उफ़, उफ़्फ़ – ‘द’ टॉम ऑल्टर!

टॉम ऑल्टर की तरबियत (शिक्षा) उर्दू ज़ुबान में मसूरी में हुई. वे ख़ालिस भारतीय थे और अपने को अंग्रेज़ कहे जाने पर उन्हें अच्छा नहीं लगता था. कितना कुछ तो उन्हें ज़ुबानी याद था.

वो खुद सर से क़दम तक डूब जाते हैं पसीने में
मेरी महफ़िल में जो उनको, पशेमाँ देख लेते हैं
– सफ़ी लखनवी

टॉम ऑल्टर (Tom Alter) के घर से निकल कर हम तीनों बिल्कुल चुपचाप एक ओर चलने लगे. उनके घर से उर्दू स्टूडियो / हिन्दी कविता के लिए शूट कर के निकले थे. किस दिशा में और क्यों चलने लगे इसका भान नहीं था. हम तकरीबन दस मिनट तो निशब्द चलते रहे, एक दूसरे की ओर देखा भी नहीं। न ही इस बात का अहसास था कि इर्द गिर्द क्या हो रहा है, हम कहाँ हैं – महज़ शरीर चल रहे थे, ज़हन तो हम वहीं उन्हीं के घर छोड़ आये थे.

“मैं टॉम साहब से शादी करना चाहता हूँ”, उनके भव्य व्यक्तित्व की चकाचौंध में गुम मेरे मुँह से निकला. मुग्ध. बे-होशोहवास. सब शांत. सब साथ चलते रहे.

“मैं भी!” …..कोई तीन-चार मिनट बाद मालविका, मेरी पत्नि, ने एक ठण्डी साँस भरते हुए कहा.

“मैं भी!” …..गुरलीन ने सुर मिलाया.

ये मोहतरमा 23 साल की प्रोडक्शन असिस्टेंट थीं हमारे साथ!

‘मुम्बई आयी हूँ VJ बनने, देखना एक साल में छा जाऊँगी’ इस ख़याल की लड़की को हिन्दी कविता जैसे प्रोजेक्ट में क्या मज़ा आना था. जब छम्मकछल्लो बन कर इंटरव्यू के लिए आयी थी तब पता था कि ये लड़की दो दिन से ज़्यादा नहीं चलेगी यहाँ. हिंदी कविता जैसे प्रोजेक्ट से कहीं दूर की दुनियां में रहने वाली ये लड़की कैसे धीरे-धीरे हमारी तरह हिन्दी-उर्दू अदब के रूमान में फँस गयी थी और आज टॉम ऑल्टर साहब की दिलरुबा शख़्सियत के पाश में.

ये किस कि हुस्न की जल्वागरी है
जहाँ तक देखता हूँ रौशनी है

– सईद अख़्तर

प्रस्तुत वीडियो में देखिये किस मख़मली, स्निग्ध लहजे में टॉम साहब कैमरे के साथ फ़्लर्ट कर रहे हैं. उनकी आँखें किस क़दर ख़ुश हैं. उनका चेहरा अपने पीछे न जाने किन दिलचस्प ख़ज़ानों को छुपाए रखने की बेमानी कोशिश कर रहा है. उर्दू ज़बान की आलातरीन रवानी और बयानी, भारत की एक दिलफरेब भाषा का इससे बेहतर प्रवक्ता कोई और न था.

मज़े की बात यह थी कि टॉम साहब जानते थे कि उनसे मिलने वालों पर उनकी शख़्सियत का कैसा जादू चलता है. बात-बात पर टपकते मौज़ूँ शे’र सुनने वाले को अपने तिलस्म में बाँध ही लेते थे. टॉम ऑल्टर की तरबियत (शिक्षा) उर्दू ज़ुबान में मसूरी में हुई. वे ख़ालिस भारतीय थे और अपने को अंग्रेज़ कहे जाने पर उन्हें अच्छा नहीं लगता था. कितना कुछ तो उन्हें ज़ुबानी याद था. प्रस्तुत वीडियो में वे यूसुफ़ साहब (दिलीप कुमार) के साथ अपनी पहली मुलाक़ात की बातें कर रहे हैं. ‘अच्छी एक्टिंग का राज़ है अदब’, दिलीप साहब ने फ़रमाया था. ‘बिना शेर-ओ-शायरी में दख़ल रखे आप कैसे ज़िन्दगी समझ सकेंगे और कैसे अच्छी अदाकारी कर सकेंगे’. टॉम साहब में अदा तो भरपूर थी, हुस्ने-अदब की बारिशों में भी जी भर के भीगे थे वे.

हुस्न-ए-अदा भी खूबी-ए-सीरत में चाहिए,
यह बढ़ती दौलत, ऐसी ही दौलत में चाहिए

– दाग़ देहलवी

अदब या साहित्य अच्छे अभिनय का राज़ ही नहीं जीवन की हर विधा, हर पहलू, हर यात्रा, हर सपने, हर मंज़िल, हर धारा, हर साहिल, हर तन्हाई, हर महफ़िल में ख़ुशबू और रंग साहित्य से आता है. जीवन की गति वही होगी, जीवन की गाड़ी उसी पटरी पर चलेगी लेकिन साहित्य का प्रभाव आपके प्रत्येक जीवनानुभव, तमाम अहसासात, को अधिक समृद्ध कर देता है. प्रेम अधिक मदिर, अधिक प्रखर हो जाता है; उत्साह अधिक ऊर्जावान. सभी कलाएँ साहित्य के ओज से महकती हैं. टॉम साहब के रुपहले व्यक्तित्व और उनके अभिनय का श्रेय यक़ीनन उर्दू अदब में उनके दख़ल से आता है.

टॉम साहब से यूँ तो और भी मुलाक़ातें हुईं लेकिन वह पहली मुलाक़ात भुलाये नहीं भूलती. आज वे हमारे बीच नहीं हैं – लेकिन हैं तो सही. चलते चलते फ़िराक़ गोरखपुरी का एक शे’र समाअत फरमाएँ…

कुछ हुआ, कुछ भी नहीं और यूँ तो सब कुछ हो गया.
मानी-ए-बेलफ्ज़ है ऐ दोस्त दिल की वारदात.

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लेखक –  मनीष गुप्ता

फिल्म निर्माता निर्देशक मनीष गुप्ता कई साल विदेश में रहने के बाद भारत केवल हिंदी साहित्य का प्रचार प्रसार करने हेतु लौट आये! आप ने अपने यूट्यूब चैनल ‘हिंदी कविता’ के ज़रिये हिंदी साहित्य को एक नयी पहचान प्रदान की हैं!


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