अक्सर जब भी कोई अच्छे-खासे पैकेज की नौकरी या फिर सरकारी नौकरी छोड़कर कुछ अलग करता है तो हम सबका यही सवाल होता है कि क्या ज़रूरत है? बैक टू विलेज की को-फाउंडर, पूजा भारती से भी मैंने यही सवाल किया कि आख़िर क्यों उन्होंने अपनी नौकरी छोड़कर किसानी को चुना?
इस पर पूजा का जवाब बहुत ही स्पष्ट था- “सम्पन्नता के लिए।”
जी हाँ, सम्पन्नता! वह सम्पन्नता जो एक किसान को अक्सर गेंहू या फिर चावल की कटाई के दिन महसूस होती है। जब अनाज के ढेर उसके आँगन में लगते हैं।
32 वर्षीय पूजा बताती हैं, “मैं किसान परिवार से हूँ तो बचपन में गेंहू, चावल, 5 तरह की दालें, साग-सब्ज़ियाँ और फल वगैरह अपने खेतों में ही उगते देखा है मैंने। कभी बाहर से कुछ लाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी। उस वक़्त लगता था कि हम सम्पन्न हैं। लेकिन जैसे-जैसे शहर आए, नौकरी की, तो लगने लगा कि कुछ नहीं है हमारे पास।”
आईआईटी खड़गपुर (IIT Kharagpur) से केमिकल इंजीनियरिंग करने वाली पूजा भारती मूल रूप से बिहार के नालंदा जिले में कंचनपुर गाँव की रहने वाली हैं। उनकी शुरूआती पढ़ाई गाँव के परिवेश में ही हुई। इसलिए जब वह आगे की पढ़ाई के लिए बाहर निकली तो उन्हें एक अलग ही दुनिया मिली।
इंजीनियरिंग के दौरान उन्होंने अमेरिका की एक फर्म में इंटर्नशिप की और फिर 2009 में पढ़ाई पूरी होने के बाद GAIL कंपनी में उन्हें नौकरी मिल गयी। लगभग छह साल तक उन्होंने यहाँ पर काम किया। वह अच्छे-खासे पद पर थीं, लेकिन फिर एक वक़्त के बाद उन्हें लगने लगा कि उनके काम में बहुत कुछ सीखने को नहीं रह गया है।
एक बात जो सबसे ज़्यादा उन्हें खलने लगी थी वह यह थी कि शहर में न तो अच्छी हवा है, न खाने में स्वाद और न ही साफ़ पानी है, तो फिर इतने पैसे कमाने का क्या फायदा? क्यों लोग गाँव छोड़कर शहर चले आते हैं। वह आगे बताती हैं,
“मैं अक्सर अपनी नौकरी के चलते अलग-अलग जगह जाती रहती। मैंने दिल्ली-मुंबई जैसे बड़े शहर भी देखें हैं और फिर रालेगन सिद्धि जैसे गाँव भी देखे। मुझे हमेशा लगता था कि अगर थोड़ी मेहनत की जाए तो गांवों की ज़िंदगी कितनी सस्टेनेबल हो सकती है।”
कैसे हुई शुरुआत?
इस सबके दौरान ही उनकी अपने बैचमेट और दोस्त, मनीष कुमार से बात होने लगी। मनीष उस वक़्त किसानों के लिए शुरू किये गये अपने स्टार्टअप, ‘फार्म्स एंड फार्मर्स’ के साथ काम कर रहे थे। मनीष जितना पूजा को खेती, किसानी के बारे में बताते, उन्हें इसमें उतनी ही ज़्यादा दिलचस्पी होती जाती। उन्होंने तय कर लिया कि अब बस उन्हें कृषि के क्षेत्र में ही कुछ करना है।
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मनीष के सपोर्ट ने उनके आत्मविश्वास को और बढ़ा दिया और उन्होंने साल 2015 में अपनी नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया। इसके बाद खेती के और ख़ासकर कि जैविक खेती के विषय को समझने के लिए वह असम के डिब्रूगढ़ गयीं। वहां उन्होंने 4 महीने की ऑर्गनिक फार्मिंग पर ट्रेनिंग की। सीखने के दौरान वह जीरो बजट नेचुरल फार्मिंग के जनक सुभाष पालेकर से भी मिलीं।
“मेरी ट्रेनिंग के दौरान मैंने एक बात सीखी कि ज़िंदगी का सभी ज्ञान और रहस्य प्रकृति में है। इसलिए आप खेती-किसानी को यदि प्रकृति से जोड़कर करते हैं तभी वह फायदेमंद है। यहाँ से एक बात समझ में आई कि हम जैविक खेती ही करेंगे, चाहे पैसे मिले या फिर नहीं।”
इसके अलावा उन्होंने कहा,
‘5 एल, यानी कि लर्निंग, लिविंग, लाइवलीहुड, लव और लाफ्टर को एक जगह, एक ही वक़्त पर एक ही काम से, एक साथ यदि आप कहीं महसूस कर सकते हैं तो वह है खेती।’
यदि आप लाखों-करोड़ों कमाकर भी स्वास्थ्य संबंधित बीमारी या फिर मानसिक तनाव से ग्रसित हैं तो क्या फायदा आपके इतना कमाने का।
‘बैक टू विलेज’ के ज़रिए फिर से गाँवों की ओर जाने की कोशिश:
लगभग एक साल के ग्राउंड वर्क के बाद पूजा ने मनीष के साथ मिलकर, अप्रैल, 2016 में उड़ीसा के मयूरभंज जिले कर रायरमपुर गाँव से ‘बैक टू विलेज’ को लॉन्च किया। उन्होंने इस जिले के पाँच गाँवों को चुना और किसानों के साथ मिलकर जैविक खेती पर काम शुरू किया।
