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शाम को अगर फ़ोन-लैपटॉप और वेब-सीरीज के चस्के को छोड़कर घरवालों के साथ बैठें तो ऐसी बातें जानने को मिलती हैं, जो अब सब सिर्फ कहानियों में ही रह गई हैं। चंद रोज़ पहले की ही बात है, सब शाम की चाय पी रहे थे और अचानक दूध-दही को लेकर बात शुरू हो गई। वैसे तो हमारे घर में अभी भी गाँव से गाय-भैंस का दूध आता है पर फिर भी पापा को इस दूध में वो बात नहीं लगती जो उनके जमाने में हुआ करती थी।
"माँ, सुबह हांडी में दूध गर्म होने रख जाती थी हारे (अंगीठी) में और खेत पर काम करने चली जाती। हमारी स्कूल की आधी छुट्टी (लंच) होती तो हमें दूध के पास ही बोईया (रोटी रखने का बर्तन) में रोटी मिलती। तब कोई साग-सब्ज़ी की ज़रूरत ही नहीं लगती थी। हम हांडी में से दूध ले लेते और रोटी खाकर फिर से स्कूल पहुँच जाते," यह सब बताते हुए पापा की आँखों की चमक कुछ और ही थी। जब उनसे पूछा कि सुबह से दूध गर्म होने रखा गया तो क्या उफनता नहीं था?
इस पर मम्मी तपाक से बोली कि ये दूध उफनने का काम तो गैस के आने के बाद शुरू हुआ है। अंगीठी में पहले आंच इस तरह सेट की जाती थी कि दूध एकदम अच्छे से गर्म हो जाता, उस पर मोटी-सी मलाई पड़ जाती। न व उफनता था और न ही खराब होता था। हांडी में गर्म करने से उसका स्वाद भी बढ़ जाता था।
मेरी नानी के घर पर आज भी दूध ऐसे ही गर्म होता है। वो गाय-भैंस भी रखतीं हैं तो उनके लिए दलिया भी बड़ी से हांडी में ही अंगीठी पर बनता है। हांडी और अंगीठी से शुरू हुई कहानी के बाद तो जैसे झड़ी ही लग गई ऐसी पारंपरिक चीजों की, जो आज भी हमारे घरों में इस्तेमाल होती हैं।
ये चीजें न सिर्फ हमारे लिए बल्कि हमारे पर्यावरण के लिए भी बहुत अच्छा रहेगा। आज द बेटर इंडिया आपको ऐसे ही 10 पारंपरिक चीजों के बारे में बता रहा है!
1. सिलबट्टा
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आपको आज भी सिलबट्टा बहुत से घरों में मिल जाएगा। इससे अच्छा देसी ग्राइंडर या मिक्सर हो ही नहीं सकता।
लाल मिर्च, लहसुन, पुदीना हो या फिर नारियल, चटनी बनाने के लिए सबसे अच्छा विकल्प सिलबट्टा ही है। आजकल सभी घरों में बिजली या बैटरी से चलने वाले एडवांस्ड मिक्सर ग्राइंडर हैं और इनमें चटनी बनाने में ज्यादा समय भी नहीं लगता है। शायद कम समय और कम मेहनत की इसी सहूलियत की वजह से सिलबट्टे की जगह मिक्सर ने ले ली है।
लेकिन सिलबट्टा इस्तेमाल करने के बहुत से फायदे हैं। सबसे पहला तो यह कि सिलबट्टा पत्थर का बना होता है और इस पर चटनी बनाने से सभी मसलों का स्वाद बरकरार रहता है। दूसरा, यह एक्सरसाइज़ करने का भी सबसे अच्छा साधन है। अगर आप सिलबट्टे पर चटनी पीसते हैं तो आपका अच्छा व्यायाम हो जाता है।
और तीसरा किफायती फायदा यह है कि इससे आपकी बिजली की खपत भी बचती है। इस तरह से यह इको-फ्रेंडली भी है।
2. मिट्टी के बर्तन- कुल्हड़, हांडी, मटका आदि
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मिट्टी की खुशबू जिस तरह अनोखी है वैसे ही इसका स्वाद भी निराला है। आप कुल्हड़ में चाय पिएं या फिर मिट्टी के मटके का पानी, स्वाद अपने आप बढ़ जाता है। हमारे घर में पानी मटके में ही रखा जाता है और अगर कोई आयोजन हो तो दूध-चाय के लिए कुल्हड़ ही आते हैं।
पर कुल्हड़ की जगह पेपर कप या प्लास्टिक के डिस्पोजल ने ले ली लेकिन ये प्रदूषण बढ़ाने के अलावा और कोई काम नहीं करते। वहीं कुल्हड़ मिट्टी से बना है और पर्यावरण के अनुकूल है। अगर इन्हें पेंट न किया जाए तो ये और भी इको-फ्रेंडली रहते हैं।
