90 के दशक में बिहार के सुपौल जिले के सरकारी स्कूल की स्थिति बहुत बदहाल थी। क्लास में टूटी हुई बेंच और शिक्षकों का अभाव था। बच्चे फटी पुरानी किताबों से पढ़ाई करते थे। कुछ ऐसे ही माहौल में मनोज कुमार राय ने भी पढ़ाई की थी, जो आज भी उन दिनों को याद करते हैं।
स्कूल के दिनों में अक्सर उनके घर पर यह बात कही जाती थी कि पैसा, पढ़ाई-लिखाई से बढ़कर है और उन्हें पैसा कमाने पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए। शायद इसी विचार के साथ वह पढ़ाई पूरी होने के बाद नौकरी की तलाश में दिल्ली चले गए।
लेकिन दिल्ली आना एक बेहद महत्वपूर्ण निर्णय साबित हुआ। इससे न सिर्फ जीवन के प्रति उनकी सोच में बदलाव आया बल्कि उन्होंने अपनी मेहनत से 2010 में संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) की परीक्षा में ऑल इंडिया रैंक (AIR) 870 हासिल की और इंडियन ऑर्डनेंस फैक्ट्री (IFS) में नियुक्त हुए। ।
आज मनोज आईओएफएस(IOFS), कोलकाता में असिस्टेंट कमिश्नर के पद पर तैनात हैं।
लेकिन यह सफ़र इतना भी आसान नहीं है जितना यह सुनने में लगता है।
मनोज ने द बेटर इंडिया को बताया, "सच कहूँ तो मेरे लिए यह आसान था। दरअसल, मैं सही समय पर सही जगह पहुँच गया था। दिल्ली जाने के बाद कुछ ऐसे लोगों से मिला जो मेरे बहुत करीबी दोस्त बन गए। पढ़ाई को लेकर उनमें काफी जोश था। उन लोगों ने ग्रैजुएशन पूरा करने के लिए मुझे प्रोत्साहित किया। सोशल साइंस में मेरी काफी रुचि थी। यह देखकर दोस्तों ने मुझे सिविल सर्विसेज की तैयारी करने के लिए कहा। इस तरह मुझे एक सही मार्गदर्शन मिल गया।”
बिहार से दिल्ली तक का सफर
1996 में मनोज सुपौल से दिल्ली चले गए थे। वह शहर और वहाँ के लोगों से काफी प्रभावित हुए। उन्होंने इस उम्मीद में वहाँ रहने का फैसला किया कि धीरे-धीरे चीजें बेहतर होंगी। लेकिन कई नौकरियाँ ढूँढने के बाद भी उन्हें कोई काम नहीं मिला। फिर उन्होंने अपनी रोजी-रोटी चलाने के लिए अंडे और सब्जियों का ठेला लगाने का फैसला किया।
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उन्होंने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में राशन पहुँचाने का काम भी शुरू किया, वहाँ उनकी मुलाकात एक छात्र उदय कुमार से हुई। मनोज कहते हैं, “हम बिहार के एक ही क्षेत्र के थे और दोस्त बन गए। उन्होंने मुझे अपनी पढ़ाई पूरी करने की सलाह दी। मुझे लगा कि डिग्री हासिल करने के बाद मुझे एक अच्छी नौकरी मिल जाएगी। इसलिए मैंने श्री अरबिंदो कॉलेज (इवनिंग क्लासेज) में दाखिला लिया और अंडे और सब्जियाँ बेचते हुए वर्ष 2000 में बीए पूरा किया।”
इसके बाद उदय ने मनोज को यूपीएससी की परीक्षा देने का सुझाव दिया। “सच कहूँ तो मैं आगे और पढ़ना चाहता था लेकिन मेरी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। मैंने यह सोचने में कुछ दिन लगे कि क्या मैं सिविल सर्विसेज में जाकर ब्यूरोक्रेट के रूप में काम कर सकता हूँ। अंत में मैंने यूपीएससी की परीक्षा देने का मन बना लिया,” मनोज ने बताया।
2001 में जब मनोज अपनी तैयारी शुरू करने वाले थे, तभी उनके एक दोस्त ने पटना विश्वविद्यालय के भूगोल विभाग में पीएचडी लेक्चरर, रास बिहारी प्रसाद सिंह से मिलवाया, जो कुछ दिनों के लिए दिल्ली में थे। भूगोल में सिंह की विशेषज्ञता से प्रभावित होकर मनोज ने यूपीएससी के लिए वैकल्पिक विषय के रूप में भूगोल लिया और उनके मार्गदर्शन में तैयारी करने के लिए पटना चले गए।
वह अगले तीन साल तक पटना में रहे और 2005 में पहली बार यूपीएससी का एग्जाम दिया। वह अपना खर्च चलाने के लिए स्कूल के छात्रों को ट्यूशन पढ़ाते थे और साथ ही यूपीएससी कोचिंग सेंटर भी ज्वाइन किया।
दुर्भाग्यवश वह परीक्षा में असफल रहे और बिहार से वापस दिल्ली आ गए।
बार-बार असफल होने के बाद अंत में मिली सफलता
