ये कहानी उन तीन लड़कियों और उनके कभी न थकने वाले हौसले की हैं जिसने एक गाँव की शिक्षा व्यवस्था की पूरी तस्वीर ही बदल कर रख दी। ये गाँव उत्तर प्रदेश में वाराणसी के नजदीक है। इन लड़कियों ने ताने भी सुने और अपमान भी सहा पर अपनी लड़ाई जारी रखी। उनकी कोशिशों का ही नतीजा है कि आज इस गाँव के ९०% बच्चे प्रतिदिन स्कूल जाते हैं।
तबस्सुम, तरन्नुम और रुबीना वो तीन लडकियाँ हैं जिन्होंने वाराणसी के पास स्थित गाँव सजोई की तस्वीर बदल दी। एक समय था जब इस गाँव का कोई बच्चा पढाई को गंभीरता से नहीं लेता था। लड़कियां स्कूल जाने की जगह घर पर रह कर अपनी माँ की घरेलु कामों में मदद करती थी और गाँव वाले शिक्षा की महत्ता समझने को तैयार ही नहीं थे।
“हमारे गाँव में कोई पढता ही नहीं था। हम तीन ही थे जिन्होंने स्कूल की पढाई पूरी की और इंटर में दाखिला लिया। बच्चे कभी गाँव से बाहर तक नहीं निकलते थे। हमारे गाँव में एक बस्ती थी इसलिए ज्यादातर बच्चे पढाई छोड़ कर काम करने लग जाते थे", तबस्सुम कहती है।
सजोई जैसे गाँव में जहाँ एक दिन के लिए खाना जुटाना भी मुश्किल था वहां पढाई कभी भी परिवारों की प्राथमिकता नहीं थी। खासकर लड़कियों के मामले में।
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“पर हम पढ़ सके जिसका सारा श्रेय हमारे माँ बाप के प्रोत्साहन को जाता हैं –वो कहती है।
इन लड़कियों ने मामले को अपने हाथ में लेने की ठानी। वो घर घर जाके बच्चों को स्कूल जाने के लिए प्रोत्साहित करने लगी । उन्होंने ह्यूमन वेलफेयर एसोसिएशन नामक वाराणसी के एक एन जी ओ से संपर्क किया जिसने इन लडकियों को ट्रेनिंग दी।
इन लड़कियों ने एक सार्वजानिक स्थल पर उन बच्चों के लिए स्कूल खोला जो कभी घर से बाहर नहीं निकले थे या किसी व्यक्तिगत परेशानी के कारण स्कूल जाना छोड़ चुके थे।
“शुरू में ये बहुत मुश्किल था। बच्चे आने को तैयार ही नहीं होते थे , पर हमने हार नहीं मानी। हम रोज़ उनके घर जाते और उन्हें स्कूल आने के लिए कहते। और आखिरकार ६ महीने की मेहनत के बाद बच्चे खुद ही स्कूल आने लगे –वो कहती है ।
पहले महीने उनके पास ३५ विद्यार्थी थे पर एक साल के बाद वहां १७० से भी अधिक विद्यार्थी थे जो प्रतिदिन स्कूल आते थे। पर लड़ाई अभी बाकि थी। सबसे मुश्किल काम लड़कियों को स्कूल वापस लाना था।
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“लड़कियों के बड़े हो जाने के बाद उनके माँ बाप उनको बाहर नहीं जाने देते थे। उन्हें लगता था कि स्कूल जाना समय की बर्बादी है क्यूंकि उस समय में वो घर के काम कर सकती थी ,” वो कहती है।
इनके पास उसका भी उपाय था क्यूंकि वो लड़कियों को पढ़ने के सपने को टूटने नहीं दे सकती थी । उन्होंने एक सिलाई सेंटर की शुरुआत की ताकि लड़कियों के परिवार उन्हें भेजने को तैयार हो जाये ।
“जब लड़कियां सिलाई सीखने आने लगी तो हमने उन्हें पढ़ाना शुरू किया। कई अभिभावकों ने इसका विरोध किया और कहा कि हम उन्हें क्यों पढ़ा रहे हैं। हम उन्हें कहते कि सिलाई में भी गणित की जरुरत होती है इसलिए उनका पढना जरुरी है “-तबस्सुम कहती है ।
अपनी हिम्मत और जज्बे से उन्होंने पूरे गाँव को बदल दिया। उन्होंने जब २००७ में अपने सेंटर की शुरुआत की थी तब मुश्किल से २ या ३ लोग ऐसे थे जो शिक्षित थे और आज ९०% लोग बच्चे जिनमे लड़कियां भी शामिल हैं, शिक्षित हैं ।
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लडकियों की असली जीत तो तब हुई जब बच्चों के साथ साथ उनकी माताओं ने भी शिक्षा में दिलचस्पी दिखाई। अब गाँव में कई औरतें हैं जो अंगूठा छाप थी पर अब हस्ताक्षर करने लगी हैं।
“पर ये सब आसान नहीं था। हमें कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। गाँव वाले हमें गालियाँ देते थे और कहते थे कि हम उनकी लड़कियों को बिगाड़ रहे हैं। हम जब भी घर से बाहर निकलते, लड़के हम पर फब्तियां कसते थे। हम घर जाकर खूब रोते थे। लेकिन हमारे माता-पिता ने हमारा बहुत साथ दिया। उनके बिना हम कुछ नहीं कर पाते ,” तबस्सुम कहती है।
एक समय ऐसा भी था जब उन्हें उस जगह को खाली करने को कहा गया जहाँ वो स्कूल चला रहे थे , इसलिए उन्होंने घर पर ही स्कूल चलाना शुरू कर दिया ।
“हमे बहुत दुःख होता था जब लोग कहते थे कि हम कुछ नहीं कर पाएँगे क्यूंकि हम लड़कियां हैं। पर हमने उन्हें गलत साबित कर दिया ,” वो कहती है।
जो लोग उनका मजाक उड़ाते थे और उन्हें ताने मारते थे आज वो भी मदद के लिए आगे आ रहे हैं। इन लड़कियों ने एक मदरसे को अंग्रेजी स्कूल बना दिया है।
“हम बच्चों को डिग्री नहीं दे सकते। इसलिए हम उन्हें बस तैयार कर रहे हैं कि वो अच्छी शिक्षा हासिल करें और अच्छे स्कुलो में जा सकें “-तबस्सुम कहती है ।
इन तीनो ने २५० से अधिक बच्चों को पढाया है और अभी भी हर साल बच्चे एडमिशन भी ले रहे हैं।
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पढ़ने के साथ ये लड़कियां अब अपनी ग्रेजुएशन पूरी कर रही हैं और साथ में इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में ट्रेनिंग भी ले रही हैं क्यूंकि उन्हें लगता है कि इस क्षेत्र में उन्हें काफी अवसर पारपत हो सकते हैं।
“हम लोगों से बस यही कहना चाहते हैं कि वो अपने बच्चों को पढने दे। और अपने गाँव के लिए जो कर सकते है करें ”तबस्सुम अंत में कहती है।