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यह कहानी एक ऐसी माँ-बेटी की जोड़ी की है, जो जैविक उत्पादों को प्रोसेसिंग कर बाजार तक पहुँचा रहीं हैं। इन दोनों ने अपने बिजनेस मॉडल से न केवल खुद को आत्मनिर्भर बनाया है बल्कि वह उत्तराखंड की ग्रामीण महिलाओं को भी आत्मनिर्भर बना रहीं हैं।
उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल में रहने वाली दिव्या पिछले 4 सालों से अपनी माँ इंदिरा के साथ मिलकर 'हिमालयन हाट ' नामक एक एंटरप्राइज चला रहीं हैं। उनकी यह एंटरप्राइज न सिर्फ उनकी पहचान हैं बल्कि उनके साथ काम करने वाली लगभग 25 पहाड़ी महिलाओं की पहचान है।
हिमालयन हाट के ज़रिए दिव्या और इंदिरा अपने खेतों में उगने वाले फल, सब्ज़ी, हर्ब्स और ड्राई फ्रूट आदि को प्रोसेस करके अलग-अलग तरह के प्रोडक्ट्स बना रही हैं। उनके प्रोडक्ट्स पौड़ी गढ़वाल से निकलकर दिल्ली पहुँचते हैं और फिर यहाँ से अलग-अलग ऑर्डर्स के हिसाब से भेजे जाते हैं।
साल 2015 में दिव्या ने ‘हिमालयन हाट’ की नींव रखी थी। उनकी शुरूआत नाशपाती के ड्रिंक से हुई थी। आज वह अलग-अलग किस्म के लगभग 30 प्रोडक्ट्स बना रही हैं।
दिव्या ने द बेटर इंडिया को बताया, “मेरे पास 13 एकड़ जमीन है, जिस पर जंगल पद्धिति से खेती की जा रही है। हमारे खेत में आपको तरह-तरह के पेड़-पौधे मिलेंगे, जिसे मेरे पिताजी ने लगाया था। वह जैविक किसान थे, वहीं मेरी माँ स्कूल टीचर थीं। पापा तो अब नहीं रहे लेकिन माँ रिटायरमेंट के बाद पापा के काम को आगे बढ़ा रहीं हैं।”
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पिता की विरासत को संभालने के लिए लौटी थीं पहाड़ों में
"मेरी पढ़ाई ज़्यादातर पहाड़ों के बाहर ही हुई। दिल्ली से मैंने अपनी पढ़ाई पूरी की और फिर एक पीआर फर्म के साथ काम करने लगी," दिव्या ने बताया।
साल 2014 में दिव्या के पिता इस दुनिया से चले गए और उस वक़्त तक उनकी माँ भी स्कूल से रिटायर हो चुकी थीं। दिव्या दिल्ली में नौकरी कर रहीं थीं और अब उनके सामने सवाल था कि माँ को वह कहाँ रखें? वह चाहतीं थीं कि उनकी माँ उनके पास आकर रहें लेकिन इंदिरा उस जगह को छोड़ने के लिए तैयार ही नहीं थी जिसे उनके पति ने इतनी मेहनत और प्यार से बनाया था। दिव्या को भी कुछ वक़्त अपनी माँ के साथ रहकर लगने लगा कि अगर अपने पिता की इस विरासत को वह छोड़ देंगी तो यह बिलकुल सही नहीं होगा।
"हमने अपने पापा के काम को आगे बढ़ाने की सोची। खेती को हमने उन स्थानीय लोगों के मार्गदर्शन में संभाला जो पापा के साथ काम करते थे। इसके साथ-साथ मैं वहीं रहकर फ्रीलांसिंग प्रोजेक्ट करने लगी। माँ और मैंने ठान लिया था कि हम अपने खेतों को छोड़कर नहीं जायेंगे," उन्होंने आगे कहा।
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दिव्या जैसे-जैसे खेती से जुड़ी उन्हें इसमें दिलचस्पी होती गयी। प्राकृतिक और जैविक तरीकों से उगाना और खाना, इससे अच्छा क्या हो सकता था?
