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घर की जंजीरों से शिमला की खुली हवाओं तक; यह सफ़र नहीं था आसान!

कई परिवार इलाज के अभाव और शर्म के मारे बच्चों को घरों में बंद रखते थे।

क माँ को अपने तेज़ी से बढ़ते बच्चे को देख यही शिकायत रहती है कि जब यह छोटा था कितना क्यूट था। हर माँ अपने नन्हे-मुन्ने बच्चे को अपने आंचल में छुपा कर रखना चाहती है और बड़े होने पर उसकी किलकारियों को मिस करती हैं। बच्चों के मुख से निकले अर्थहीन शब्द कानों को उस उम्र में जितने भी प्रिय क्यों न लगे, लेकिन वो वक़्त के साथ अगर स्पष्ट बातचीत में न बदले तो चिंता सताने लगती है। बच्चे कितने भी क्यूट क्यों न लगे पर समय के साथ उनका न बढ़ना उनमें कुछ भयंकर मानसिक बीमारियों की ओर इशारा करता है। जहाँ माँ अपने बच्चे का सारा काम खुद करने में जीवन का सबसे बड़ा सुख महसूस करती है, वहीं समय के साथ-साथ वह इस बात से भी बहुत खुश होती है कि उसका बच्चा धीरे-धीरे अपना काम करना सीख रहा है।

आँखों के स्थिर होने से लेकर गर्दन के ठहरने तक शुरुआती कुछ महीनों में आपका लाडला अपने आपको संभालना सीखता है। बैठना, चलना, फिरना, अपने हाथ से खाना, अपना दैनिक कार्य खुद करना सीखता है। लेकिन अगर ऐसा नहीं होता है तो यह ऑटिज्म या किसी अन्य मानसिक रोग की निशानी हो सकता है।

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मुस्कान भरते मानसिक रूप से कमजोर बच्चे।

बच्चों में होने वाली मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्या आज के समय में गंभीर विषय बन गई है। बचपन में हुई इस तरह की समस्याओं के कारण उन्हें जीवनभर इससे जूझना पड़ सकता है। इंडियन साइकेट्रिक सोसायटी के एक अनुमान के मुताबिक 186 बच्चों में से 20 बच्चे ऐसे पाए जाते हैं जो मानसिक रूप से विकृत होते हैं या इस तरह की किसी अन्य समस्या से जूझ रहे होते हैं।

ऐसे में परिवार में किसी ऐसे बच्चे का होना जो किसी मानसिक बीमारी से ग्रस्त है लोगों के लिए शर्म का सबब बनता है। एक तरफ साधन संपन्न परिवार अपने ऐसे बच्चे के लिए अतिरिक्त परिचायिका रख उसका जीवन आसान बनाने की कोशिश करते हैं वहीं दूसरी तरफ गरीब परिवार साधनों के अभाव में इन बच्चों को घर के अंदरूनी हिस्सों में क़ैद कर देते हैं। कई बार लोगों द्वारा इन मासूम बच्चों को पागल तक कह दिया जाता हैं, क्योंकि लोगों का मानना है कि ऐसे बच्चे कभी ठीक नहीं हो सकते हैं, लेकिन यह सच नहीं है। इनमें से बहुत सारे बच्चे अच्छी देखभाल और इलाज से वापस एक स्वस्थ जीवन जी पाते हैं। लेकिन बहुत कम लोग ही ऐसे होते हैं जो इस तरह सोचते हैं और इन बच्चों के लिए कुछ करने की कोशिश करते हैं।

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सेंटर पर विभिन्न प्रकार की चीज़ें बनाना सीखते बच्चे।

शिमला में रहने वाली मीनू सूद ऐसे ही उन अच्छे लोगों में से एक हैं, जिन्होंने ऐसे बच्चों के लिए कुछ करने की सोची। मीनू मानसिक रूप से अस्वस्थ बच्चों की मदद के लिए 2004 से एक सेंटर चला रही हैं, जहाँ शिमला व आसपास के पहाड़ी गांवों के घरों से मानसिक रूप से अस्वस्थ बच्चों को सेंटर पर लाकर उनके जीवन को बेहतर बनाने का प्रयास किया जाता है। वह यह काम ‘अभी’ नाम की एक संस्था के जरिये कर रही हैं।

