हैदराबाद के एक व्यवसायी सुनीथ रेड्डी, शहर की भीड़-भाड़ से कहीं दूर एक सीधी-सादी जिंदगी जीना चाहते थे। शहरी जीवन उन्हें रास नहीं आ रहा था। प्रकृति के नजदीक रहकर, वह उसे महसूस करना चाहते थे। सुनीथ ने द बेटर इंडिया को बताया, “बहुत सारे लोगों की तरह मैं भी अपने शहरी जीवन और रहन-सहन से थक गया था और फिर मैंने इससे दूर जाने का फैसला कर लिया। मैं प्रकृति से जुड़ना चाहता था और इसके लिए खेती करना मुझे बेहतर विकल्प लगा।”
साल 2015-16 के बीच, वह बेंगलुरु में जमीन के छोटे से टुकड़े पर जैविक खेती करने लगे। लेकिन जल्द ही उनके सामने समस्याएं आनी शुरू हो गईं। उन्हें खेती की जमीनी हकीकत समझ आने लगी।
जब छोटे किसानों की चुनौतियों के बारे में जाना
वह बताते हैं, “छोटे किसानों के सामने आने वाली चुनौतियों के बारे में मैं काफी कुछ जान गया था। व्यक्तिगत तौर पर मैंने कई किसानों से बातचीत की। बहुत से लोगों ने खेती के लिए जमीन खरीदी थी और वीकेंड फार्मिंग कर रहे थे। इनमें से कुछ तो सफल रहे, लेकिन कई लोग कुछ सालों तक समस्याओं से जूझने के बाद हिम्मत हारकर बैठ गए थे। बार-बार सामने आने वाले खर्चे, मज़दूरों को संभालना और जरूरी चीजों पर खर्च, उन्हें आर्थिक रूप से कमजोर बना रहा था और इसके अलावा भी बहुत सी चुनौतियां थीं, जिनका उन्हें सामना करना पड़ रहा था।”
उन्होंने कहा “इस सब के बावजूद, अगर फसल हो भी जाती थी, तो रिजल्ट उतना अच्छा नहीं मिल पा रहा था।” किसानों से बातचीत करने के बाद सुनीथ को पता चल गया था कि वीकेंड खेती की अपेक्षा पूर्णकालिक खेती से जुड़े किसान ज्यादा सफल रहे हैं। वह कहते हैं, “ बड़े किसान या कहें कि जो किसान बड़ी जमीन पर खेती कर रहे थे, उनकी सफलता की दर कहीं ज्यादा थी। लेकिन सभी लोग तो जमीन का एक बड़ा हिस्सा खरीद नहीं सकते। तब मेरे मन में छोटे-छोटे किसानों को सामूहिक रूप से एक साथ जोड़कर जैविक खेती करने का विचार आया। मुझे लगा कि इस पर काम किया जा सकता है।”
और फिर छोड़ दी नौकरी
साल 2017 में सुनीथ ने एक बड़ा फैसला लिया, जिसने उनकी जिंदगी को बदलकर रख दिया। उन्होंने अपने जैसे विचारों वाले लोगों को एक साथ जोड़ने के लिए सामुदायिक वन परियोजना बनाई और इसे नाम दिया ‘बी फॉरेस्ट’। इस योजना को आगे बढ़ाने के लिए सुनीथ ने अपनी जमी-जमाई नौकरी छोड़ दी थी।
आईआईटी मद्रास के पूर्व छात्र का कहना है कि शुरुआत में उनके दोस्त शौर्य चंद्रा के अलावा, सिर्फ पांच अन्य लोग इस योजना से जुड़े थे। उन्होंने इसके लिए हैदराबाद में जमीन तलाशना शुरू कर दिया। उन्हें लगभग 10 एकड़ जमीन की जरूरत थी। वह कहते हैं, “हम सभी ने एक साथ जमीन के छोटे-छोटे हिस्सों पर काम करना शुरु कर दिया। शुरुआती परिणाम काफी अच्छे रहे। इसके बाद हम अपनी सामुहिक खेती का विस्तार करने लगे। एक साल के अन्दर हमारी इस योजना से काफी लोग जुड़ गए और धीरे-धीरे संख्या बढ़ती चली गई।”
उन्होंने बताया, “रिजेनरेटिंग खेती के जरिए बिजली, पानी और खाने की जरुरतों को पूरा करते हुए हमने एक स्थाई वन और रहने के लिए जगह बना ली।”
प्रकृति से नहीं करते छेड़-छाड़
वह बताते हैं, “ऐसे बहुत से लोग हैं जो शहरी जिंदगी को छोड़, प्रकृति के नजदीक रहना चाहते हैं। यह स्टार्टअप उन्हें आत्मनिर्भर जंगल में, अपनी एक जगह बनाने में मदद करता है। यहां बने घरों के आस-पास कई तरह के पेड़-पौधे और फसल तो हैं ही। साथ ही ये घर स्थानीय चीज़ों से बने आधुनिक सुविधाओं वाले हैं।”
सुनीथ ने बताया, “यहां जानवरों के नेचुरल हैबिटेट और उनके रास्ते में किसी तरह की कोई बाधा नहीं डाली जाती। दरअसल, यहां स्थानीय समुदाय के जीवन को प्रभावित किए बिना, प्रकृति के साथ तालमेल बिठाकर अपना जीवन यापन किया जाता है।“
