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पश्चिम बंगाल में सुंदरबंस जिले की रहने वाली शुभश्री रापतान 19 साल की थी जब उन्होंने मानव तस्करी का पहला मामला सुलझाया था।
साल 2013 की बात है, शुभश्री का वह कॉलेज में पहला साल था, जब उन्हें एक नाबालिग लड़की के बारे में पता चला जिसे उसके रिश्तेदारों ने देह व्यापार में धकेला था। उस नाबालिग लड़की ने शुभश्री के पिता निहार रापतान द्वारा चलाए जा रहे एनजीओ, गोरानबोस ग्राम बिकास केंद्र (GGBK) से मदद मांगी थी।
शुभश्री ने बताया कि उनके पिता उस समय किसी और मामले को संभाल रहे थे और इसलिए उस मामले की ज़िम्मेदारी उन पर आई। उस लड़की के गर्भवती होने के बाद उसे वेश्यालय (ब्रोथेल) ने निकाल दिया था और उसके परिवार ने उसे वापस रखने से मना कर दिया।
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शुभश्री ने द बेटर को बताया, “मैं उस समय अपने पॉलिटिकल साइंस विषय में मौलिक अधिकारों के बारे में पढ़ रही थी और यहां एक नाबालिग लड़की थी जिसकी ज़िंदगी और शिक्षा का अधिकार ही खतरे में थे।”
निहार की मदद से उस लड़की ने स्थानीय पुलिस स्टेशन में रिपोर्ट दर्ज कराई। इसके बाद उसे एक आश्रय घर में भेजा गया, जहां उसे डॉक्टर और सायकोलोजिस्ट की मदद मिली।
शुभश्री ने मुस्कुराते हुए कहा, “वक़्त के साथ उस लड़की ने खुद को संभाला और आज वही लड़की स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालयों में बाल तस्करी पर जागरूकता अभियान करती है। वह एनजीओ को बचाव कार्यों में सक्रिय रूप से मदद करती है। वह और उसका बच्चा स्वस्थ हैं, और अपने घर में रहते हैं।”
उस लड़की के जीवन को सुधरते देख शुभश्री ने अपने आईएएस बनने के सपने को छोड़कर अपने पिता के काम को ही आगे बढ़ाने की सोची।
उन्होंने कहा, “मैंने अपनी मास्टर्स पूरी करके अपने पिता के एनजीओ में काम करना शुरू किया। इस सबके दौरान, मैंने TISS, मुंबई से मानव तस्करी और NIPCCD, असम से तस्करी रोकथाम पर एक कोर्स पूरा किया। मैंने अंतर्राष्ट्रीय युवा केंद्र, दिल्ली से, एनजीओ की पुनर्वास सेवाओं को बेहतर बनाने के लिए एक विशेष कोर्स भी पूरा किया।”
पिछले 35-वर्षों में शुभश्री और उनके पिता, निहार के एनजीओ ने नाबालिगों सहित 2,500 लड़कियों को सफलतापूर्वक बचाया और उन्हें पुनर्वासित किया है।
“मैं लोगों की सेवा करने के लिए ही आईएएस बनने की तैयारी कर रही थी। मेरा लक्ष्य अभी भी नहीं बदला है बस लोगों की सेवा करने का तरीका थोड़ा सा बदला है,” उन्होंने कहा।
कैसे हुई शुरूआत:
GGBK को 1985 में निहार के गाँव, 24 दक्षिण परगना जिले के गोरानबोस में आए विनाशकारी चक्रवात के बाद से शुरू किया गया था। कृषि क्षेत्र बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गए, और किसानों को दूसरे क्षेत्रों में पलायन करना पड़ा।
निहार अपने गाँव के उन चंद लोगों में से थे जिन्होंने ग्रैजुएशन की थी। उन्होंने अपने दोस्तों के साथ मिलकर इस चक्रवात के बाद लोगों की मदद की ताकि वे बिना किसी परेशानी के सरकारी योजनाओं का लाभ उठा सके। वह घर और खाने जैसे मुद्दों पर काम कर रहे थे जब एक गंभीर समस्या उनके सामने आई।
