भारतीय इकोलॉजिस्ट, डॉ. देबल देब के मुताबिक, भारत में साल 1970 तक लगभग 1 लाख 10 हज़ार चावल की किस्में थीं लेकिन आज मुश्किल से सिर्फ 6 हज़ार किस्में ही बची हैं। जिनमें से भी हर दिन कोई न कोई किस्म लुप्त हो रही हैं। इस स्थिति के लिए बहुत से कारण हैं जैसे, हरित क्रांति, ज़्यादा उत्पादन की होड़, प्रशासन की अनदेखी और किसानों का जागरूक नहीं होना आदि। आज भी कृषि संस्थानों या फिर कृषि विभाग की तरफ से इन देशी किस्मों को सहेजने या बचाने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाये जा रहे हैं।
ऐसे में, कुछ किसान हमारे लिए उम्मीद की किरण बनकर उभर रहे हैं जो अपने निजी प्रयासों से अलग-अलग अनाजों और सब्ज़ियों आदि की देशी किस्मों को सहेजने के प्रयासों में लगे हैं। आज हम आपका परिचय करवा रहे हैं पुदुचेरी के करैकल के रहने वाले 43 वर्षीय एम. भास्कर से। बीकॉम की पढ़ाई करने वाले भास्कर पिछले 25 सालों से खेती कर रहे हैं। अपनी 15 एकड़ की ज़मीन पर वह मुख्यतः धान उगाते हैं और साथ में, कुछ मौसमी सब्ज़ियां।
भास्कर की खेती की खासियत यह है कि वह धान की कोई एक किस्म नहीं उगा रहे हैं। सालों से उनकी कोशिश धान की पारम्परिक किस्मों को सहेजने की है। उनके प्रयासों की सफलता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि पिछले साल उन्होंने अपने खेतों में 113 किस्म के धान लगाये थे, जिनमें से 111 किस्मों की उन्हें अच्छी पैदावार मिली है।
भास्कर बताते हैं, “मैंने पुद्दुचेरी, तंजावुर और वृद्दचालम जैसे बहुत से इलाकों की यात्रा की। वहां के किसानों से मिला और उनसे इन अलग-अलग देशी किस्मों के बीज इकट्ठा किए। मैंने 113 किस्मों की नर्सरी तैयार की थी लेकिन दो किस्में नहीं उगी और बाकी सभी किस्मों से अच्छा उत्पादन मिला है।”
पिछले 15 सालों से भास्कर लगातार जैविक खेती कर रहे हैं और धान की फसलों में अलग-अलग तरह के प्रयोग करते रहते हैं। उनका कहना है कि वह पारम्परिक धान की किस्मों को सहेजने के साथ-साथ दूसरे किसानों को भी जागरूक करना चाहते हैं। हमारे देश का सही भविष्य अपने मौसम और मिट्टी के हिसाब से देशी व पारंपरिक बीजों से खेती करने में है न कि हाइब्रिड किस्मों से।
उन्होंने काटुपोन्नी, मंजलपोन्नी, कंदसाली, कवराइ साम्बा, वादन साम्बा, करुप्पी कवुनी, थूया मल्ली, और थांगा साम्बा जैसी किस्में उगाई हैं। इनमें से कुछ की उन्होंने पहले नर्सरी बनाकर पौध तैयार की और फिर बुवाई की। बाकी कई किस्मों को उन्होंने सीधा खेतों में लगाया। जिन किस्मों को उन्होंने सीधा खेतों में लगाया, वह सभी कम पानी की किस्में थीं जो सूखा ग्रस्त क्षेत्र में भी उग सकती हैं।
एक साथ इतनी सारी धान की किस्मों को लगाने के लिए उन्होंने अपनी ज़मीन के अलावा और 15 एकड़ ज़मीन लीज पर ली। भास्कर के मुताबिक उन्हें 1 एकड़ से लगभग 50 किलोग्राम धान की उपज मिली है। उपज से भी ज्यादा उन्हें इस बात की ख़ुशी है कि उनके इन प्रयासों को पहचान मिल रही है। उनके इलाके के जिला प्रशासन ने उनकी पहल की सराहना करते हुए उनके खेतों में धान एग्जीबिहीशन रखा ताकि और भी किसानों व छात्रों को उनकी किस्मों के बारे में बताया जा सके। प्रशासन ने भास्कर को रोल मॉडल की पहचान दी है।
भास्कर बताते हैं कि जिला प्रशासन की वजह से ही उनकी कोशिश के बारे में लोगों को पता चला। उनके खेत में एक हफ्ते का प्रोग्राम भी रखा गया ताकि उनके आईडिया को आगे बढ़ाया जा सके। साथ ही, धान की इन किस्मों को बाज़ार तक पहुंचाने में भी जिला प्रशासन भास्कर की मदद कर रहा है। भास्कर की सफलता ने किसानों के लिए नए दरवाजे खोले हैं।
करैकल का कृषि विभाग यहाँ के जैविक किसानों का एक समूह बनाकर, उन्हें इस तरह के प्रयोगों के लिए प्रोत्साहित करने की योजना भी बना रहा है। भास्कर कहते हैं कि वह आगे भी इस दिशा में काम करते रहना चाहते हैं क्योंकि उनका उद्देश्य धान की पारम्परिक किस्मों को सहेजना और उनके बारे में जागरूकता फैलाना है।
द बेटर इंडिया एम. भास्कर के प्रयासों की सराहना करता है। अगर आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है और आप उनसे संपर्क करना चाहते हैं तो उन्हें 094435 73530 पर मैसेज कर सकते हैं!
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तस्वीर साभार: एनटॉनी फ़र्नांडो
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