उनके अनुसार, इस सामुदायिक खेती को पर्माकल्चर के सिद्धांतों के आधार पर तैयार किया गया है। जहां मौजूदा उपलब्ध संसाधनों का बेहतर तरीके से इस्तेमाल किया जाता है।
मिल-जुलकर करते हैं काम
सुनीथ आगे बताते हैं, “परंपरागत खेती करने के तरीके के बिल्कुल उलट, यहां जमीन किसी एक व्यक्ति के पास न होकर समूह के स्वामित्व में होती है। इससे जुड़ा हर व्यक्ति जल निकायों, पहाड़ियों, जंगलों, खेतों और जंगल के अन्य हिस्सों में कहीं भी आ जा सकता है। यहां सामुहिक रूप से मिल-जुलकर काम किया जाता है।”
वह बताते हैं कि सामूहिक तौर पर तैयार किए गए चार्टर्ड कोर्स के जरिए ग्रुप से जुड़े सभी किसानों को कैसे और क्या करना है, इसकी जानकारी दी जाती है। साथ ही खेती से होने वाली कमाई को कैसे आपस में बांटना है ये भी तय किया जाता है। सुनीत ने बताया कि यह समुदाय स्थानीय किसानों को उनकी खेती के सही मूल्य दिलाने और उन्हें सही बाजार में ले जाने में भी मदद करता है।
दरअसल, वे नई उद्योग क्षमता की संभावना पैदा करने के लिए एक नेटवर्क के रूप में भी काम कर रहे हैं।
आत्मनिर्भर समूह
सुनीत का दावा है कि उनका यह समूह पूरी तरह से आत्मनिर्भर है। ऊर्जा की खपत कम से कम करते हैं। घर बनाने के लिए स्थानीय सामग्री पर ज़ोर दिया जाता है। रोज़मर्रा की जिंदगी ग्रामीण जीवन शैली से प्रेरित है। जहां आसपास पानी है, उसी जगह पर हमने अपना रैन-बसेरा बनाया हुआ है।”
वह कहते हैं, “हमें इससे क्या मिल रहा है? अगर इसकी बात करें तो बदले में हमें ताज़ी शुद्ध हवा, साफ पानी, कम ध्वनी प्रदूषण और सेहत के गुणों से भरपूर खाना मिल रहा है। इसके अलावा इसमें और भी बहुत कुछ जोड़ा जा सकता है, जैसे- समुदाय द्वारा साझा किए जाने वाले एक समान मूल्य और क्षेत्र, जमीन और खेती के तरीकों की समझ आदि।”
उनके इस स्टार्टअप से फिलहाल 160 सदस्य जुड़े हैं, जो कुर्ग और हैदराबाद के पुमाले में 400 एकड़ के सामुदायिक वन का हिस्सा हैं। सुनीथ बताते हैं, “मुंबई और चिकमंगलूर के पास दो और सामूहिक योजनाओं पर काम चल रहा है, जो सामुहिक खेती की जमीन को एक हजार एकड़ तक बढ़ा देगी। फिलहाल यह समुदाय कॉफी, मोरिंगा, बाजरा, केला और बहुत सी फसल उगा रहा है।
शुरुआत में सदस्यों को समझाना था थोड़ा मुश्किल
बी फॉरेस्ट से जुड़े एक सदस्य क्रांति कक्काबे ने बताया कि उन्हें अपने दोस्तों से इस समुदाय के बारे में पता चला था। वह कहते हैं, “मेरे कुछ दोस्त हैदराबाद के समूह से जुड़े हुए थे। मुझे यह विचार काफी अच्छा लगा। मैं और मेरी बीवी हमेशा से प्रकृति के नजदीक रहना चाहते थे। इस योजना का सबसे बेहतरीन पहलू है कि यहां किसी भी व्यावसायिक लाभ के लिए खेती नहीं की जाती।” क्रांति बताते हैं कि सभी सदस्य सामूहिक रूप से प्रकृति को बचाने और उसके संरक्षण की योजना बनाते हैं।
सुनीथ ने बताया कि शुरुआत में सदस्यों को सामुदायिक खेती करने के बारे में समझाना थोड़ा मुश्किल था। उन्होंने बताया, “खरीदारों को यह बताना बड़ा मुश्किल हो जाता है कि यह सिर्फ उनकी खेती की जमीन नहीं है और न ही यह कोई रियल एस्टेट वेंचर है। कोई नया कॉन्सेप्ट कैसे काम करेगा यह समझाने में काफी समय लगता है। मुझे पता था कि जब तक वे खुद अनुभव नहीं करेंगे, तब तक इसे नहीं समझ पाएंगे। इसलिए शुरुआत के एक साल तक हम, उन किसानों का पूरा साथ देते रहे।
आखिर में उन्होंने बताया, “पिछले कुछ दशकों से सस्टेनेबिलिटी की तरफ ध्यान ही नहीं दिया जा रहा है। यह समय प्रकृति के साथ फिर से जुड़ने और मनुष्य व प्रकृति के समग्र विकास के लिए रूप रेखा बनाने का है।”
मूल लेखः हिमांशु नित्नावरे
संपादनः अर्चना दुबे
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