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यह साल हम सबके लिए बहुत ही मुश्किल रहा है - महामारी, लॉकडाउन, बेरोजगारी और भी न जाने क्या-क्या। लोगों ने इस साल बहुत कुछ खोया है। लेकिन साथ ही, ऐसे भी बहुत से लोग हैं जिन्होंने अपनी हद से आगे बढ़कर लोगों के लिए बहुत कुछ किया है। यह साल हमेशा याद किया जाएगा कि अंधेरा कितना भी गहरा क्यों न हो फिर भी उम्मीद की हल्की-सी रौशनी भी आपको इससे बाहर निकाल सकती है।
इस साल को याद करने पर शायद बहुत सी कड़वी यादें जहन में आएँगी। इसलिए आज जब हम साल के आखिरी पड़ाव पर हैं तो द बेटर इंडिया आपको इन कड़वी यादों के साथ कुछ उम्मीद के टुकड़े भी देना चाहता है। हम आपको उन लोगों की कहानियों से एक बार फिर रू-ब-रू करवाना चाहते हैं जिन्होंने इस मुश्किल समय में भी इंसानियत की मिसाल पेश की। ये सभी वही लोग हैं जो कोरोना के अँधेरे में हम सबके लिए उम्मीद की रौशनी बनकर बिखरे।
आने वाले साल में हमें इसी उम्मीद को साथ लेकर बढ़ना है ताकि हम इसी हिम्मत और विश्वास के साथ अपने कल को बेहतर बना सकें। द बेटर इंडिया आपको इंसानियत के ऐसे 10 नायकों से मिलवा रहा है जो दुनिया को बेहतर बनाने में जुटे हैं!
1. मुक्ताबेन दगली
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1995 में, मेनिनजाइटिस के कारण सात साल की उम्र में अपनी दृष्टि खो देने वाली मुक्ताबेन दगली ने अपने पति के साथ प्रज्ञाचक्षु महिला सेवा कुंज (पीएमएसके) की शुरुआत की। यह नॉन-प्रॉफिट संगठन गुजरात के सुरेंद्रनगर में स्थित है, जो नेत्रहीन लड़कियों को शिक्षा, भोजन, और आवास प्रदान करता है। अब तक, 58 वर्षीय दगली ने लगभग 200 लड़कियों के भविष्य को संवारा है। इसके अलावा, वह 30 दिव्यांग लोगों और 25 ऐसे बुजुर्गों की देखभाल कर रही हैं जिन्हें उनके परिवार ने छोड़ दिया।
मुक्ताबेन के लिए प्रेरणा का सबसे बड़ा स्रोत यह है कि उनके यहाँ लड़कियों को अच्छी देखभाल और शिक्षा मिलती है। फिर उनके लिए नौकरी और अच्छे जीवनसाथी ढूंढे जाते हैं। पद्मश्री से सम्मानित मुक्ताबेन कहतीं हैं कि अक्सर घरों में नेत्रहीन लड़की को बोझ समझा जाता है। लेकिन जब वह हमारी मदद से अपने पैरों पर खड़ी हो जाती है हमें बहुत ख़ुशी होती है।
2. डॉ. लीला जोशी
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1997 में रेलवे में मुख्य चिकित्सा अधिकारी के रूप में सेवानिवृत्त होने के बाद, डॉ. लीला ने अपने जीवन के दो दशक से भी ज्यादा समय मध्य प्रदेश के रतलाम जिले में आदिवासी महिलाओं (विशेष रूप से गर्भवती महिलाओं) की मदद और बच्चों में एनीमिया और कुपोषण की परेशानियों को हल करने में समर्पित किया। श्री सेवा संस्थान (एसएसएस), एनजीओ के माध्यम से, डॉ. लीला ने जिले में समग्र मातृ मृत्यु दर (एमएमआर) को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
वह कहतीं हैं, “मैंने अपने स्वयं के अनुभवों के बारे में लिखना शुरू किया, विशेष रूप से यह जवाब देने की कोशिश की कि सरकार, गैर सरकारी संगठनों और चिकित्सा विशेषज्ञों के प्रयासों के बावजूद रतलाम जिला एनीमिया का उन्मूलन क्यों नहीं कर पाया है। अपने लेखन में, मैंने इस बारे में ठोस समाधान भी प्रस्तुत किए हैं कि इस बारे में और क्या किया जा सकता है। हालांकि, सबसे ज्यादा संतुष्टि इस बात की है कि हमारे प्रयासों से आदिवासी लड़कियों और महिलाओं के स्वास्थ्य में सुधार आया है।"
3. शबनम रामास्वामी
