"इंसान अपने दिल और दिमाग से जो सोचता है वैसा ही वह व्यवहार करता है। पर क्या यह ज़रूरी है कि एक मनुष्य जिसने स्त्री योनि में जन्म लिया है, वो स्त्रियों जैसा ही व्यवहार करें? क्या कुदरत ने नियम बनाने वालों से कहा है कि लड़की को लड़कियों जैसा ही व्यवहार करना है और लड़के को लड़कों जैसा ही रहना पड़ेगा? किसने बनाये हैं ये नियम और किन लोगों ने तय किये हैं हमारे व्यवहार के दायरे?"
यह कहना है भुवनेश्वर की 30 वर्षीय सोनल प्रधान का जिन्होंने समाज के इन दक़ियानूसी क़ानूनों को ललकारा। एक साधारण सी ज़िंदगी की ख़्वाहिश रखने वाली सोनल कहती हैं कि एक ट्रांसवूमन के लिए ज़िंदगी कभी भी साधारण नहीं हो सकती। सेक्शन 377 भले ही सुप्रीम कोर्ट ने ख़ारिज कर दी हो लेकिन अब भी समाज का एक बहुत बड़ा अंश किन्नरों और ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों को स्वीकृति देने को राज़ी नहीं।
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अस्तित्व की लड़ाई
सूरज का शरीर लिए जन्मी सोनल को बचपन से ही लड़कियों के कपड़े पहनने और उनकी तरह दिखने का शौक था। बचपन का अल्हड़पन समझकर घरवालों ने इस बात को नज़रअंदाज़ तो कर दिया, लेकिन जैसे-जैसे वह बड़ी होती गयीं, उन्हें उनकी चाल-ढाल, पहनावे और हरकतों के लिए टोका जाने लगा।
"मैं 15 साल की थी जब मुझे एहसास हुआ कि मैं बाकी लड़कों जैसी नहीं हूँ। मुझे ना लड़कों के पहनावे सुहाते थे और ना ही उनकी तरह बर्ताव करना अच्छा लगता था। माता-पिता को असलियत से रूबरू कराने का वो दौर मेरे लिए काफ़ी संघर्षपूर्ण था। ना मेरे माता-पिता को मेरी बातें समझ में आ रही थी और ना ही मैं उनको समझ पा रही थी। एलजीबीटी (LGBT) का कॉन्सेप्ट उनके लिए काफ़ी नया और पेचीदा था। शुरुआत में उन्हें लगा कि मुझे कोई दिमागी बीमारी हो गयी है जो वक़्त और इलाज़ के साथ ठीक हो जाएगी लेकिन जैसे जैसे समय गुजरता गया, उन्हें मेरी बातों की गंभीरता का एहसास होने लगा। उन्होंने मेरा समर्थन तो नहीं किया, लेकिन मुझे छोड़ा भी नहीं। आज भी जब घर जाती हूँ तो उतने ही प्यार और इज़्ज़त के साथ मेरा स्वागत करते है!" - सोनल
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कई लोगों के बुरे बर्ताव के बाद भी सोनल ने कभी हार नहीं मानी और अपनी एक अलग पहचान बनाने में लगी रहीं। उन्होंने साल 2015 में अपना ग्रैजुएशन पूरा किया जो दरअसल साल 2010 में हो जाना चाहिए था।
ग्रैजुएशन के बाद उनके संघर्ष का दूसरा चरण तब शुरू हुआ जब उन्होंने नौकरी की तलाश शुरू की। हर बार बात उनकी पहचान पर आकर रुक जाती थी। ओडिशा की कोई भी कंपनी एक ट्रांसवुमन को नौकरी पर रखना नहीं चाहती थी। अगर कोई कंपनी राज़ी हो भी जाती तो सैलरी इतनी कम देती कि एक दिहाड़ी मज़दूर भी ना कर दे। जब किसी कंपनी ने उनकी योग्यता के लिए उनको रखा तो बाकी कर्मचारी उन्हें अजीब तरीके से देखते थे। नतीजा ये था कि उन्हें नौकरी कहीं भी नहीं मिली और जो मिली वो टिकी नहीं। इसके बाद वह एक प्लास्टिक इंजीनियरिंग कॉलेज के ट्रेनिंग प्रोग्राम से जुड़ीं, जहाँ उन्हें प्लास्टिक प्रोसेसिंग के बारे में सिखाया जाता था।
"चूंकि मुझे कहीं भी नौकरी नहीं मिल रही थी इसलिए मैंने ये शॉर्ट टर्म ट्रेनिंग प्रोग्राम करने का फैसला किया। ट्रेनिंग के दौरान मुझे लोगों से काफ़ी सहयोग और प्रशंसा मिली। छह महीने की ट्रेनिंग पूरी करने के बाद मुझे वहीं दूसरों को ट्रेनिंग देने के लिए रख लिया गया। वह पहली ऐसी जगह थी जहाँ किसी को मेरी पहचान से कोई आपत्ति नहीं थी," सोनल एक बड़ी सी मुस्कान के साथ कहती हैं।
उम्मीद की नयी सुबह!