गरीबी की वजह से कुछ परिवारों ने अपनी बेटियों को बेचना शुरू कर दिया और कुछ लोग गाँव से लड़कियों को अपहरण करके शहर में बेच देते। यह मुद्दा गाँव से शुरू हुआ और फिर जिला स्तर तक पहुंच गया।
निहार ने बताया, “एक नाबालिग लड़की को उसका पड़ोसी ट्रैन से मुंबई ले गया। हमने गाँव के लोगों की मदद की थी इसलिए उस लड़की की माँ ने हमसे संपर्क किया। हम पड़ोसी तक पहुंच गए जिसने बाद में अपने अपराध को स्वीकार कर लिया और लड़की को बचा लिया गया।”
दो साल बाद 1987 में, निहार ने औपचारिक रूप से मानव तस्करी को रोकने और बचाए गए लोगों के पुनर्वास के लिए GGBK को पंजीकृत किया।
बचाव कार्य:
निहार और शुभश्री मुख्य रूप से दो तरह के बचाव अभियान चलाते हैं- नेटवर्किंग के माध्यम से और ऑन-फील्ड।
उन्होंने जिले में समुदाय, स्थानीय और राज्य पुलिस बल और पूरे भारत में इस क्षेत्र में काम करने वाले सामाजिक संगठनों के साथ एक मजबूत नेटवर्क विकसित किया है।
समुदाय के साथ मिलकर काम करना पहला कदम था, इन दोनों ने सबसे पहले विश्वास बनाने के लिए काम किया। शुभश्री के मुताबिक अगर समुदाय के साथ मिलकर काम किया जाए अपराधी को समय रहते पकड़ा जा सकता है।
उन्होंने कुछ स्थानीय महिलाओं को प्रशिक्षित किया कि कैसे विवेकपूर्ण रहते हुए भी एक व्यापारिक सौदे की पहचान की जाए, GGKK को सूचना कैसे पहुंचाई जाए, पुलिस के आने तक किसी संदिग्ध को कैसे रोका जाए, इत्यादि।
लोगों का नेटवर्क कैसे मदद करता है, इस बारे में जानकारी देते हुए, शुभश्री बताती हैं, “कुछ साल पहले, हमारे एक खबरी को किसी डील के बारे में पता चला और उसने तुरंत अन्य खबरियों को भी सतर्क कर दिया। करीब 4-5 लोगों ने संदिग्ध परिवार पर नजर रखी। हमने पुलिस से संपर्क किया, वह सौदा रोका और लड़की को बचाया।”
एक अन्य उदाहरण में, नेटवर्किंग के ज़रिए उन्होंने जिले की एक माँ-बेटी को बचाया जो मुंबई के वेश्यालय में फंसी हुई थीं।
“जब हमने वेश्यालय के मालिकों से संपर्क करने की कोशिश की, तो उन्होंने हमें किसी भी बचाव अभियान के खिलाफ चेतावनी दी और कहा कि अगर माँ को बचाया गया, तो बेटी को मार दिया जाएगा और बेटी को बचाया तो माँ को। हम उनके पारिवार के बारे में जानते थे और हमने मुंबई पुलिस और वहां के एक अन्य एनजीओ को जानकारी दी। उन्हें सुरक्षित बचा लिया गया।”
ऑन-ग्राउंड ऑपरेशन भी इसी तरह से काम करते हैं जहां एक खबरी की खबर से शुरूआत होती है। GGBK स्वयंसेवक तब पुलिस को सतर्क करते हैं और मिशन का संचालन करते हैं। इस बीच, वकीलों और सायकोलोजिस्ट की एक टीम को भी तैयार रखा जाता है।
चूंकि अधिकांश मामलों में, लड़कियों को शहर या अन्य राज्यों में ले जाया जाता है, इसलिए राज्य छोड़ने से पहले पीड़ित और अपराधी को रोकना महत्वपूर्ण है। इस प्रकार, एनजीओ को रेलवे और समुदायों के भीतर सतर्क रहना पड़ता है।
अपने प्रयासों को बड़े स्तर पर ले जाने के लिए उन्होंने पश्चिम बंगाल पुलिस के साथ मिलकर 'स्वयंसिद्ध' जागरूकता अभियान शुरू किया है। इसके ज़रिए वे शिक्षकों, छात्रों, उनके माता-पिता और पंचायतों को जागरूक करते हैं।