कुल्हड़ इस्तेमाल करने के बहुत से फायदे हैं- पहला पर्यावरण के लिए बेहतर और दूसरा, इससे बहुत से लोगों को रोज़गार भी मिलता है। पहले जमाने में हर गाँव में मिट्टी के बर्तन बनाने वाले होते थे और उनकी बिक्री भी काफी अच्छी होती थी।
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लेकिन जैसे-जैसे प्लास्टिक के उत्पाद बाज़ार में आए, मिट्टी के बर्तनों की बिक्री कम हो गई क्योंकि इनका काफी ध्यान रखना पड़ता है। इस वजह से मिट्टी के कारीगरों का रोज़गार भी छीन गया। हालांकि, पिछले कुछ सालों लोगों में आई जागरूकता ने फिर से इन्हें एक अलग पहचान दी है। बहुत से उद्यमी इस क्षेत्र में काम करके नए-नए मिट्टी के उत्पाद बना रहे हैं जैसे कि मिट्टी की बोतल, प्रेशर कुकर और तो और मिट्टी का फ्रिज भी।
उम्मीद है मिट्टी के बर्तनों का जो चलन पिछले कुछ दशकों से कम हुआ है, वह फिर से शुरू होगा और लोग प्लास्टिक से ज्यादा महत्व कुल्हड़ आदि को देंगे।
3. खलीपत्र/पत्तल
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कुछ समय पहले ओडिशा के केंदुझर जिला प्रशासन ने प्लास्टिक क्राकरी पर रोक लगाते हुए साल के पत्तों से बने पत्तल/खलीपत्र और कटोरी आदि का इस्तेमाल करने का फैसला किया था। इससे उनका उद्देश्य प्लास्टिक प्रदूषण को रोकने के साथ-साथ ग्रामीणों को रोज़गार देना भी है।
पेड़ के पत्तों पर भोजन करना भारत की सबसे प्राचीन परम्पराओं में से एक है और आज भी कई हिस्सों में यह प्रचलित है। केरल में ओणम की सध्या थाली केले के पत्ते पर ही परोसी जाती है। कई बड़े आयोजनों में साल या पीपल के पत्तों से बनी पत्तल का इस्तेमाल होता है। और दोनों के बारे में तो हम सबको पता है।
किसी भी देसी चाटवाले के पास पहुँच जाएं, आज भी आपको प्लास्टिक की जगह साल के पत्तों के दोने ही मिलेंगे।
इसके साथ ही, पेड़ों के पत्तों एक इको-फ्रेंडली पैकेजिंग मटेरियल के तौर पर भी इस्तेमाल हो सकते हैं। बहुत-सी जगह केले के पत्तों को पैकेजिंग के लिए उपयोग में लिया जाता है। आप खुद भी घर पर पाटों से प्लेट-कटोरी आदि बना सकते हैं।
4. ठोंगा/कागज के प्लेट, बैग
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अगर आपने बचपन में झालमुरी खाई है तो आपको पक्का कागज के बने 'ठोंगे' के बारे में पता होगा। किसी भी कागज को जरा-सा मोड़कर तैयार होने वाला यह ठोंगा बड़ी ही काम की चीज़ है। किफायती होने के साथ-साथ यह पर्यावरण के अनुकूल भी है।
हालांकि, हमें अखबार पर कुछ भी खाने से बचना चाहिए क्योंकि कुछ रिसर्च के मुताबिक, अख़बार की प्रिंटिंग में इस्तेमाल होने वाली स्याही स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होती है। इसलिए आप वह ब्राउन रंग के बने लिफ़ाफ़े/खलते ही इस्तेमाल करें। बाकी अखबार को दूसरे सामान की पैकेजिंग के लिए इस्तेमाल किया जा सकता हैं।
5. चाकी/चकला
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जिस तरह सिलबट्टा पुराने जमाने में दादी-नानी की सेहत का राज हुआ करता था, वैसे ही यह चाकी या चकला भी है। अभी तो एल्क्ट्रोनिक चक्कियां जगह-जगह लग गई हैं और सब वहीं पर अपना अनाज, दाल आदि पिसवा लाते हैं या फिर बहुत से लोग सीधा आटा और तैयार दाल बाज़ार से लाते हैं।
