मैं अब तक सिर्फ़ दो ही बार मुंबई गयी हूँ, बहुत भागता हुआ शहर लगता है यह मुझे। जहाँ किसी को किसी के लिए वक़्त नहीं, सब अपनी ज़िंदगी के सहेजने में इतने व्यस्त हैं कि किसी और के बारे में सोचने की फुर्सत कौन ले? लेकिन कई बार कुछ वाकये मजबूर कर देते हैं कि मुंबई की जो छवि खिंच गयी है मन में, वो धुंधला कर एक नया रूप लेने लगती है और मुंबई को और करीब से जानने की चाह होने लगती है।
कुछ दिन पहले एक मुंबईकर, दीपाली भाटिया ने अपने फेसबुक पर एक पोस्ट साझा की। उनकी पोस्ट तो भले ही चंद लाइन में खत्म हो गयी, पर वहीं से यह कहानी शुरू होती है।
कहानी है एक गुजराती कपल, अंकुश अगम शाह और अश्विनी शेनॉय शाह की, जो मुंबई नगरिया में दिन-रात अपना कल बनाने में जुटे हैं। साथ ही, इस सफर में किसी का आज संवारने की कोशिश भी कर रहे हैं। अश्विनी, ट्रंकोज़ टेक्नोलॉजीज प्राइवेट लिमिटेड कंपनी में टीम लीड बिज़नेस डेवलपमेंट की पोस्ट पर हैं और उनके पति, अंकुश, ग्रासरूट्स प्राइवेट लिमेटेड में बिज़नेस डेवलपमेंट मैनेजर हैं।
एक अच्छी-ख़ासी लाइफस्टाइल होने के बावजूद, ये दोनों पति-पत्नी हर सुबह कांदिवली स्टेशन वेस्ट के बाहर खाने का स्टॉल लगाते हैं। इस स्टॉल पर आपको 15 रुपये से 30 रुपये के बीच में टेस्टी और हेल्दी ब्रेकफ़ास्ट ऑप्शन जैसे पोहा, उपमा, पराठा आदि मिल जाएंगे। पोहा या उपमा की हाफ प्लेट 15 रुपये की और 2 पराठे आपको 30 रुपये में मिल जाएंगे। पर सवाल यह है कि इतने पढ़े-लिखे और कामकाजी लोगों को ये स्टॉल लगाने की क्या ज़रूरत?
इस सवाल का जवाब आपका दिल छू लेगा और इंसानियत पर आपका भरोसा और मजबूत कर देगा। अश्विनी बताती हैं कि 8 जून को उनकी सास का देहांत हो गया था। वो और अंकुश इससे उबर रहे थे और धीरे-धीरे ज़िंदगी पटरी पर वापिस आ रही थी।
“मम्मी के जाने के बाद हमारे लिए घर और काम सम्भालना मुश्किल हो रहा था। क्योंकि उनके होने से हमें घर की बातों की टेंशन नहीं लेनी पड़ती थी। धीरे-धीरे हम सब चीज़ें संभाल तो रहे थे पर फिर भी कुछ न कुछ रह जाता। इसलिए हमने फ़ैसला किया कि हम एक कुक रख लेते हैं,” उन्होंने आगे बताया।
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जुलाई से 55 वर्षीया भावना पटेल ने उनके यहां काम करना शुरू किया। भावना बेन बहुत अच्छे से, साफ़-सफाई से स्वादिष्ट खाना बनाती और उनके घर के अलावा वह और भी कई जगह काम करने जाती हैं।
“8 अगस्त को मेरी सास की तिथि थी और इसके लिए हमने सोचा कि कुछ थोड़ा-बहुत पोहा आदि बनवाकर हम गरीबों और ज़रूरतमंद लोगों में बाँट देंगे। इसलिए मैंने भावना बेन से ही पूछा कि क्या वो बना देंगी?”