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अपने इस स्टार्टअप के लिए उन्होंने अपनी बचत के और पीएफ के सारे पैसों समेत सब कुछ लगा दिया। उन्हें पता था कि जिस राह पर वह निकल पड़ी हैं वहां कोई उम्मीद नहीं दो-तीन साल तक पैसे वापस आने की। फंडिंग के साथ-साथ किसानों का रवैया भी एक चुनौती था। पूजा बताती हैं कि यहाँ पर किसानों को अन्य सफल फार्म्स या फिर जैविक किसानों के बारे में बताने से भी फायदा नहीं हो रहा था। लोगों को केमिकल फार्मिंग की बजाय जैविक खेती करने के लिए मनाना बहुत ही मुश्किल था।
“इसलिए हमने तय किया कि हम उनके ही बीच, उनके इस गाँव में एक सेंटर तैयार करेंगे जो कि हमारे जैविक फार्म का उदाहरण बनेगा। गाँव के ही थोड़े पढ़े-लिखे किसानों को हमने इसके लिए तैयार किए। इस सेंटर पर किसानों को देसी बीज मुहैया करवाए जाते हैं। उन्हें जैविक खाद बनाना सिखाया जाता है और गाँववालों के लिए एक्सपर्ट्स से ट्रेनिंग या वर्कशॉप भी करवाई जाती है,” उन्होंने आगे कहा।
उड़ीसा के तीन जिलों, मयुरभंज, बालेश्वर और पुरी में उन्होंने 10 ऐसे जैविक फार्म सेंटर शुरू किये हैं और इन्हें नाम दिया है- उन्नत कृषि केंद्र। ये केंद्र स्थानीय कलेक्शन सेंटर की तरह भी काम करेंगे, जहां किसान अपनी उपज लाकर बेच सकता है और केंद्र का मालिक आगे इस उपज की मार्केटिंग करने में किसान की मदद करता है।
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उनके एक सेंटर से लगभग 500 किसान उनके साथ जुड़े हैं तो इस तरह से कुल 5000 किसान उनके साथ रजिस्टर्ड हैं। ये सभी किसान धीरे-धीरे ही सही लेकिन अब उनके जैविक खेती के तरीकों को अपना रहे हैं। पूजा कहती हैं कि उनकी योजना स्पष्ट है। उन्हें किसानों को ऐसे तैयार करना है कि उन्हें खेती करने के लिए बाहर से कुछ खरीदने की ज़रूरत न पड़े।
गांवों को बनाना है सम्पन्न:
“हम चाहते हैं कि किसान खुद अपने स्वदेशी बीज बनाए, अपनी खाद बनाए और अलग-अलग इनोवेटिव तरीकों से जैविक खेती करें। दूसरी सबसे बड़ी बात कि किसान खेती को बाज़ार से नहीं सम्पन्नता से जोड़ें। सबसे पहले वे अपने घर-परिवार की ज़रूरत के हिसाब से सब चीज़ें घर में उगायें और फिर ऊपर का जो ज़्यादा बचे उसे बाज़ार में बेचें।”
इससे किसान की लागत कम होगी और बचत ज़्यादा। वे अपने सेंटर्स पर किसानों के लिए इन्फॉर्मेशन कियोस्क तैयार करने पर भी काम कर रहे हैं। इन कियोस्क पर किसानों को सरकारी योजनाओं, नवीन तकनीकी, बाज़ार के भाव और मौसम के बारे में जानकारी दी जाएगी।
फ़िलहाल, उन्होंने गुजरात की कुछ कंपनियों के साथ पामारोजा की कॉन्ट्रैक्ट खेती के लिए टाई अप किया है। उन्होंने 300 एकड़ ज़मीन पर किसानों से यह खेती शुरू करवाई है। पूजा कहती हैं कि जिस ज़मीन पर उन्होंने खेती करवाई है वह खाली पड़ी हुई ज़मीन है न कि उपजाऊ। वह पहले एक साल ट्रायल कर रहे हैं और उसके बाद यदि सफलता दिखी तो उसकी मार्केटिंग करेंगे। इसके अलावा, उन्होंने किसानों से इस बार 7 देशी किस्मों के चावल की फसल लगवाई है, जो कि दिसंबर से कटनी शुरू होगी।
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उनका अगला उद्देश्य अपने जैविक फार्म सेंटर को उदाहरण के तौर पर इस्तेमाल करके देश में और ऐसे कृषि उद्यमी बनाना है। वह कहती हैं कि उनके दस सेंटर्स में लगभग 7 सेंटर्स के उद्यमियों को हर महीने सेंटर से लगभग 8 हज़ार रुपये की अतिरिक्त आय हो रही है, जो कि आने वाले समय में और बढ़ेगी। इसलिए इस कॉन्सेप्ट को सभी गाँवों में लागू किया जा सकता है।
अंत में पूजा किसानों के लिए सिर्फ़ यही संदेश देती हैं कि खेती को सिर्फ़ कमाई का ज़रिया न समझकर, यदि हम इसे प्रकृति से जोड़ें तभी हम आगे बढ़ पाएंगे। अक्सर किसान जो उगाता है उसे बेचने के बारे में पहले सोचता है और फिर अपने खाने के लिए बाज़ारों से खरीदता है। इस साइकिल को हमें बदलना होगा, किसान जो उगाएगा पहले उसमें से अपने परिवार के खाने के लिए रखेगा और फिर जो बचेगा उसे बाज़ारों में बेचेगा। यदि ऐसा हो तो ही हम बदलाव ला सकते हैं और सेल्फ-सस्टेन बन सकते हैं।
यदि आप भी पूजा भारती की इस पहल से जुड़ना चाहते हैं तो 7682930645 पर संपर्क कर सकते हैं!
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संपादन – मानबी कटोच