दिव्या अपने फार्म में स्ट्रॉबेरी, माल्टा, संतरा, निम्बू, आड़ू, प्लम, खुबानी, रोजमेरी, कैमोमाइल, लेमनग्रास, तेज पत्ता और विभिन्न मौसमी सब्जियां जैसे टमाटर, मिर्च और लहसुन उगातीं हैं। इसके साथ-साथ अंजीर, अखरोट जैसे पेड़ भी है। इन खेतों में जो भी उपजता है, उसे ही प्रोसेस करके अलग-अलग प्रोडक्ट्स बनाए जाते हैं।
‘हिमालयन हाट’ का बिज़नेस मॉडल
दिव्या बतातीं हैं कि वह अपने खेतों को स्थानीय किसानों के मार्गदर्शन में संभाल रही हैं। ये लोग उनके पिता के साथ काम किया करते थे और अब उनके साथ कर रहे हैं। खेतों को जंगल पद्धिति के आधार पर तैयार किया गया है और उनकी देखभाल भी वैसे ही की जाती है।
मौसम के हिसाब से खेतों से जो कुछ भी मिलता है, उसे इकट्ठा करके अच्छे से साफ़ किया जाता है। दिव्या कहतीं हैं कि उनके यहाँ ऐसी कोई ट्रांसपोर्ट सुविधा नहीं है जिससे एकदम ताज़ा उपज को दिल्ली के बाज़ारों में ले जाकर बेचा जा सके।
उनके यहाँ से गाड़ी से दिल्ली तक पहुँचने में 8 घंटे का समय लगता है। इसलिए उनकी उपज खराब न हो, वह इसकी प्रोसेसिंग करते हैं।
प्रोसेसिंग की पूरी ज़िम्मेदारी इंदिरा पर है और उनके साथ 20 से 25 महिलाएं काम कर रही हैं। सबसे पहले सभी फल और सब्जियों को धोकर, काटा जाता है। इसके बाद इंदिरा, प्रोडक्ट लाइन के हिसाब से एक-एक करके प्रोडक्ट्स बनातीं हैं।
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जैसे माल्टा से वह अचार और कूलर ड्रिंक बनाते हैं। स्ट्रॉबेरी से कभी जैम तो कभी कूलर ड्रिंक, मिर्च से स्वीट चिली सॉस, टमाटर, तुलसी, लहसुन आदि को मिलाकर पास्ता सॉस, पेपरमिंट, कैमोमाइल, लेमन ग्रास जैसी हर्ब्स से ऑर्गनिक टी और पहाड़ी नमक जैसे प्रोडक्ट्स वह बना रहे हैं।
उनके अपने घर की किचन में ये सभी प्रोडक्ट्स बनते हैं। तैयार होने के बाद सभी प्रोडक्ट्स को टेस्ट किया जाता है और फिर इन्हें काँच की बोतल में पैक किया जाता है।
पहाड़ों में शिपिंग की कोई खास व्यवस्था नहीं है और इसलिए दिव्या ने दिल्ली में एक जगह किराए पर लेकर डिस्ट्रीब्यूशन सेंटर बनाया है। प्रोडक्ट्स को पैक करके वह अपनी गाड़ी से इसे डिस्ट्रीब्यूशन सेंटर तक लेकर जाते हैं और यहाँ इन्हें आगे शिप किया जाता है।
उनके प्रोडक्ट्स कुछ सीधे ग्राहकों को और लगभग 40 रिटेलर्स को जाते हैं। दिव्या कहतीं हैं कि उनके प्रोडक्ट्स प्राकृतिक तरीके से बने हैं। इनमें किसी भी तरह के एडिटिव या फिर प्रिजर्वेटिव का इस्तेमाल नहीं होता है।
उनके प्रोडक्ट्स की कीमत 150 रुपये से लेकर 400-500 रुपये तक होती है। सभी प्रोडक्ट्स का मूल्य अलग- अलग है। उनका मिर्च-निम्बू वाला नमक 150 रुपये का है तो वहीं उनके सॉस लगभग 300 रुपये प्रति बोतल है।
दिव्या के मुताबिक़ उनका सालाना टर्नओवर 20 से 25 लाख रुपये के बीच में है।
कैसे शुरू की प्रोसेसिंग
प्रोसेसिंग से जुड़ने के बारे में वह बतातीं हैं कि उनके यहाँ बहुत मात्रा में नाशपाती होती है। ट्रांसपोर्टेशन की पहाड़ों में ज़्यादा सुविधा है नहीं और ऐसे में अक्सर फल और सब्ज़ियां मार्किट न पहुँचने से खराब हो जाते हैं। दिव्या को लगा कि नाशपातियों के साथ भी ऐसा ही होगा। पर उनकी माँ ने इसका हल निकाल लिया। इंदिरा ने बचे हुए फलों को प्रोसेस करके इनसे जैम और जूस बना दिया। यह पहला मौका था जब दिव्या को प्रोसेसिंग का ख्याल आया पर उन्होंने इस पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया।
"एक दूसरा वाकया और हुआ, जिसके बाद मुझे लगा कि हमें खेती से आगे भी कुछ करना होगा। एक बार सब्ज़ियां कुछ ज़्यादा थी और मम्मी को उन्हें काटने में मदद चाहिए थी। मैंने अपनी कामवाली से कहा कि अगर उनके यहाँ किसी को एक दिन का काम चाहिए तो वह एक-दो लोगों को ले आए। दूसरे दिन 10-15 महिलाएं आ गईं। अब काम इतना ज़्यादा तो था नहीं कि हम सबको दे पाते इसलिए मैं पूछा जिसे ज़्यादा ज़रूरत है वह रुक जाये। इस पर उन सब में लड़ाई होने लगी," दिव्या ने कहा।