मीनू सूद के इस सेंटर में अभी 22 बच्चे हैं। यह बच्चे गरीब परिवारों से सम्बन्ध रखते हैं। इन बच्चों के परिवारों के लिए इनका इलाज करवाना बहुत मुश्किल काम है। शिमला एक हिल स्टेशन है, जहाँ के गांवों से बच्चों को अस्पताल ले जाना भी किसी बड़ी मुसीबत से कम नहीं हैं, क्योंकि यह बच्चे अपने आप चल फिर भी नहीं सकते हैं। इनको कहीं भी ले जाना बहुत मुश्किल काम है।

ऐसे में ‘अभी’ संस्था इन बच्चों को रोज़ एम्बुलेंस में उनके घर से सेंटर तक लाती है और दोपहर को सेंटर से वापस घर छोड़ कर आती है। सेंटर में आकर यह बच्चे बहुत सारी चीजें सीखते हैं।

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सेंटर पर बच्चों को आत्मनिर्भर और स्वावलम्बी बनाने की कोशिश की जाती है।

मीनू सूद बताती हैं, “हमारे पास आने वाले बच्चों में मल्टीप्ल डिसऑर्डर होते हैं। यह बच्चे इंटरमिडिएट और सीवियर लेवल के मेंटली चैलेंज्ड होते हैं। इन्हें अपना काम खुद करना सिखाना भी बहुत बड़ा और धेर्य का काम है। हमारे पास टोटल 22 बच्चे हैं जिनमें 20 बच्चे सेंटर पर आते हैं और अलग-अलग प्रकार की लर्निंग एक्टिविटीज में भाग लेते हैं। इनके अलावा 2 बच्चों की स्थिति सेंटर तक आने की नहीं है इसलिए हम उन्हें होम लर्निंग देते हैं।”

मीनू ने जब इन बच्चों के लिए सेंटर चलाना शुरू किया तब उनके लिए सबसे ज्यादा मुश्किल काम इन बच्चों के परिवारों को समझाना था। गरीबी और अशिक्षा के कारण यह परिवार अपने ऐसे बच्चे को घरों में छुपा कर रखते थे। बहुत बार तो इन्हें जंजीरों से बांध कर भी रखा जाता था। इनकी इस हालत को देख वह बहुत विचलित होती थीं।

मीनू सूद की एक बहन जिसकी मृत्यु 12 वर्ष की उम्र में हो गई थीं, वह भी ऐसी ही किसी मानसिक बीमारी से पीड़ित थीं। मीनू को इन बच्चों की देखभाल की प्रेरणा वहीं से मिली। मीनू शिमला के बिशप कॉटन स्कूल में पढ़ाती थीं, जहां उनकी सहेली नीरजा शुक्ला का एक बेटा भी ऐसी स्थिति से गुज़र रहा था। ऐसे में मीनू और नीरजा ने अन्य दो सहेलियों के साथ मिलकर एक संस्था बनाने की सोची, जहाँ ऐसे बच्चों को ट्रेनिंग और उपचार दोनों मिले।

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‘अभी’ संस्था के बच्चे, जो कभी घरों में बंद रहते थे आज खुली हवा में सांस लेते हैं।

ऐसे में उन्होंने ‘Action for barrierfree handicap integration (ABHI)’  नाम से संस्था बनाई, जिसे शोर्ट में ‘अभी’ के नाम से भी जाना जाता है।

उनके पास आने वाले बच्चे कई मानसिक बीमारियों से पीड़ित होते हैं जैसे बच्चों का सही प्रकार से रेस्पोंड न करना, स्पष्ट न बोलना, लर्निंग और कम्युनिकेशन डिसऑर्डर, एंग्जायटी डिसऑर्डर, पर्वेसिव डेवलपमेंट डिसऑर्डर, प्रमस्तिष्क पक्षाघात या सेरेब्रल पाल्सी आदि।

‘अभी’ सेंटर में बच्चों के लिए फिजियोथेरेपिस्ट, स्पेशल ट्रेनिंग टीचर्स और हेल्पर होते हैं जो बच्चों को अपने पैरों पर खड़े करने में मदद करते हैं। यहाँ आकर बच्चे हेंडीक्राफ्ट आइटम जैसे कैंडल मेकिंग और पेपर बैग मेकिंग सीखते हैं। इन बच्चों द्वारा बनाई कैंडल शिमला में खूब पसंद की जाती हैं। बच्चे सेंटर में दोपहर का भोजन एक-दूसरे के साथ करते हैं। इनके इस काम में बहुत लोग मदद करते हैं। कुछ लोग वॉलिंटियर के रूप में जुड़ते हैं और यहाँ आकर बच्चों के साथ वक़्त गुज़ारते हैं।

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साथ में भोजन करते बच्चे और बच्चे को खाना खिलाता एक वोलिंटियर।