लेकिन चाकी से आटा, दलिया या दाल पिसने का मजा कुछ और ही है। सबसे अच्छी बात यह है कि इससे आपकी अच्छी कसरत हो जाती है और आप अपनी ज़रूरत के हिसाब से गेहूं, चना, मुंग आदि की प्रोसेसिंग कर सकते हैं। अगर आप किसान परिवार हैं तो यह छोटी-सी चाकी आपके बहुत काम की चीज़ है।
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हरियाणा की एक किसान नीलम आर्या अपने घर में ही हाथ की चाकी से बाजरे आदि की प्रोसेसिंग करतीं हैं। इसके बाद उसे साफ़ कर पैकिंग करके ग्राहकों तक पहुंचाती हैं। उनके होममेड प्रोडक्ट्स की काफी मांग है। वह बताती हैं कि लोगों को अपने प्रोडक्ट्स के लिए आकर्षित करना का एक मुख्य साधन चाकी भी है। जब लोगों को पता चलता है कि उनके दलिए, दाल और बाजरे के आटे को घर पर ही चाकी से पीसा गया है तो वो एक बार तो उस प्रोडक्ट को इस्तेमाल करना चाहते ही हैं।
6. नारियल की छाल का जुना/स्क्रब
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आज भी बहुत-सी जगह बर्तन साफ़ करने के लिए नारियल के छिलके का इस्तेमाल होता है। यह काफी सस्टेनेबल विकल्प है। आपको बस नारियल के छिलकों को इकट्ठा करना है। अब इनमें से फाइबर को अलग-अलग करें ताकि आपको यह अलग-अलग धागे की तरह मिल जाए।
इन फाइबर्स को एक साथ आप गोल आकार देने की कोशिश करें और फिर इसे धागे की मदद से बाँध दें। आपका स्क्रब तैयार है। बहुत से इको-फ्रेंडली स्टोर नारियल के छिलकों को कॉम्प्रेस करके उनसे स्क्रब बना रहे हैं तो कई जगह इनसे लूफा भी बनता है। नारियल के छिलकों को बहुत से कामों के लिए उपयोग में लिया जा सकता है।
7. नारियल की झाड़ू
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साफ़-सफाई के लिए नारियल की झाड़ू का इस्तेमाल बहुत पुराना है। नारियल के पेड़ की टहनियों से बनी यह झाड़ू एकदम सस्टेनेबल है और यह घर के बाहर-भीतर की सफाई के लिए अच्छी भी है। पिछले कुछ सालों में प्लास्टिक की बनी झाड़ू का चलन बढ़ा है लेकिन फिर भी नारियल की झाड़ू की जगह यह नहीं ले सकती हैं।
खासतौर पर छोटे शहर और गांवों में आज भी नारियल की झाड़ू ही प्राथमिकता से इस्तेमाल होती है। इसके साथ-साथ बहुत से हाथ के कारीगरों का यह रोज़गार भी है। बाकी आप घर पर भी नारियल की झाड़ू बनाना सीख सकते हैं। इंटरनेट पर इसके ढ़ेरों विकल्प उपलब्ध हैं।
8. डोलची/दूध का डिब्बा
स्टील का यह बर्तन खासतौर पर दूध लाने के लिए उपयोगी है। भारत के गांवों और शहरों में अभी भी बहुत से ऐसे परिवार हैं, जहां लोग पैकेट का नहीं बल्कि गाय-भैंस रखने वालों से खुला और ताजा दूध लेकर आते हैं। जिस बर्तन में यह दूध लाया जाता है, उसे उत्तर भारत में डोलची कहते हैं।
इस बर्तन पर ढक्कन लगा होता है और पकड़ने के लिए हैंडल भी तो दूध को लाने-ले जाने और स्टोर करने के लिए यह अच्छा विकल्प है। साथ ही, प्लास्टिक के पैकेट्स से बहुत ही बढ़िया है। मिल्क-पाउच बनाने के लिए माइक्रो-ग्रेड प्लास्टिक का इस्तेमाल होता है और यह ज्यादा रीसायकल भी नहीं हो पाते क्योंकि हमारे देश में कोई भी ऐसी पालिसी नहीं है, जिससे कि ये मिल्क पाउच रीसायकलर्स तक पहुंचे। इसलिए ये ज़्यादातर लैंडफिल में जाते हैं।
इस प्रदूषण को रोकने का अच्छा विकल्प यही है कि जगह-जगह मिल्क बूथ या पार्लर शुरू किए जाएं। जहां से लोग अपनी ज़रूरत के हिसाब से खुला और ताज़ा दूध डोलची या किसी अन्य स्टील के बर्तन में ले आएं। पिछले साल, ओडिशा के गंजम जिले में एक मिल्क वेंडिंग मशीन शुरू की गई थी।
9. जूट का थैला
