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'मनैगोंदु मरा, ऊरिगोंदु थोपू,' यह कहना है मैसूर में रहने वाले हैदर अली खान का। जिसका मतलब है हर घर में पेड़ और हर गाँव में एक बगीचा हो। पिछले दो दशक में हैदर अली ने 2,232 पेड़ लगाए हैं और ये सभी पेड़ आज भी जीवित हैं।
हैदर अली के पौधारोपण की खास बात है कि वे सिर्फ पौधे लगाते नहीं हैं बल्कि अपनी तकनीकों का इस्तेमाल करके इन पेड़ों को शामियाना, पंडाल, और कैनोपी का आकार देते हैं। उन्होंने ईदगाह, स्कूल कैंपस से लेकर लोगों के घरों के सामने भी बहुत से पेड़ इस तकनीक से लगाए हैं।
साल 1999 में उन्होंने अपने इस काम की शुरूआत ईदगाह मैदान से की, जहां उन्होंने 313 पेड़ लगाए और उन्हें कुछ इस तरह उगाया कि आज वह एक शामियाने की तरह हैं। इनकी छाँव में बैठकर लगभग 12000 लोग नमाज अदा करते हैं।
शादी के मंडप को देखकर आया आईडिया:
60 की उम्र पार कर चुके हैदर बताते हैं कि जब वे छठी कक्षा में थे तभी उनके पिता का देहांत हो गया। इसके बाद उनकी पढ़ाई छूट गई और वह एक कॉटन फैक्ट्री में काम करने लगे। लगभग 10 साल तक उन्होंने काम किया और इसी दौरान उन्होंने कपास से बिस्तर बनाने वाली मशीन को देखकर अपना एक डिज़ाइन बनाया।
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"हम जिस मशीन पर काम करते थे, मैंने उसी से प्रेरणा लेकर एक नया डिज़ाइन तैयार किया। इसके बाद, मैं चेन्नई गया और वहां पर यह मशीन बनाने का काम करने लगा। मशीन बनाने के मुझे काफी ऑर्डर मिलने लगे, जिसके लिए मैं अलग-अलग राज्य गया," उन्होंने बताया।
हैदर ने बेंगलुरु, अहमदाबाद, भरूच, कोल्हापुर जैसे शहरों में लोगों के लिए इस मशीन का काम किया। वह बताते हैं कि जब वह गुजरात में थे तो अक्सर देखते थे कि लोग जगह-जगह पानी के मटके भरकर रखते हैं और साथ में अखबार। किसी राह चलते इंसान को प्यास लगे तो वह पानी पी ले। दो पल ठहरकर अख़बार पढ़ ले। इसी तरह लोगों ने बड़े-बड़े आविष्कार किए हैं ताकि समाज का भला हो।
"मैं भी सोचता था कि मुझे कोई ऐसा काम करना है जो समाज के लिए हो और पहले किसी ने न किया हो। मैं यही सोचता था कि मैं दूसरों के लिए क्या कर सकता हूँ? मेरी वजह से किसी को क्या मदद मिल सकती है। मन में ढेर सारी योजनाएं आती थी लेकिन मुझे पता था कि मेरी आर्थिक स्थिति मजबूत नहीं है। इस वजह से कई योजनाएं मन में ही रह गई," हैदर ने कहा।
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और आखिरकार, उन्हें एक दिन समझ में आया कि उन्हें क्या करना है। हैदर बताते हैं कि वह कोल्हापुर में अपनी बाइक पर सामान रखकर वर्कशॉप जा रहे थे, जहां उन्हें मशीन का काम करना था। बहुत गर्मी थी इसलिए वह रास्ते में रुक गए और वहां लगे पेड़ की छाँव में बैठ गए।
"कुछ ही पलों में मुझे वहां जो सुकून और ठंडक मिली, इसे मैं बयान नहीं कर सकता। फिर मैंने नारियल पानी पिया और वहीं बैठा रहा। अचानक मेरे मन में आया कि जो सुकून मुझे इन पेड़ों के नीचे बैठकर मिल रहा है, क्यों न वह सुकून दूसरों को दिया जाए और तभी मैंने पेड़ लगाने की ठानी," उन्होंने आगे कहा।
