उन्होंने आसोदर नामक एक गाँव में जैसे-तैसे करके 7 तालाब खुदवाए थे। फिर जब 2017 में गुजरात में भारी बारिश आई और बाढ़ आ गयी तो इस गाँव में बारिश का सारा पानी इन तालाबों में चला गया। इससे गाँव बाढ़ से भी बच गया और पानी भी स्टोर हुआ।

आसोदर के उदाहरण के बाद, जिले के गांवों से लोगों ने मित्तल के पास आना शुरू कर दिया।

"लोग आते तो थे और चाहते थे कि हम उनके गाँव में तालाब खुदवाएं। लेकिन वे अपनी तरफ से कुछ खर्च नही करना चाहते थे। इसलिए मैंने हमेशा यह शर्त रखी कि इस काम में गाँव के लोग बराबर की भागीदारी लेंगे। चाहे चंदा इकट्ठा करना हो या फिर तालाब के रख-रखाव में श्रमदान हो।"

मित्तल ने अब तक 47 गांवों में 87 तालाब खुदवाए हैं। उनकी यह पहल अभी भी जारी है क्योंकि उनका उद्देश्य पूरे गुजरात में भूजल स्तर को बढ़ाना है।

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वह कहती हैं,"मैं नहीं चाहती कि हमारी आने वाली पीढ़ी अपनी किताबों में 'एक था तालाब' पढ़े। हमें अपने पुराने तरीकों को फिर से अस्तित्व में लाना होगा तभी हम कुछ कर पाएंगे। वरना जानते तो सब हैं कि तीसरा विश्व युद्ध पानी के लिए होगा, तो क्या हम उस युद्ध का इंतज़ार कर रहे हैं?"

मित्तल का उद्देश्य सिर्फ़ यहीं तक सीमित नहीं है बल्कि वह पानी के ज़रिए कुछ बेनाम और बेघर समुदायों को घर भी दिला रही हैं। मित्तल जिस भी गाँव में तालाब खुदवाने का काम करती हैं, वहां की ग्राम पंचायत से अपने गाँव में 'विचरती जातियों' या फिर 'क्रिमिनल कम्युनिटी' के नाम से मशहूर बेनाम परिवारों को घर देने के लिए भी कहती हैं।

यह मित्तल जैसे लोगों की कोशिशें ही हैं कि अब केंद्र सरकार ने इन जातियों और समुदायों के लिए एक वेलफेयर बोर्ड के गठन का आदेश दिया है। जनवरी, 2019 में मित्तल ने सरकार को इस संदर्भ में एक रिपोर्ट भेजी थी और इसके बाद, फरवरी में, 'डेवलपमेंट एंड वेलफेयर बोर्ड फॉर डीनॉटीफाईड, नोमेडिक एंड सेमी- नोमेडिक कम्युनिटीज' के गठन की घोषणा की गयी। मित्तल को इस बोर्ड के सदस्य के तौर पर नियुक्त किया गया है।

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नारी शक्ति सम्मान, सेवा शिरोमणि सम्मान जैसे ढ़ेरों सम्मान अपने नाम लिख चुकीं मित्तल पटेल के संघर्ष और जज़्बे को द बेटर इंडिया सलाम करता है।

यदि मित्तल के संघर्ष ने आपके दिल को छुआ है और आप उनसे जुड़ना या फिर संपर्क करना चाहते हैं तो उनकी वेबसाइट देखने के लिए यहाँ पर क्लिक करें!

संपादन - मानबी कटोच 

Summary: Mittal Patel, the founder of the Nomadic Tribes organization, working in Gujarat's Banaskantha District on water conservation. She has managed to make 87 ponds in 47 villages of the district. Once this district has been declared as 'Dark Zone' because of the low level of groundwater. But Mittal's efforts have been changing the picture now and more and more people are coming to her for such initiative in their villages.


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