उस दिन दिव्या ने परेशान होकर सबको वापस भेज दिया लेकिन जब बाद में, अपनी माँ से इस बारे में बात की तो असल तस्वीर सामने आई। उन्हें पता चला कि कैसे पहाड़ों में पुरुषों के बीच शराब की लत आम है और वह जो भी कमाते हैं सब शराब में जाता है। महिलाएं घर के काम के साथ-साथ चंद पैसे कमाने के लिए भी दिनभर जंगल में काम करतीं हैं। अपने बच्चों की पढ़ाई, घर का खर्च, बीमारी का इलाज, सभी कुछ महिलाओं के ऊपर होता है।
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दिव्या ने सोचा कि वह सबके लिए सबकुछ नहीं कर सकतीं हैं। लेकिन अगर उनका प्रोसेसिंग बिज़नेस शुरू हुआ तो कुछ महिलाओं का जीवन ज़रूर संवार पाएंगी। अब तक जैसे-जैसे हिमालयन हाट आगे बढ़ा है, उनके साथ काम करने वाली महिलाएं भी आगे बढ़ी हैं।
फल-सब्जियों की प्रोसेसिंग, प्रोडक्ट्स की रेसिपी, सभी कुछ इंदिरा सम्भालती हैं। उनकी उम्र 70 साल से भी ऊपर है लेकिन महिलाओं को ट्रेनिंग देना, प्रोडक्ट्स को फाइनल करना और फिर टेस्टिंग करके भेजना -सब काम वह खुद करतीं हैं।
दिव्या खेती से जुड़े काम संभालतीं हैं और प्रोडक्ट्स को मार्किट, डिस्ट्रीब्यूट करने की ज़िम्मेदारी उनकी है।
'हिमालयन हाट' के रिवेन्यू के बारे में दिव्या कहतीं हैं, “हमने बहुत छोटे स्तर से काम शुरू किया। हमारे पास इतने साधन नहीं थे कि एकदम से बड़ा यूनिट शुरू कर दें। अभी भी हमारी टीम घर से ही काम करती है। हमने कहीं से लोन भी नहीं लिया, बस जो धीरे-धीरे कमाया उसी को री-इन्वेस्ट करके खुद को आगे बढ़ा रही हूँ।”
पहाड़ी महिलाओं को बना रहे हैं आत्मनिर्भर
दिव्या कहतीं हैं कि पैसों से भी ज्यादा उन्हें इस बात की ख़ुशी है कि वह पहाड़ों की ज़रूरतमंद महिलाओं के जीवन में बदलाव ला रहीं हैं। दिव्या के यहाँ काम करने वाली 50 वर्षीया पार्वती बतातीं हैं, “यह मेरी पहली जॉब है। मुझे ख़ुशी है कि अब मैं अपने बेटे पर किसी भी चीज़ के लिए निर्भर नहीं हूँ। पहले मेरी ज़िंदगी घर तक ही सीमित थी लेकिन अब यहाँ पर आकर जीवन को एक नयी दिशा मिली है।”
इसी तरह, एक और महिला, रूपा बतातीं हैं कि उनकी शादी 14 साल की उम्र में हो गई थी। अपने बच्चों को पालने के लिए पहले वह तरह-तरह के काम करतीं थीं। कई किलोमीटर दूर चलके कभी जंगलों से लकड़ी इकट्ठा करना तो कहीं निर्माण कार्यों में पत्थर ढोना। पर अब वह एक सुरक्षित वातावरण में काम करतीं हैं।
इसके साथ ही, ये सभी महिलाएं अपनी सुविधा के अनुसार काम कर रही हैं। दिव्या बतातीं हैं कि उन्होंने इन महिलाओं के लिए काम के घंटे काफी फ्लेक्सिबल रखे हुए हैं। दिन में 4-5 घंटे वह उनके पास काम करतीं हैं। सभी महिलाओं को अपनी सहूलियत के हिसाब से आने की अनुमति है और अगर वह किसी दिन न आ पाएं तो अपनी बहन या बेटी को भेज देती हैं। घंटों के हिसाब से ही इन महिलाओं को उनके काम की तनख्वाह मिलती है।
दिव्या कहतीं हैं, “महिलाओं के पास बहुत से हुनर होते हैं। उन हुनर के दम पर वह अपनी एक पहचान बना सकती हैं। ज़रूरत है तो बस हिम्मत और हौसले की। हमारा उद्देश्य बहुत ज्यादा टर्नओवर कमाना नहीं है, मैं बस पहाड़ों में महिलाओं को सुरक्षित और स्थायी रोज़गार देना चाहतीं हूँ। साथ ही, लोगों को अपनी खेती को अपनी परम्परा को संवारने की ज़रूरत है। इससे पहाड़ों से पलायन रुकेगा और यहाँ पर फिर से हरे-भरे खेत और जंगल होंगे। बड़े-बड़े शहरों में काम की तलाश में भटकने से बेहतर हैं कि अपनों के बीच अपनी ज़मीन पर मेहनत की जाए।”
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संपादन - जी. एन झा