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मैं एक आदमी हूँ.
कोई आदमी है, यह कैसे पता चलता है?
उसमें पुरुषत्व होता है. लिंग होता है.
फिर वो औरत कौन है जो मेरे अंदर रहती है?
मैं क्या आदमी ही हूँ?
एक पूरी की पूरी औरत रहती है मेरे अंदर
वैसे मुझे यूँ भी लगता है कि उस औरत के अंदर है एक पूरा का पूरा आदमी
और उसके अंदर के आदमी के अंदर..
* *
और तुम-?
तुम क्या औरत ही हो?
[वही जो लड़ते हुए चिल्लाती है
कि बस एक योनी की कमी है वरना तुमसे बड़ी औरत तो मैंने देखी ही नहीं;
वही, जो अपने किसी कारनामे पर इठला कर कहती है:
'देखा! बस लिंग नहीं है बेट्टे
वरना अपुन से बड़ा मर्द नहीं मिलेगा']
क्या तुम्हारे अंदर के मर्द के भीतर एक औरत नहीं है?
और उसके भीतर..?
* *
जवाब देना बच्चों की आदत है.
मेरा काम प्रश्न खड़े करना है.
तुम सब से सीखना भी है..
पाठकों में से कोई बताएगा कि अर्धनारीश्वर की परिकल्पना क्या है / क्यों है?
क्यों हमेशा कहा जाता है कि नारियों के लिए
आध्यात्मिक उत्थान ज़्यादा आसानी से संभव है.
पुरुष के लिए मुश्किल है.
लेकिन चारों ओर देखिए
औरतों का तमाम जीवन (अधिकतर) पुरुष के गिर्द गुज़रता है
पिता, बच्चे, पति, समाज के अनुसार आचरण में
- या फिर उनसे उलझने में और अपने को साबित करने में.
दोनों सूरतों में पुरुष प्रधान है.
यह दुनिया अभी आदमियों की बनायी है
इसीलिए स्त्री पूरी तरह अभिव्यक्त नहीं है
इसीलिए पुरुष भी पूरी तरह अभिव्यक्त नहीं है
स्त्रीत्व-निर्मित विश्व की परिकल्पना क्या है?
मातृसत्ता?
मातृसत्ता का मतलब क्या यह होगा कि औरतें राज करें?
अब क्या 'राज' पुरुषसत्ता की पैदावार नहीं है?
मातृसत्ता क्या है?
वैसे इस पर निबन्ध लिखे हैं विद्वानों ने..
वही विद्वान जो पुरुषसत्ता की परवरिश में खिले हैं.
पुरुष और स्त्री की मिली जुली सत्ता की परिकल्पना क्या होगी?
जो पुरातन परिकल्पनाएँ हैं उनकी आज के युग में, जब हम मानसिक तौर पर बहुत अधिक तरक़्क़ी कर चुके हैं, क्या व्यवहारिकता होगी?
* *
सर्वेक्षण से (और अनुभव से भी) पता लगा है कि लड़कियों को वे पुरुष अधिक पसंद आते हैं जो अपने स्त्रीत्व के संपर्क में हैं (men who are in touch with their femininity). पिछले दस बीस सालों में धीरे धीरे दुनिया भर में यह मान्य हो गया है कि लड़के भी घर का काम करें, खाना बनायें, अपनी माँ-पत्नियों को टीवी के सामने चाय ला कर दें. अब कोई मर्द फ़िल्म देखते हुए रो लेता है तो उसकी हँसी नहीं उड़ाई जाती. मर्द भी सजने-सँवरने में अब उतना शरमाते नहीं हैं - फेशियल भी करवा लेते हैं बिना दुनिया से छिपाए.
औरत तो कब से मर्दों के कपड़े (जी हाँ, एक ज़माने में जीन्स, कमीज़ और पतलून, मर्दों का पहनावा थीं), उनके जैसे जूते पहन ही रही हैं. काम पर भी जाती हैं, कमा कर भी लाती हैं. घर-बाहर के काम भी निबटा लेती हैं. मतलब यह कि वे अपने पुरुषत्व के संपर्क में हमेशा से रही हैं.. बल्कि होड़ रही है अपने आपको पुरुष से बेहतर नहीं तो बराबर साबित करने की. दुनिया भर में आज जितनी महिलायें रोज़गार में संलग्न हैं उतनी पहले नहीं थीं. अमेरिका में अब हाउस-हसबैंड को देख कर किसी को बहुत हैरानी नहीं होती.. स्त्रियों के सफ़लता के पैमाने वही हैं जो आदमियों के हैं.. उन्हीं की तरह आमदनी हो, उन्हीं की तरह जीवन-यापन.. यानि पुरुषसत्ता को पुरुष और नारी दोनों बराबरी से सींच रहे हैं.
कुल मिला कर सच्चाई यह है, मैं दोहरा रहा हूँ, कि आज की दुनिया में पुरुषसत्ता को पुरुष और नारी दोनों बराबरी से सींच रहे हैं.
अब जा कर पुरुष अपने स्त्रीत्व को स्वीकार रहा है
नारी कब से अपने पुरुषत्व को जानती रही है.
फिर क्या चक्कर है? फिर हम क्यों नहीं एक बेहतर विश्व और बेहतर समाज हैं? याद रहे आज पुरुष और नारी की दूरियाँ भी बढ़ रही हैं. विश्व के महानगरों में लगभग 38% लोग शादी नहीं करना चाहते. रिश्तों में बहुत टूटन है. पढ़े लिखे लोगों का एक साथ रहना बिलकुल भी आसान नहीं है. शादियाँ निभाना आज के समय में बहुत मुश्किल हो गया है. कहाँ छिपा है इसका हल?
असल प्रश्न क्या हैं आख़िर? स्त्री-पुरुष को साथ की आवश्यकता ही क्या है? विश्व को जनसंख्या बढ़ोतरी की तो कोई आवश्यकता है नहीं. उसके अलावा मानसिक तौर (बौद्धिक, व्यवहारिक और आध्यत्मिक) पर स्त्री और पुरुष एक दूसरे को पुष्ट करते हैं, इस बात में भी संदेह नहीं है. यह भी कहा जाता है कि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं. फिर अर्धनारीश्वर की परिकल्पना क्यों? विज्ञान भी कह चुका है कि मनुष्य का दिमाग दो हिस्सों में बँटा है एक पुरुषत्व का, दूसरा भाग स्त्रीत्व का वाहन है. तनाव, अवसाद, रोना-धोना लगातार बढ़ता जा रहा है दुनिया में - क्या इसका इलाज जीवन की परिकल्पना को नए तरीक़े से गढ़ने में छिपा है?
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मैं कुछ बताने के लिए नहीं सीखने के लिए भी लिखता हूँ. बहुत सारे विषय उठे हैं इस लेख में.. आप लोग कुछ कहें तो हम सब कुछ सीख सकेंगे:)
और तब तक यह वीडियो देखिये- हिन्दी कविता का एक प्रयोग है मिक्स्ड मीडिया कविता, इसमें हलीम ख़ान को साड़ी पहनने और नारी बन कर नृत्य करने में कोई गुरेज़ नहीं है:
लेखक - मनीष गुप्ता
फिल्म निर्माता निर्देशक मनीष गुप्ता कई साल विदेश में रहने के बाद भारत केवल हिंदी साहित्य का प्रचार प्रसार करने हेतु लौट आये! आप ने अपने यूट्यूब चैनल 'हिंदी कविता' के ज़रिये हिंदी साहित्य को एक नयी पहचान प्रदान की हैं!