हुस्न-ए-समधन [उर्फ़: शौक़-ए-समधी]

ये लोकगीत न जाने कब से चले आ रहे हैं और न जाने किसने उन्हें लिखा है. लेकिन 'समधन का सरापा' यानी समधन के हुस्न का नखशिख वर्णन नज़ीर अकबराबादी ने अलग ही अंदाज़ में किया है.

समधनजी झलक दिखला के गयीं
जी भर के नज़ारा हो न सका
समधीजी तरसते रह ही गए
दीदार दोबारा हो न सका..

हमारे हिंदुस्तान में शादी भी क्या दिलचस्प वाकया होती है. इधर बन्ने का दिल बल्लियों उछल रहा है उधर बन्नी के पेट में तितलियाँ उड़ रही हैं. इधर दूल्हे का भाई एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रहा है कि बालों को किस तरह कटवाया जाए कि उसके बाँकपन से लड़कियों के दिल चाक हो उठें, इधर दुल्हन की बहनों में बहसें हो रही हैं कि चोली का गला कैसा हो और पीठ कितनी दिखानी है. दोनों तरफ़ के मुटियाते फ़ूफ़ाजी कसे कुर्ते में घुसने की कोशिशों में लगे हैं, ख़ालायें चाँदी होती ज़ुल्फ़ों में मेंहदी लगवा रही है. गरज यह कि सभी कौवे तोते बनने की फ़िक्र में हैं, भाभियों के मज़ाक देवरों-देवरानियों को शर्म से लाल कर रहे हैं, सालियाँ जीजाजी को फ़ैशन टिप्स दे रही हैं तो उनकी गरदन और अकड़ती जाती है. चहल-पहल, दौड़-भाग, दर्ज़ियों की ख़ुशामदें, फूलवालों को डाँट, किशोरों के दूर से सधते निशाने, ज़नानखाने की खनखनाती चहचहाहट, पान की पीकें, इत्र की बूँदें, मिठाइयों की महक, बच्चों की चीखें.. ऐसे शोरीले रंगीन आलम में आप सोचेंगे कि बेचारी दुल्हन की माँ हज़ार कामों में फँसी होगी और समधी जी अपना पैसे का बटुआ लटकाए जमाइयों के नखरे उठा रहे होंगे और घर की लड़कियों को सलीक़े से उठना-बैठना सिखला रहे होंगे तो हुज़ूर आप ग़लत हैं. हमारे समाज में समधी-समधन को ले कर इतने गीत हैं.. उनकी आपसी बातचीत की अदायें और शोख़ी को कतई नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है.

ढोलक की थाप पर अचानक ही मंडली गा उठती है:
तेरी सासू बड़ी छबीली,
इतउत नैन लड़ाये
उई माँ इतउत नैन लड़ाये
तेरा ससुरा बड़ा रंगीला, पान चाब इतराए,
उई माँ पान चाब इठलाये..

इस तरह के शादी के गीत आपको देश के हर प्रान्त में मिल जायेंगे. ये शरारती छेड़छाड़ एक अच्छे माहौल में ही होती है. इसका मतलब बस इतना है कि दोनों परिवार औपचारिकता को किनारे कर एक दूसरे के निकट आ जाएँ. समधीजी के जुमलों पर समधनजी शरमाती भी हैं और फिर पलट कर एक तेज़ तर्रार शोख़ी के साथ चुभता जवाब देती हैं तो समधीजी ही नहीं सभी लोगों के चेहरे पर मुस्कान बिखर जाती है.

नखराली, मतवाली समधन लागै एक पहेली
बोल्या समधीजी, जीवन भर जाणै किस विधि झेली

ये लोकगीत न जाने कब से चले आ रहे हैं और न जाने किसने उन्हें लिखा है. लेकिन ‘समधन का सरापा’ यानी समधन के हुस्न का नखशिख वर्णन नज़ीर अकबराबादी ने अलग ही अंदाज़ में किया है. उसकी एक बानगी देखिये:

भरे जोबन पे इतराती, झमक अंगिया की दिखलाती
कमर लहँगे से बल खाती, लटक घूँघट की भारी है.

लटकती चाल मदमाती, चले बिच्छू को झनकाती
अदा में दिल लिए जाती अजब समधन हमारी है

Vinay Pathak
नज़ीर अकबराबादी को उर्दू में नज़्म लिखने वाला पहला शायर गिना जाता है. इनके पहले फ़ारसी का ज़ोर था, शायरी दरबारी हुनर था. आम हिंदुस्तानी के लिए आम हिंदुस्तानी ज़बान में शायरी करना किसी को बर्दाश्त नहीं हुआ सभी बड़े शायरों ने उन्हें एकसुर में ख़ारिज कर दिया. लेकिन नज़ीर साहब ने साहित्य का एक बड़ा खज़ाना छोड़ा है जिसे सराहने वाले आज बढ़ रहे हैं. वे अरबी, फ़ारसी, पंजाबी, ब्रजभाषा, मारवाड़ी और पूरबी के भी जानकार थे. उनकी मृत्यु के दो सौ सालों बाद आज उनकी लोकप्रियता में दिन दूना रात चौगुना इज़ाफ़ा हो रहा है.

इनकी शोख़ क़लम का एक नमूना समाअत फरमायें जिसे विनय पाठक निहायत ही दिलरुबा अंदाज़ में पेश कर रहे हैं 🙂


लेखक –  मनीष गुप्ता

फिल्म निर्माता निर्देशक मनीष गुप्ता कई साल विदेश में रहने के बाद भारत केवल हिंदी साहित्य का प्रचार प्रसार करने हेतु लौट आये! आप ने अपने यूट्यूब चैनल ‘हिंदी कविता’ के ज़रिये हिंदी साहित्य को एक नयी पहचान प्रदान की हैं!


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