अपनी एक अन्य ट्रांसजेंडर साथी के ज़रिए सोनल को प्राइड सर्कल के बारे में पता चला जो एशिया का पहला और सबसे बड़ा LGBT जॉब फेयर, राइज (RISE), को बंगलुरु में आयोजित कराने जा रहा था। उस ट्रेनिंग संस्थान में तकरीबन एक साल और आठ महीने काम करने के बाद सोनल ने आखिरकार बंगलुरु आने का सोचा।
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"मुझे हमेशा से भुवनेश्वर से बाहर किसी बड़े शहर में रहने और नौकरी करने की इच्छा थी, जहां मुझे मेरी पहचान के साथ स्वीकृति मिल सके। जहां कोई भेदभाव ना हो और मुझे भी समान अधिकार मिल सके। राइज (RISE) मेरे लिए किसी चमत्कार से कम नहीं था। एक ऐसा जॉब फेयर जो सिर्फ हम जैसों के लिए ही हो, जहाँ सब जानते हो कि हम किस वर्ग और समुदाय से आते हैं और फिर भी हमें निष्पक्षता के साथ अपनाया जाता है तो इससे अच्छा और क्या हो सकता है।"- सोनल
सोनल उस पल को याद करते हुए बताती हैं कि उन्हें उनकी पहली नौकरी का प्रस्ताव एक अंतरराष्ट्रीय कंपनी से मिला था। उस जॉब फेयर से न केवल उन्हें एक अच्छी कंपनी में काम करने का अवसर मिला बल्कि अपनी खुद की एक पहचान भी मिली जो शायद यूँ मुमकिन ना होता। उन्हें कई कंपनियों से नौकरी के प्रस्ताव आए। वह काफ़ी लोगों से मिली, उनके बारे में समझा और जाना कि सबकी अपनी एक संघर्ष की कहानी है। लेकिन प्राइड सर्कल जो उनके समुदाय के लिए कर रहा है उसके लिए वह वाकई शुक्रगुजार हैं।
देश में अपनी तरह की एकमात्र कंपनी प्राइड सर्कल का मुख्य लक्ष्य समाज में लैंगिक समानता और हर किसी के प्रति सम्मान लाना है। जॉब फेयर आयोजित करने के अलावा ये LGBT समुदाय के कौशल विकास और व्यक्तिगत विकास पर भी ध्यान देती है। साथ ही कंपनियों को सम्मिलित कर LGBT समुदाय के लोगों की हायरिंग में भी मदद करती है।सोनल को 247.ai कंपनी में काम करते हुए अब पाँच महीने हो चुके है। जब सोनल से पूछा गया कि क्या उन्हें अभी भी भेदभाव का सामना करना पड़ता है तो उन्होंने बड़े ही सरल तरीके से कहा,
"वैसे तो इसका कोई अंत नहीं लेकिन मेरी कंपनी मुझे काफ़ी सपोर्ट करती है। मेरी कंपनी के HR की सिफारिश पर मुझे रहने के लिए किराए पर एक अच्छा घर मिला। जब लोग मुझसे मेरी पहचान और बदलाव के बारे में पूछते है तो मुझे उन्हें बताना अच्छा लगता है। मुझे यह सोच कर ख़ुशी होती है कि मैं पहली ट्रांसजेंडर हूँ जो उनके साथ काम कर रही है। मैं इस बात के लिए तैयार रहती हूँ कि मुझे काफ़ी लोग नज़रअंदाज़ करेंगे।"
खुद रखी बदलाव की नींव
सोनल के कंपनी ज्वाइन करने के बाद जेंडर न्यूट्रल बाथरूम से लेकर कॉमन एरिया तक में काफी परिवर्तन किये गए। वह आगे बताती हैं, "ये देख कर अच्छा लगता है कि कंपनियां हमारे लिए इतना कुछ कर रही हैं। हमारे जेंडर या पहचान के बारे में न पूछ कर हमारे कौशल के लिए हमें नौकरियाँ दे रही हैं। संघर्ष है और चलता रहेगा, उन्हें मुझे पूरी तरह अपनाने में भी वक़्त लगेगा पर मैं हार नहीं मानूंगी। इंसान औरों से झूठ बोल सकता है लेकिन खुद की पहचान के साथ धोखा नहीं कर सकता। ये ज़िंदगी मैंने चुनी है, ये पहचान मैंने चुनी है और मैं किसी से डर कर या हार कर पीछे नहीं हटूंगी।"
अंत में सोनल बस इतना ही कहती हैं कि लोग डरते नहीं बल्कि कोशिश ही नहीं करना चाहते है। वह कहती हैं कि भला अपनी ही पहचान को स्वीकारने और जताने में डर कैसा! समाज के दबाव में आकर लोग एक ही नौकरी करते हुए ज़िंदगी गुज़ार लेते हैं और अंदर ही अंदर घूँटते रहते हैं। लेकिन वे लोग यह नहीं समझ पाते कि वे क्या खो रहे हैं।
सोनल बाकि पेरेंट्स को बस इतना ही कहना चाहती हैं कि "अपने बच्चों को अपनाए और उनके हौसले को बनाये रखे। एलजीबीटी होना इतना आसान नहीं। हम समाज से अपनी पहचान छुपाने के दौरान खुद को ही खो देते हैं और साथ ही अपने परिवार को भी। ऐसे में माता-पिता को बच्चों का सहारा बनना चाहिए।"
यदि आप सोनल से जुड़ना चाहते हैं तो फेसबुक के जरिए जुड़ सकते हैं। प्राइड सर्किल RISE के दूसरे अध्याय को लेकर दिल्ली आ रहा है। RISE एलजीबीटी समुदाय के लिए एशिया का सबसे पहला और सबसे बड़ा जॉब फेयर है जिसमें हर वर्ग और जाती के लोग बिना किसी एंट्री फ़ीस के आ सकते हैं। अगर आप एलजीबीटी समुदाय से हैं या किसी ऐसे को जानते हैं जो इस समुदाय से संबंधित है, तो उन्हें जॉब फेयर के बारे में ज़रूर बतायें!
संपादन- अर्चना गुप्ता