पेड़ लगाने का विचार तो मन में आ गया लेकिन अभी भी वह पल आना बाकी था, जिसकी वजह से उन्हें पेड़ लगाने की यह अनोखी तकनीक की प्रेरणा मिली। हैदर कहते हैं कि कोल्हापुर में उन्होंने काफी समय बिताया था। वहां वे एक विवाह समारोह में गए जहां उन्होंने मंडप पर पांडाल देखा, जिसकी वजह से लोग धूप से बचे हुए थे। साथ ही, इसकी ऊँचाई भी काफी थी तो किसी को कोई परेशानी नहीं हो रही थी। उसी क्षण उन्होंने अपने जेब से नपाई करने वाला टेप निकाला और पंडाल की लम्बाई-चौड़ाई मापने लगे।
"वह 12 फीट पर लगा था। मुझे समझ में आया कि अगर पेड़ों को इतना लम्बा किया जाए और नीचे की शाखाओं को काटकर, ऊपर की तरफ की शाखाओं को फैलाया जाए तो हम प्राकृतिक शामियाना बना सकते हैं। उसी दिन मैंने ठान लिया कि मुझे यही करना है," उन्होंने कहा।
ईदगाह से हुई शुरूआत:
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हैदर बताते हैं कि उन्हें समझ में आ गया था कि उन्हें क्या करना है लेकिन यह नहीं पता था कि कहाँ करना है। उन्हें यह प्रयोग करने के लिए ज़रूरत के हिसाब की ज़मीन चाहिए थी। यह ज़मीन उन्हें मिली मैसूर के ईदगाह मैदान में। साल 1998 था और ईदगाह मैदान में नमाज अदा करने के बाद, वहां के अध्यक्ष लोगों से बातचीत कर रहे थे। उसी विचार-विमर्श में उन्होंने बताया कि मैदान में वे काफी समय से पेड़-पौधे लगाने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन बच्चे वहां खेलने आते हैं और जानवर भी घूमते रहते हैं, जो छोटे पेड़ों को नुकसान पहुंचाते हैं।
इस वजह से ईदगाह मैदान में पेड़ नहीं लग पा रहा है। हैदर ने जब यह सुना तो उनके दिल ने उनसे कहा कि यही वह ज़मीन है, जहां से उनकी शुरुआत हो सकती है। वह तुरंत ईदगाह मैदान के अध्यक्ष से मिले और उन्हें अपना आईडिया बताया। पर उनसे एक ही सवाल किया गया , 'क्या उन्होंने पहले कभी ऐसा कुछ किया है?' जिसका जवाब था 'ना।' और इस वजह से समिति के अन्य सदस्यों ने उन्हें मना कर दिया।
पर हैदर कहाँ मानने वाले थे। वह लगातार ईदगाह के अध्यक्ष के संपर्क में बने रहे क्योंकि उन्हें बस काम करना था। अंत में ईदगाह समिति ने उन्हें मैदान की तीन एकड़ ज़मीन पर पौधे लगाने की अनुमति दे दी। साथ ही यह भी कहा गया कि अगर बीच में कभी भी उनके प्लान में कोई गड़बड़ लगी तो काम करने से रोक दिया जाएगा।
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हैदर ने अपना काम शुरू कर दिया। सबसे पहले एक उचित दूरी पर 313 गड्ढे खुदवाए। इनमें गोबर की खाद, लाल मिट्टी डाली गई और फिर करंज के पेड़ लगाए गए।
हैदर कहते हैं, "हमें ऐसे पेड़ चाहिए थे जो 12 फीट, 14 फीट तक बढ़ सकें। काफी रिसर्च करने पर पता चला कि करंज, सिंगापूर चैरी और जंगली बादाम, ऐसे तीन पेड़ हैं जिनके साथ हम काम कर सकते हैं।"
पेड़ों को लगाने, उनकी देखभाल करने और फिर उन्हें शामियाना स्टाइल देने की पूरी मेहनत हैदर अली ने खुद की। उन्हें ईदगाह समिति से थोड़ी-बहुत मदद मिली लेकिन इस प्रोजेक्ट में हैदर ने भी अपनी जेब से काफी पैसा लगाया था। लेकिन उन्हें यह प्रोजेक्ट करना था क्योंकि वह दुनिया को बताना चाहते थे कि ऐसा कुछ करना संभव है। 13 सालों बाद उनकी मेहनत रंग लाई और यह पेड़ों का प्राकृतिक शामियाना बनाकर तैयार हुआ, जहां 12000 लोग आराम से बैठ सकते हैं।