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घरेलू हिंसा की यह 60 वर्षीया सर्वाइवर आज पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद के ग्रामीण इलाकों में हजारों के लिए उम्मीद की किरण है। आज वह गरीब परिवारों से आने वाली 1400 महिलाओं के लिए फ़रिश्ता हैं और उन्हें कान्था के पारंपरिक कढ़ाई शिल्प के माध्यम से सशक्त कर रही हैं। वह दो वैश्विक मानक स्कूलों का प्रबंधन भी करती है, और ऐसे 1,300 से अधिक बच्चों को शिक्षित करती है, जिनके लिए अच्छी शिक्षा पाना मुश्किल है।
वह कहतीं हैं कि इन महिलाओं के परिवारों की स्थिति को देखकर उनके मन में अपनी सुविधाओं को लेकर सवाल उठे। महामारी के कारण जब उनके स्कूल और महिलाओं की सामुदायिक यूनिट बंद हो गई तो उन्होंने अपने जानने वालों से बात करके और लोगों की मदद से लगभग 40 लाख रुपये जुटाए। उन्होंने मई से जुलाई तक इन परिवारों को पैसे के साथ सुखा राशन वितरित करने के लिए उस पैसे का इस्तेमाल किया। इसके बाद उन्होंने उनके लिए सड़क के किनारे एक रेस्तरां खोला। उन्होंने यह भी सुनिश्चित किया कि इन श्रमिकों और उनके परिवारों से सम्मान के साथ व्यवहार किया जाए।
"और ऐसी सफलता का क्या फायदा अगर हम कुछ लोगों के जीवन को आसान नहीं बना सकते? यह इन ज़रूरतमंद लोगों की कड़ी मेहनत, दृढ़ता और अटूट भावना है जो मुझे हमेशा और अधिक करने के लिए प्रेरित करती है, ”शबनम ने कहा।
4. रामभाऊ इंगोले
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पिछले 30 वर्षों में, नागपुर स्थित सामाजिक कार्यकर्ता रामभाऊ इंगोले ने सेक्सवर्कर्स के बहुत से बच्चों को बचाया है और उन्हें जीवन की नयी दिशा दी है। साल 1992 में बहुत सी समस्यायों को हल करने के बाद, उन्होंने अपने संगठन, 'आम्रपाली उत्कर्ष संघ' (AUS) को इन बच्चों के लिए भोजन, आश्रय, स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा प्रदान करने के लिए पंजीकृत किया। लेकिन इन बच्चों का अस्तित्व कुछ ऐसी जगह से जुड़ा था कि 2007 में उनके लिए आवासीय विद्यालय बनाने से पहले इंगोले को सात बार घर बदलना पड़ा।
उनके स्कूल ने सैकड़ों छात्रों को पढ़ाया है। एक बार जब वह स्कूल पूरा कर लेते हैं, तो रामभाऊ उन्हें अपनी पसंद का कॉलेज खोजने में मदद करते है। हाल के वर्षों में, इंगोले ने प्रवासी पत्थर खदान श्रमिकों, हाशिए पर रहने वाले आदिवासी परिवारों के और अनाथ बच्चों को भी अपने यहाँ रखना शुरू किया है। उनके छात्र आज शिक्षक और इंजीनियर बन गए हैं। फ़िलहाल, स्कूल में 157 बच्चे हैं।
उन्होंने कहा, ''महामारी ने हमें काफी प्रभावित किया। लेकिन लॉकडाउन के दौरान, जब स्कूल बंद हो गए, तो हमारे छात्रों ने पुलिस, सफाई कर्मचारियों और स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को वितरित करने के लिए लगभग 7,500 फेस मास्क बनाए। खराब नेटवर्क कवरेज के कारण हमारे आवासीय विद्यालय में ऑनलाइन शिक्षा मुश्किल है। हालांकि, लॉकडाउन के बाद, कुछ शिक्षक जो कैंपस में रुके थे, उन्होंने एक बार फिर से कक्षाएं लेना शुरू कर दिया।"
“30 से अधिक वर्षों में, हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि सेक्सवर्कर्स के बच्चों के प्रति हमारे समाज के दृष्टिकोण को बदलना रही है। मेरी दूसरी सबसे बड़ी उपलब्धि समाज को यह दिखाना रही है कि सेक्सवर्कर्स के बच्चे भी डॉक्टर और इंजीनियर बन सकते हैं," उन्होंने कहा।
5. नीलांजना चटर्जी
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5 सितंबर को, नीलांजना चटर्जी और उनके पति दीप देर रात अपनी बेटी के साथ कोलकाता में एक आयोजन से लौट रहे थे, जब उन्होंने एक महिला को सुनसान सड़क पर खड़ी कार से मदद के लिए चिल्लाते हुए सुना। उन्होंने देखा कि एक महिला को कार से धक्का दिया जा रहा है और वह तुरंत अपने वाहन से निकल उसे बचाने के लिए भागी। तभी मोटरसाइकिल पर सवाल एक आदमी ने उनका एक्सीडेंट कर दिया। बाइक उनके पैर के ऊपर से गई।
