हँसती खेलती गली, गुलाबी सर्दी में नर्म सूरज के नग़्मे गाती एक दोपहर, आँगन में खाट पर पड़े अलसाते पिता, गेंहू पछोड़ती माँ, रेडिओ पर अपने कमरे में ठुमके सुधारती बहन – फ़ोन की घण्टी बजती है और बेटे/ भाई के शहीद होने की ख़बर आती है. इस घर का मौसम हमेशा के लिए ख़ुश्क हो जाता है, खुशियों को उम्रक़ैद हो जाती है.
साहिर लुधियानवी की नज़्म ‘परछाइयाँ’ की पंक्तियाँ हैं:
‘तुम्हारे घर में क़यामत का शोर बर्पा है
महाज़े-जंग से हरकारा तार लाया है
कि जिसका ज़िक्र तुम्हें ज़िन्दगी से प्यारा था
वह भाई ‘नर्ग़ा-ए-दुश्मन’ में काम आया है’
ख़ून का बदला ख़ून क्यों न हो? द्रौपदी को दुस्शासन की छाती का ख़ून बालों में मले बिना सुकून कैसे हो? ‘ऐलाने जंग कर दो’ के नारे लगे. ‘परछाइयाँ’ नज़्म आगे कहती है कि ऐलाने-जंग कर दिया गया और सेना में भर्ती के दफ़्तरों में रौनक होने लगी:
‘बस्ती के सजीले शोख जवाँ, बन-बन के सिपाही जाने लगे
जिस राह से कम ही लौट सके उस राह पे राही जाने लगे
इन जाने वाले दस्तों में ग़ैरत भी गई, बरनाई (तरुणाई) भी
माओं के जवाँ बेटे भी गये बहनों के चहेते भाई भी’
आगे यह नज़्म कहती है:
‘बहुत दिनों से है यह मश्ग़ला सियासत का,
कि जब जवान हों बच्चे तो क़त्ल हो जायें।
बहुत दिनों से है यह ख़ब्त हुक्मरानों का,
कि दूर-दूर के मुल्कों में क़हत बो जायें
चलो कि चल के सियासी मुकामिरों से कहें,
कि हम को जंगो-जदल के चलन से नफ़रत है।
जिसे लहू के सिवा कोई रंग न रास आये,
हमें हयात के उस पैरहन से नफ़रत है’
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इस बार शनिवार की चाय में सुर्ख़ी जवानों के लहू की है. बहुतों की सोच दोराहे पर खड़ी है. युद्ध हो? लेकिन वे यह भी जानते हैं कि युद्ध में तो दोनों तरफ़ के और भी सिपाही मरेंगे, शायद जनता भी. इस्लामाबाद और दिल्ली से तो आदेश दिए जाएँगे – सियासतदारों के तो सियासती चूल्हे ही जलेंगे.
लेकिन फिर यह भी है कि चुप कैसे रहा जा सकता है? मन कैसे काबू में रहे, कुछ तो करना ही होगा, कुछ तो कहना ही होगा. यह भी इल्म है कि आँख के बदले आँख के चलते एक दिन पूरा विश्व अन्धा हो जाएगा. तो क्या चूड़ियाँ पहन कर बैठें? माफ़ कर दें क़ातिलों को? वो भी तो ठीक नहीं.
आप लोग किसी भी राय पर कायम रहें अथवा दुविधा में गलें लेकिन कोई दूर की सोच भी होनी चाहिए. नेपोलियन की हो या चंगेज़ ख़ान की सेना हो सबने हुक्मरानों की महत्वाकांक्षाओं के साथ प्रतिबद्धता रखते हुए विनाश ही बरपाया है. इतिहास देखें तो बर्बरता का जवाब और अधिक बर्बरता ही रहा है. हम क्या सीख सकते हैं ऐसे इतिहास से?
क्या हम सेना और सेना की ज़रूरत से ही छुटकारा नहीं पा सकते? किस दुनिया में रह रहे हैं हम, एक तरफ़ अमेरिका छाती पीट पीट कर 700 बिलियन डॉलर्स का रक्षा बजट रखता है और दूसरी ओर ओबामा को नोबल शांति पुरुस्कार दिया जाता है. क्या UN को और मज़बूत नहीं कर सकते? सामाजिक अराजकता और अपराध को रोकने के लिए प्रत्येक देश के पास अपनी पुलिस तो है ही, उनकी सीमाओं की सुरक्षा के लिए और अंतर्राष्ट्रीय मसले जैसे आतंकवाद निबटाने के लिए एक ही वैश्विक सेना हो बस. ना तो पाकिस्तान और उत्तर कोरिया के बंदरों के हाथ परमाणु बम होना किसी के भले का है, किसी भी दिन पता नहीं क्या अहित कर बैठें. और वो देश ही क्यों रूस, अमेरिका, चीन भी क्या करेंगे परमाणु हथियारों का? सेना की परिकल्पना ही इस विश्व के हित में अब नहीं है. और इस बात पर भी निबंध लिखे गए हैं – सेना विहीन विश्व कोई मुंगेरीलाल का सपना नहीं, यह संभव है और सबकी ज़रूरत भी.
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इधर सोशल मीडिया पर कहने की कोई सीमा भी है? कल एक माँ का स्टेटस था कि भारतीयों अपना ख़ून ठण्डा होने से पहले बजा दो दुश्मनों की ईंट से ईंट. और मैं यह भी जानता हूँ कि ये माँ अपने दोनों बेटों को अमेरिका भेजने के सपने देखती हैं, सेना में नहीं. क्या इनको अधिकार हो किसी और माँ के बच्चों को प्रतिशोध की आग में झोंकने का?
आज की कविता: साहिर लुधियानवी की परछाइयाँ :