मनोज ने परीक्षा में हिंदी में उत्तर लिखने का विकल्प चुना। चूंकि हिंदी में पर्याप्त और सही अध्ययन सामग्री मौजूद नहीं थी। इसलिए हिंदी में परीक्षा देना अपने आप में काफी चुनौतीपूर्ण काम था।
लेकिन अपनी पसंद की भाषा में परीक्षा लिखने के विकल्प के साथ ही अभ्यर्थी को लैंग्वेज के दो विषयों की परीक्षा भी देनी होती थी। जिनमें से एक विषय अंग्रेजी था। यह उनके लिए सबसे बड़ी रुकावट थी। वह बताते हैं, “यूपीएससी में अंग्रेजी और क्षेत्रीय भाषा का पेपर क्लियर करना अनिवार्य था। जो अभ्यर्थी इन्हें क्लियर नहीं करता था उसके सामान्य अध्ययन और वैकल्पिक विषय की कॉपियों का मूल्यांकन नहीं होता था। हालाँकि लैंग्वेज का पेपर क्वालिफाइंग था जिसके नंबर फाइनल मार्कशीट में नहीं जुड़ते थे। मैं अंग्रेजी के पेपर में फेल हो गया और पूरे साल की मेरी मेहनत बर्बाद हो गई। अगले कई अटेम्प्ट में मैंने अंग्रेजी पर अधिक ध्यान दिया लेकिन मेंस और इंटरव्यू क्लियर नहीं कर पाया।”
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चौथे अटेम्प्ट तक मनोज 30 साल के हो चुके थे। उन्हें पता था कि 33 के बाद वह परीक्षा नहीं दे पाएंगे। इसलिए उन्होंने अपनी तैयारी की रणनीति को पूरी तरह से बदल दिया।
वह बताते हैं, “प्रीलिम्स के लिए पढ़ाई करने के बजाय मैंने सबसे पहले मेन्स का सिलेबस पूरा किया। इससे मैंने प्रीलिम्स के 80 प्रतिशत सिलेबस को कवर कर लिया। मैंने कक्षा 6 से 12 तक की एनसीईआरटी की किताबों को अच्छी तरह पढ़ा। जिससे सामान्य अध्ययन के लिए मेरा बेसिक कॉन्सेप्ट मजबूत हो गया।”
करंट अफेयर्स के लिए मनोज ने सिविल सेवा की मासिक पत्रिकाएँ और पुरानी खबरें भी पढ़ीं। अपनी अंग्रेजी सुधारने के लिए वह द हिंदू को रोजाना एक घंटे पढ़ते थे। वह नियमित निबंध और उत्तर लेखन का अभ्यास भी करते थे।
नई रणनीति काम कर गई और मनोज ने 2010 में यूपीएससी की परीक्षा पास की।
एक ऑफिसर के रूप में जीवन
मनोज की पहली पोस्टिंग उनके गृह राज्य बिहार के नालंदा जिले में राजगीर ऑर्डनेंस फैक्ट्री में एक प्रशासनिक अधिकारी के रूप में थी।
उन्होंने देखा कि सिविल सर्विस की तैयारी करने वाले बहुत से अभ्यर्थी कोचिंग का खर्च नहीं उठा पाते थे। तब मनोज ने हफ्ते के अंत में उन्हें मुफ्त में कोचिंग देने का फैसला किया। वह 110 किलोमीटर की दूरी तय करके नालंदा से पटना आते थे और अभ्यर्थियों को पढ़ाते थे।
2013 में अपने दूसरे प्रयास में बिहार लोक सेवा आयोग की परीक्षा पास करने वाले अरुण कुमार अपनी सफलता का श्रेय मनोज को देते हैं।
अरुण ने द बेटर इंडिया को बताया , “मनोज सर ने पढ़ाई में ध्यान केंद्रित करने, अनुशासन का पालन करने, और अध्ययन सामग्री के लिए रणनीति तैयार में मेरी बहुत मदद की। उन्होंने बताया कि हर छोटी चीज कितनी मायने रखती है। इसके अलावा उन्होंने मेरा मॉक इंटरव्यू भी लिया। मैंने ऑल इंडिया रैंक 397 हासिल की और वर्तमान में वैशाली जिले की हाजीपुर जेल में प्रोबेशन ऑफिसर के रूप में तैनात हूँ।”
अपनी पहली पोस्टिंग के दौरान मनोज अभ्यर्थियों को प्रेरित और गाइड करते रहे। लेकिन काम की व्यस्तता के चलते कुछ सालों बाद इसे बंद करना पड़ा। वह आज भी अपने अध्यापन और दिल्ली के दिनों को याद करते हैं और एक आईओएफएस ऑफिसर के रूप में अपने जीवन से संतुष्ट हैं।
मनोज बेशक एक लंबी यात्रा तय कर चुके हैं। लेकिन जब उनसे यह पूछा जाता है कि उन्हें कैसा लगता है तो वह कहते हैं, “केवल मेरी ज़मीन बदली है लेकिन मेरा जमीर अभी भी वही है। मैं अब भी उतनी ही कड़ी मेहनत करता हूँ और प्रभावी तरीके से अपना काम करने की कोशिश करता हूँ। मेरा मानना है कि हर व्यक्ति को अपने संघर्ष को एक अवसर के रूप में देखना चाहिए। सफलता इसी में छिपी है।”
मूल लेख-GOPI KARELIA
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