उनके इस प्रोजेक्ट के बारे में जब अख़बारों में छपा तो और भी लोगों ने उनसे संपर्क किया। हैदर बताते हैं कि उन्होंने एक स्कूल में भी अपनी मेहनत और पैसे से इस तरह का प्रोजेक्ट किया। लेकिन इस काम के दौरान, उनके अपने रोज़गार पर भी काफी असर पड़ता था और उनके पास अपनी आजीविका के लिए कोई ठोस साधन नहीं था।
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"फिर जब मेरे पास और स्कूल फ़ोन करने लगे तब मैंने उनसे गुजारिश की कि वे अगर मुझे कुछ आर्थिक रूप से मदद दे सकें तो अच्छा रहेगा। स्कूल प्रशासन और लोगों ने उनकी बात को समझा। इसके बाद, लोग खुद मुझे अपने घरों में, घर के सामने छाता स्टाइल या फिर शामियाना स्टाइल में पेड़ लगवाने के लिए बुलाने लगे और वह मुझे मेरे काम की फीस देते हैं," उन्होंने कहा।
उन्होंने अपने प्रोजेक्ट में 2000 से भी ज्यादा पेड़ लगाए हैं, जो सभी आज भी जीवित हैं।
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लोग उन्हें ग्रीन मैसूर, ग्रीन बादशाह, ग्रीन पंडाल मैन, और ग्रीन वारियर जैसे नामों से बुलाते हैं। उनका उद्देश्य स्पष्ट है कि वह छांव के लिए पेड़ लगाते हैं। अब वह अपनी नर्सरी में ही 8 से 10 फीट तक के पेड़ तैयार करते हैं और फिर इन्हें प्रोजेक्ट साईट पर लगाया जाता है। इसके बाद वे तकनीक के हिसाब से प्रूनिंग करते हैं और फिर शाखाओं को प्लास्टिक वायर्स की मदद से पेड़ के तने से बांधकर हॉरिजॉन्टल रूप से बढ़ाया जाता है।
अगर किसी को शामियाना चाहिए तो पेड़ों की शाखाओं को बढ़ने के बाद एक-दूसरे पेड़ की शाखाओं के साथ इंटरलॉक किया जाता है। अगर किसी को सिर्फ कैनोपी चाहिए तो हर एक पेड़ पर अलग-अलग रूप से काम किया जाता है। इस तरह से यह पेड़ ज्यादा छांव देते हैं और इनके नीचे अगर कोई वाहन आदि भी खड़ा किया जाए तब भी कोई परेशानी नहीं होती है।
आगे की योजना:
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पिछले कुछ महीनों से हैदर अली का कम रुका हुआ है क्योंकि उनकी तबियत सही नहीं थी। लेकिन इस दौरान भी उन्होंने अपनी एक योजना पर काम किया है। उनका कहना है कि अगर उन्हें कोई एक किलोमीटर रास्ते में जगह और साधन दे तो वह पेड़ लगाकर ही एक टनल बना सकते हैं। पेड़ों की यह प्राकृतिक टनल इतनी ऊंचाई पर होगी कि माल से भरे हुए ट्रक और डबल डेकर बस भी आसानी से इसके नीचे से निकल जाएंगी।
"मैं बस लोगों से यही अपील करता हूँ कि अगर किसी के पास इतने साधन हैं कि वह मेरी इस प्रोजेक्ट में मदद कर सकते हैं तो ज़रूर संपर्क करें। जिस भी राज्य और शहर में मुझे ये साधन मिल जाएंगे, मैं वहां काम करने के लिए तैयार हूँ," उन्होंने कहा।
हैदर अली कहते हैं कि उनके लिए पेड़-पौधे बच्चों की तरह हैं। जैसे हम बच्चों को नर्सरी से बड़ा करके अच्छे मुकाम तक पहुंचाते हैं वैसे ही पेड़ों को भी बड़े धैर्य से बड़ा करना चाहिए। उन्हें भले ही किसी प्रोजेक्ट में ज्यादा पैसे न मिले फिर भी वे मेहनत करते हैं।
उनका कहना है, "मुझे पैसों के लिए नहीं सुकून के लिए काम करना है। मेरे लिए मेरा नाम ज्यादा मायने रखता है जो इन पेड़ों के और मेरे काम के ज़रिए इस दुनिया से जाने के बाद भी जिन्दा रहेगा।"
अगर आपको हैदर अली की कहानी से प्रेरणा मिली है और आप उनकी योजना में मदद करना चाहते हैं तो उन्हें 9845159067 पर कॉल कर सकते हैं!
तस्वीर साभार: हैदर अली खान