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आज भी खेतों में फसल कटने के बाद अनाज या दलहन को जूट के बड़े-बड़े बैग (जिन्हें आम भाषा में बोरी भी कहते हैं) में पैक किया जाता है। जूट की बोरियां इको-फ्रेंडली और सस्टेनेबल हैं। इन्हें आप बार-बार धोकर अलग-अलग काम के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं।
अनाज या दलहन को सुखाकर इनमें स्टोर भी किया जाता है। लेकिन सुपरमार्केट्स में आपको हर जगह सिर्फ प्लास्टिक ही प्लास्टिक दिखेगी। पर प्लास्टिक का कोई भी बैग जूट की बोरी को मात नहीं दे सकता। जूट की बोरी के बहुत से इस्तेमाल हैं, जो घरों में किए जाते हैं। स्टोरेज के अलावा, इन्हें काटकर इनसे बैठने के लिए चटाई आदि भी बनाई जाती है या फिर छत पर कुछ सुखाना हो तो यह कपड़े का अच्छा काम करता है।
इसके अलावा, बोरी को पायदान के तौर पर भी बहुत से घरों में इस्तेमाल किया जाता है। आप बस एक बोरी दहलीज पर डाल दीजिए और हफ्ते-दोह्फ्ते में इसे धोते रहिए। आपको अलग से पायदान खरीदने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। इसमें से आप पर्दे भी बना सकते हैं। गर्मियों में गाँव के घरों की खिडकियों पर आपको यही पर्दे मिलेंगे। जूट के इन पर्दों को आप बार-बार गीला करते रहिये और इससे बाहर की गर्म लू, ठंडी होकर अंदर आएगी।
10. ओखली-मुसल:
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मिक्सर-ग्राइंडर आने से पहले मसालों को कूटने-पिसने के लिए ओखली-मुसल का इस्तेमाल किया जाता था। वह कहावत सुनी है ना कि जब ओखली में सिर दे दिया तो मुसल से डर कैसा।
जो काम ओखल- मूसल कर सकता है वो कोई मिक्सर ग्रांडर नहीं कर सकता है। ग्राइंडर पीसकर पेस्ट बना सकता है लेकिन अगर आपको फ्रेश भुना हुआ जीरा या फिर अदरक अपनी मसाला चाय को बेहतरीन बनाने के लिए चाहिए है तो इनको पीसने का सबसे अच्छा काम ओखल- मूसल ही कर सकता है। यह सच है कि यह भारी होते हैं जिसके कारण इनको इस्तेमाल करने के लिए एक्सट्रा मेहनत लगती है लेकिन यह मेहनत रंग लाती है।
गांवों में आज भी लकड़ी या पत्थर से बने ओखली-मुसल का इस्तेमाल खड़े मसाले पिसने के लिए होता है। जब भी मुसल से मसालों को पिसा जाता है तो इनकी खुशबू पूरे घर में फ़ैल जाती है और इसकी बात ही अलग है।
11. दातुन
मेरी एक दोस्त हमेशा ही नीम की दातुन इस्तेमाल करने की सलाह देती है। अगर उसे हॉस्टल में कहीं भी नीम का पेड़ दिख जाता तो हम उसकी कुछ टहनियां और पत्तियां ज़रूर तोड़कर लाते। टहनियां दातुन बनाने के लिए और पत्ते गर्म पानी में डालकर नहाने के लिए।
दातुन करने से न सिर्फ डांट अच्छे से साफ़ होते हैं बल्कि मसूड़े मजबूत होते हैं। बाजार में तरह-तरह के माउथ फ्रेशनर आते हैं मगर नीम का दातुन नेचुरल माउथफ्रेशनर है। अगर आपके मुंह से दुर्गंध आती है तो नीम का दातुन इसे ठीक कर देता है। दातुन को आप पांच मिनट से लेकर 15 मिनट रोज करें।
नीम वैसे भी औषधीय पेड़ है और यह एन्टी-बैक्टिरीयल, एन्टी-फंगल गुणों से भरपूर है। इसका उपयोग बहुत-सी स्वास्थ्य संबंधी समस्यायों को ठीक करने के लिए किया जाता है।
हमारे देश में हर साल लगभग 150 मिलियन प्लास्टिक टूथब्रश कचरे में जमा होते हैं और इस प्रदुषण को देखते हुए, नीम की दातुन का नियमित उपयोग अच्छा विकल्प ही है।
इनमें से ऐसी कौन-सी चीज़ है जो आपके घर में इस्तेमाल होती है और ऐसा क्या है, जो आपके यहाँ नहीं है लेकिन आप उसे अपनाना चाहेंगे। हमें कमेंट्स में बताइए और इस लेख को अपने जानने वालों के साथ साझा करें!
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