भावना बेन ने तुरंत अश्विनी को हाँ कर दी। पर उनके पास सुबह इतना वक़्त नहीं होता कि वह उनके घर पर ही सब कुछ बना पातीं, इसलिए उन्होंने अश्विनी से कहा कि वह तिथि का खाना अपने घर पर बना देंगी, बस उन्हें या अंकुश को वो वहां से लाना पड़ेगा।
“पर जब अंकुश खाना लेने उनके घर पहुंचे तो हमें पता चला भावना बेन की परिस्थितियों का। उनके पति लकवाग्रस्त हैं और घर की सभी जिम्मेदारियां भावना बेन पर हैं। इसलिए मैंने और अंकुश ने तय किया कि हम उनकी कुछ आर्थिक मदद करते हैं और अगले दिन मैंने भावना बेन से पूछा कि उन्हें अगर कुछ ज़रूरत है,” अश्विनी ने कहा।
लेकिन भावना बेन ने बहुत ही खुद्दारी और विनम्रता से किसी भी तरह की आर्थिक मदद के लिए मना कर दिया। भावना ने उनसे कहा, “हम आज तक चाहे कितनी भी गरीबी में रहे लेकिन हमेशा कमाकर खाया। कभी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाए। अगर आप मुझे और काम दिलवा सकते हैं कि मैं खाना बना दूँ किसी के लिए तो वो सबसे बड़ी मदद होगी। मुझे अपनी मेहनत का ही पैसा चाहिए बस।”
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उनकी इस बात ने अश्विनी और अंकुश के मन को छू लिया। इसके बाद ही अंकुश और अश्विनी ने ऐसा रास्ता ढूंढा, जिससे कि भावना बेन का आत्म-सम्मान भी बना रहे और उनकी आय भी थोड़ी अधिक हो जाए।
“हमने यह स्टॉल लगाने का फ़ैसला किया। हम भावना बेन को सारा सामान लाकर दे देते हैं और वे फिर सारी चीज़ें तैयार कर देती हैं, जो हम यहाँ ग्राहकों को खिलाते हैं क्योंकि उन्हें तब दूसरी जगह भी जाना होता है काम करने। जो भी पैसे हम यहाँ कमाते हैं, उसमें से सिर्फ़ सामान का खर्च निकालकर बाकी सब भावना बेन को दे देते हैं।”
26 सितंबर से शुरू हुए उनके इस स्टॉल पर ग्राहकों का आना-जाना अच्छा है। अश्विनी कहती हैं कि फेसबुक पर पोस्ट के बाद उन्हें और भी ग्राहक मिलने शुरू हो गये हैं। बहुत लोगों ने सोशल मीडिया पर उन्हें सराहा तो बहुत से लोगों का ध्यान पोस्ट पढ़ने के बाद उन पर गया और अब वे नियमित रूप से आ रहे हैं।
सही ही कहते हैं कि अगर किसी काम को करने के पीछे आपकी नीयत साफ़ और सच्ची है तो सफलता के रास्ते अपने आप तय होने लगते हैं। हालांकि, अश्विनी और अंकुश के लिए अपनी प्रोफेशनल लाइफ के साथ-साथ यह करना आसान नहीं है। हर सुबह वे 3 बजे उठते हैं और फिर भावना बेन के साथ ब्रेकफ़ास्ट की तैयारी करते हैं। जब सारा खाना बन जाता है तो 5 बजे तक जाकर वे स्टॉल लगाते हैं।
सुबह 9:30 या फिर 10 बजे तक स्टॉल पर काम ख़त्म करके, वे घर पहुँचते हैं और वहां से तैयार होकर ऑफिस के लिए निकलते हैं। ऑफिस के बाद वे दूसरे दिन के लिए भी सब्ज़ी व अन्य सामान की शॉपिंग करते हुए आते हैं। शुरू-शुरू में तो उन्हें अपने इस रूटीन में काफ़ी थकान और परेशानी हुई, लेकिन एक बात ने उन्हें कभी भी रुकने नही दिया। और वह थी भावना बेन की मेहनत और संघर्ष।
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अश्विनी अंत में सिर्फ इतना कहती हैं,
“हम सबके घरों में कोई न कोई काम करता है और अक्सर हम अपने मूड के हिसाब से उनके साथ बर्ताव करते हैं। हम बहुत बार यह सोचते ही नहीं कि उनके घर में, उनकी ज़िंदगी में क्या चल रहा है? सबके जीवन में संघर्ष है और उनके जीवन में शायद हमसे ज़्यादा। इसलिए कोशिश करें कि अगर आप और किसी तरह से उनकी मदद नहीं कर सकते तो कम से कम उनसे अच्छा व्यवहार करें।
ऐसे ही, रास्ते में सड़क किनारे छोटे-मोटे स्टॉल-ठेले लगाने वालों से भी पैसे कम करवाने या फिर उनसे तल्ख लहजे में बात करने से पहले हमें सोचना चाहिए। पूरा दिन धूप में यूँ सड़क किनारे खड़े होना आसान नहीं होता। इसलिए हमें कोशिश करनी चाहिए कि हम इन लोगों से सम्मान से बात करें।”
अधिक जानकारी के लिए आप उन्हें उनके फेसबुक पेज पर संपर्क कर सकते हैं!
संपादन – मानबी कटोच