शुभश्री बताती हैं कि वह स्कूलों में वर्कशॉप करती हैं और सभी को समझाती हैं कि कैसे यह मानव तस्करी की चेन काम करती है। साथ ही, उन्हें समझाया जाता है कि अगर उन्हें अपने आस-पास कोई संदिग्ध बातें होती दिखें तो तुरंत उन्हें खबर दी जाए। उन्होंने 400 स्कूलों में एक बॉक्स रखा है जहाँ शिक्षक और बच्चे बिना किसी डर से अपने बात लिखकर डाल सकते हैं।
पुनर्वासन: आजीविका और क़ानूनी लड़ाई:
मानव तस्करी के शिकार लोगों को बचाने और वापस लाने के बाद भी बहुत सी चुनौतियाँ हैं। इन लड़कियों को मानसिक तनाव के साथ-साथ सामाजिक उपेक्षा से भी गुजरना पड़ता है।
यहां से शुभश्री की पहल, बंधन मुक्ति का काम शुरू होता है। इन बचाए गये लोगों कि काउंसलिंग की जाती है और उनके मुद्मे लड़े जाते हैं ताकि उन्हें मुआवजा मिले और इस राशि से वे फिर से अपनी ज़िंदगी शुरू कर पाएं।
शुभश्री आगे कहती हैं कि अगर कोई माता-पिता अपनी बेटी को नहीं अपनाते तो उन्हें आश्रय घर भेजा जाता है। हालांकि, उनके लिए समाज में फिर से शामिल हो पाना बहुत मुश्किल है। उन्हें नौकरी नहीं मिलती, आदमी भद्दी बातें कहते हैं, और उनका मानसिक तनाव उनका मनोबल तोड़ देता है।
लेकिन शुभश्री और उनकी टीम, इन लोगों को सरकारी योजनाओं के तहत मुआवजा दिलाती है और साथ ही उन्हें सिलाई-बुनाई का प्रशिक्षण कराती है ताकि वे काम कर पाएं।
नाबालिगों को भी उन्हें बुरे अतीत की वजह से स्कूल दाखिला देने से मना कर देते हैं। ऐसे में, बंधन मुक्ति की टीम स्कूल में जाकर बात करती है और उन्हें समझातीं हैं।
ये लोग अपने लिए एफआइआर दर्ज कराने, मुकदमे लड़ने और मुआवजा लेने के लिए भी संघर्ष करते हैं।
“बहुत बार इन्हें परिवार की इज्जत बचाने के नाम पर एफआइआर दर्ज कराने से भी रोका जाता है। अपराधी इन्हें डराते-धमकाते हैं। कभी खत्म न होने वाली कानूनी प्रक्रियाएँ, सबूत मिलने में देरी और कानूनी व्यवस्था में भरोसे की कमी के बोझ से स्थिति और खराब हो जाती है,” उन्होंने आगे बताया।
एनजीओ ने 3-4 वकीलों को नियुक्त किया है जो फ्री-काउंसलिंग करते हैं और क़ानूनी प्रक्रिया में मदद करते हैं!
धमकियां हमें नहीं रोक सकतीं:
अपनी ज़िंदगी के 35 साल इस नेक काम को देने वाले निहार कहते हैं, “मैं ऐसे किसी इंसान से कैसे डर सकता हूँ जो फोन पर मुझे मारने की धमकी दे रहा है? मेरा तरीका यही है कि मैं इस तरह की कॉल को सीरियस नहीं लेता और अपना काम करता हूँ।”
उन पर कई बार हमले किए गए हैं लेकिन फिर भी वे यह जोखिम उठाते हैं ताकि उन लड़कियों को एक अच्छी ज़िंदगी मिल सके।
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इतने सालों में, उन्होंने सीखा है कि खुद को कैसे सुरक्षित किया जाए, लेकिन जब उनकी बेटी ने उनके साथ जुड़ने की इच्छा व्यक्त की, तो उन्हें कुछ संकोच हुआ। "एक पिता के रूप में, मैं उसे सुरक्षित रखना चाहता हूँ, लेकिन जब मैं वह काम देखता हूं, जो वह बहुत सारी महिलाओं को सुरक्षित रखने के लिए कर रही है, तो यह मुझे बहुत गर्व होता है।"
तस्वीर साभार: फेसबुक
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