इतनी गंभीर चोट के बावजूद उन्हें अपने उस कदम पर कोई अफ़सोस नहीं है। हाल ही में उनकी आखिरी सर्जरी भी हो गई है जिससे वह आगे फिर से चल पाएंगी। वह कहतीं हैं, "मुझे उस महिला को बचाने का कोई पछतावा नहीं है। यदि आप किसी को अत्याचार से बचाने की कोशिश कर रहे हैं, तो हमेशा कुछ न कुछ रिस्क तो होगा ही। यदि आप केवल इन स्थितियों में रिस्क के बारे में सोचते हैं, तो आप कभी भी किसी को नहीं बचा पाएंगे। मैं केवल इतना चाहती हूँ कि अधिक से अधिक लोग आगे आएं और दूसरों को बचाने के लिए इस तरह के जोखिम उठाएं। इस बीच, मैं पीड़िता के लिए प्रार्थना करती हूँ कि वह आगे एक स्वस्थ और खुशहाल जीवन जिए।"
6. महेश जाधव
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उन्होंने हर तरह की मुश्किलों का सामना करते हुए कर्नाटक के बेलगावी में HIV+ और अनाथ बच्चों के लिए छात्रावास और स्कूल का निर्माण किया। महेश का यह सुरक्षित घर इन बच्चों को पोषण, स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा, प्यार और स्नेह प्रदान करता है। उनकी फाउंडेशन की वजह से आज यह बच्चे अपना स्कूल पूरा करके कोई न कोई वोकेशनल ट्रेनिंग या ग्रैजुएशन कर पा रहे हैं।
इसके अलावा, उनके प्रयासों के परिणामस्वरूप, 2,800 बच्चों सहित 38,000 से अधिक एचआईवी पॉजिटिव व्यक्तियों ने खुद को स्थानीय सरकारी अस्पताल में पंजीकृत कराया ताकि वे अपना इलाज शुरू कर सकें। ज़्यादातर लोग, कलंक के डर से, उपचार के लिए नहीं आते हैं या अपना नाम पंजीकृत नहीं करते हैं।
जब लॉकडाउन की घोषणा की गई थी, सरकार ने उन्हें HIV+ अनाथों के लिए छात्रावास बंद करने का आदेश दिया। “हमने इस फैसले को चुनौती दी। फिर हमें जिला कलेक्टर को दिखाया कि हम कैसे पूरी सावधानी बरत रहे हैं और फिर उन्होंने हमें अपना हॉस्टल खुला रखने की अनुमति दी। हमारे छात्रावास और अनाथालय के सभी कर्मचारी लॉकडाउन में भी काम कर रहे थे। हमारा स्कूल बंद नहीं था क्योंकि सभी बच्चे वहीं रहते हैं । शिक्षा विभाग ने कहा कि हम स्कूल जारी रख सकते हैं, लेकिन बाहर के बच्चों को आने की अनुमति नहीं होगी। हमारे यहाँ कोविड-19 का एक भी मामला सामने नहीं आया। अपने हालातों के बावजूद हमारे बच्चों की एक अच्छे और सम्मानीय जीवन के लिए उनकी इच्छा शक्ति ही है जो मुझे हर दिन उनके लिए काम करने को प्रेरित करती है," उन्होंने कहा।
7. अभिमन्यु दास
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कटक के 49 वर्षीय बुक-बाइंडर, अभिमन्यु दास लावारिस शवों का दाह संस्कार करते हैं और गरीब परिवारों को उनके प्रियजनों का अंतिम संस्कार करने में मदद करते है। इसके अलावा, दास पिछले एक दशक में हजारों कैंसर रोगियों की देखभाल कर रहे हैं, जिनमें से अधिकांश बेघर, परित्यक्त या बेहद गरीब हैं।
उन्होंने अपनी माँ को कैंसर में खोया है और इस वजह ने उन्हें इस काम के लिए प्रेरित किया। अब तक, उन्होंने 7,000 से अधिक कैंसर रोगियों की सेवा की और 1,300 शवों का दाह संस्कार किया। वह कहते हैं, "महामारी ने लोगों की सेवा करने के मेरे काम पर रोक नहीं लगाई। मैं उनकी सेवा क्यों न करूँ? उन्हें देखने वाला कोई नहीं है। जब मैं मदद के लिए जाता हूँ तो उनके चेहरे पर जो खुशी होती है, वह मुझे हर दिन उनके लिए काम करने के लिए प्रोत्साहित करती है।"
8. सैयद गुलाब