सेंटर पर बच्चों के चेहरों पर मुस्कान लाने के लिए जो भी बन पड़ता है किया जाता है।

“हमारा पहला उद्देश्य तो बच्चों को शारीरिक रूप से आत्मनिर्भर बनाना होता है। यह बहुत मुश्किल काम है। यह बच्चे शारीरिक रूप से एक्टिव नहीं होते इसलिए इनकी मांसपेशियों में निष्क्रियता आ जाती है। जिसे दूर करने में फिजियोथेरेपी बहुत कारगर होती है। हमारे सेंटर में फिजियोथेरेपिस्ट, स्पेशल ट्रेनिंग टीचर होते हैं जोकि बच्चों को रोज़ व्यायाम करवाते हैं,” मीनू बताती हैं।

इस काम में किन चुनौतियों का सामना करना पड़ा के जवाब में मीनू सूद बताती हैं- “मेरे लिए सेंटर खोलना कोई मुश्किल काम न था। मेरे लिए सबसे मुश्किल था लोगों में व्याप्त टेबू को ख़त्म करना। उनके अभिभावकों से घरों को बंद कमरों से इन बच्चों को खुली हवा में साँस लेने की आज़ादी दिलवाना। इसके लिए हमें परिवार वालों की काउंसलिंग सेशन भी करने पड़े।”

‘अभी’ सेंटर के बच्चे कई जगह जाकर परफोर्म करते हैं और सम्मान भी पाते हैं। इनमें से कुछ बच्चे बहुत अच्छा गाते हैं। इन बच्चों को पिकनिक पर भी लेकर जाया जाता हैं। उनकी पूरी कोशिश रहती है कि इन बच्चों को मुख्य धारा से जोड़ा जाए और यह एक सामान्य बच्चे की तरह ही अपना बचपन जिए।

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पिकनिक के दौरान ‘अभी’ संस्था के बच्चे।

इस नेक नियत के साथ किये गए प्रयासों में कुछ प्रयास बहुत सफल भी हुए हैं जैसे उनके पास एक बच्चा आया जिसका नाम आयुष था। वह गर्दन से नीचे पूरे शरीर का पूर्ण पक्षाघात से पीड़ित था लेकिन इसके बावजूद उसकी समझबूझ अच्छी थी। वह बोलने में हकलाता था लेकिन अपनी बात कह पाता था। संस्था में एक साल बिताने के बाद उस बच्चे को मुख्य धारा के स्कूल में कक्षा एक में एडमिशन मिल गया।

उन्होंने उस बच्चे के माता-पिता की काउंसलिंग की और उन्हें लिंब सर्जरी के लिए तैयार किया और नारायण सेवा संस्थान द्वारा उस बच्चे की सर्जरी करवाई गई। आज वह बच्चा स्वस्थ है और कक्षा 7 में पढ़ता है। उनके लिए इससे ज़्यादा ख़ुशी और क्या हो सकती है। आयुष की तरह ही कई बच्चे हैं जैसे मोहित, आर्विक और आकाश, जो भी बेहतर जीवन की राह पर अग्रसर हैं।

आकाश एक ऐसा ही बच्चा था, जिसने उनकी संस्था में रह कर न सिर्फ लिखना पढ़ना सीखा बल्कि कागज़ के बैग और कैंडल बनाना भी सीखा। आज वह अपनी आजीविका खुद चला रहा हैं।

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आकाश की बनाई कैंडल और आकाश।

उनके पास कुछ ऐसे बच्चे भी हैं जोकि गंभीर प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात (Severe Cerebral Palsy) से पीड़ित हैं। यह एक प्रकार की पूर्ण शारीरिक विकलांगता है जिसमें बच्चों को अपनी नित्य क्रिया जैसे-कपड़े पहनना, ब्रश करना, स्नान करना, खाना-पीना इत्यादि के लिए दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। ऐसे में उनकी कोशिश रहती है कि वह इनके और इनके परिवार के जीवन पर आई इस कठिनाई का थोड़ा भार बांट लें। इन बच्चों को मिला जीवन अमूल्य है और खुदा के बनाए हर इंसान को सम्मान से जीने का अधिकार है।

अगर आप भी मीनू सूद द्वारा चलाए जा रहे इस नेक काम का हिस्सा बनना चाहते हैं या उनकी मदद करना चाहते हैं तो 98160 25290 पर संपर्क कर सकते हैं। आप यहाँ क्लिक करके ‘अभी’ संस्था पर बनी डॉक्यूमेंट्री भी देख सकते हैं।

 

संपादन – भगवती लाल तेली 


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