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लगभग चार साल पहले, सैयद ने राजीव गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ टीबी और चेस्ट डिजीज के परिसर के अंदर एक मुफ्त भोजन सेवा शुरू की, जो कि बेंगलुरु के जयनगर में इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ चाइल्ड हेल्थ (IGICH) से सटा हुआ है। जिस परिसर में वह स्टॉल लगाते हैं, उसमें कैंसर, टीबी, दुर्घटना-ग्रस्त और बच्चों सहित चार सरकारी अस्पताल हैं।
वह कहते हैं, "मैंने रोटी चैरिटी ट्रस्ट स्थापित किया और इसके तहत इन दिनों हम अस्पताल के बाहर हर दिन लगभग 160-180 लोगों को मुफ्त लंच और लगभग 200 लोगों को फ्री में नाश्ता कराते हैं। महामारी के चलते यह संख्या कम हो गई है। अन्यथा, हम हर दिन 300-350 लोगों को लंच और 300 से अधिक लोगों को नाश्ता कराते थे।"
सैयद कहते हैं, "लॉकडाउन के दौरान, हमने ज़ोमैटो के साथ साझेदारी में प्रवासी श्रमिकों को राशन वितरित किया, उन्होंने हमें 10,000 परिवारों के लिए राशन दिया, ताकि वह अपने राज्यों के लिए वापस न जाएं।"
देश में भूख बहुत बड़ी समस्या बन चुकी है और इस पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा रहा है। वह कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति एक-दो बेसहारा लोगों को खाना खिलाने की ज़िम्मेदारी उठा ले तो भी हम इस देश से भुखमरी को मिटा सकते हैं।
9. के. मनीषा
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पिछले दो वर्षों में, तमिलनाडु के इरोड जिले के नंदा कॉलेज ऑफ नर्सिंग की एकलेक्चरर, के. मनीषा (23) ने लगभग 250 भिखारियों, ड्रग एडिक्ट, बेसहारा और भयानक बीमारियों से पीड़ित लोगों को अथक रूप से बचाया और उनका पुनर्वास किया है।
वह बतातीं हैं कि लॉकडाउन के दौरान उनकी फाउंडेशन ने लगभग 84 बेसहारा लोगों को सड़क से ले जाकर एक सरकारी स्कूल में रखा। इसमें उन्हें पुलिस कमिश्नर से मदद मिली। इनमें से 52 को उन्होंने जॉब ढूंढने में मदद की है और 10 लोगों को अपने परिवारों से मिलवाया है। बाकी को उन्होंने नर्सिंग होम में भर्ती कराया। स्कूल में जब ये लोग रह रहे थे तो उन्हें साबुन, खाना, स्नैक्स और मास्क आदि दिया गया। साथ ही, मनीषा ने ऐसे लोगों का सर्वे किया जो सड़क पर रह रहे थे और इसे प्रशासन को सबमिट किया।
"युवा लड़की होने के कारण मैंने अपने काम में बहुत सी चुनौतियों का सामान किया है। मेरा परिवार मेरे इस काम का सपोर्ट नहीं करता है। लेकिन जब मैं इन लोगों के चेहरे पर मुस्कान देखती हूँ कि उनकी देखभाल करने वाला भी कोई है तो आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती है," उन्होंने कहा।
10. डॉ. सेरिंग नोरबू
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आप लेह में किसी से भी यहाँ के पहले प्रैक्टिस सर्जन, डॉ. सेरिंग नोरबू के बारे में पूछें और वह आपको बताएंगे कि कैसे उन्होंने अपन जीवन लोगों के लिए समर्पित कर दिया। इस सामान्य सर्जन ने पिछले एक दशक में 10 हज़ार से ज्यादा सर्जरी की हैं और वह उस आबादी के लिए जिन्होंने कभी मॉडर्न स्वास्थ्य व्यवस्था को नहीं जाना।
“इन दिनों, मैं सेवानिवृत्त हूँ, हालाँकि मैं उन डॉक्टरों को सलाह ज़रूर देता हूँ जिन्हें इसकी आवश्यकता है। मैंने अपना काम ऐसे समय में शुरू किया जब लद्दाख में कोई सर्जन नहीं था। क्षेत्र में बस मैं ही अकेला था और सभी लोग मुझ पर निर्भर थे। अब इससे ज्यादा मुझे और किस प्रेरणा की आवश्यकता थी," उन्होंने कहा।
द बेटर इंडिया समाज के इन नायकों को सलाम करता है क्योंकि इन्हीं से उम्मीद की लौ जिंदा है।
संपादन - जी. एन झा
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