ये ज़ुबाँ हमसे सी नहीं जाती : दुष्यंत कुमार [इंक़लाब की आवाज़ और टूटे हुए साज़ का दर्द भी]

आज शनिवार की चाय में मनोज बाजपेयी प्रस्तुत कर रहे हैं दुष्यंत कुमार जी की एक आग में बघारी हुई रचना!

“ये ज़ुबाँ हमसे सी नहीं जाती
ज़िन्दगी है कि जी नहीं जाती”

क्रांति के स्वर लिए कला का जन्म खीज, नाउम्मीदी, क्रोध, प्रेम, भटकाव, संघर्ष और अंत में आशा की एक किरण की झलक के साथ होता है. दुष्यंत कुमार की शायरी एक आम आदमी की बेचारगी का नुकीला पत्थर है जो सियासती आसमान में इस उम्मीद के साथ उछाला गया है कि आसमान में सूराख हो कर रहेगा. उनका मानना था कि पीर (पीड़ा) जब हद से बढ़ जायेगी तो पिघल के बह निकलेगी और हिमालय से निकली गंगा के समान सब कुछ छू कर ठीक कर देगी।

नैराश्य के जंगल में आशा के फूल खिलाने की बानगी देखें:

“एक खँडहर के हृदय-सी,एक जंगली फूल-सी
आदमी की पीर गूँगी ही सही, गाती तो है

एक चिंगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तो
इस दिये में तेल से भीगी हुई बाती तो है”

रामधारी सिंह ‘दिनकर’, फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’, मोहिउद्दीन मख़्दूम और दुष्यंत कुमार एक ही नगरी के बाशिंदे हैं, एक सी जकड़न के मारे हैं, एक सी लिज़लिज़ी मोरैलिटी और दमघोंटू सियासत में साँस लेते समाज को जगा देने वाली आवाज़ हैं. एक तरफ़ निज़ाम से शिकायत है:

“कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए
कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए”

तो दूसरी ओर उसी ग़ज़ल में आम इंसान की कितना भी सह लेने की आदत से कोफ़्त है:

“न हो कमीज़ तो पाँओं से पेट ढँक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए”

सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना जिसका मकसद नहीं था, और कोशिश थी कि बुनियाद हिल जाए, हर सीने में आग जल जाए, वो सता लें लेकिन हर मजबूर लाश विद्रोह के हाथ लहराते हुए उठ खड़ी हो.. फिर बेचारगी देखें जब समाज अपनी मुतमइनी में कहता है कि कुछ नहीं हो सकता ये पत्थर नहीं पिघलेंगे तब दुष्यंत बेक़रार हैं आवाज़ में असर के लिए. लेकिन फिर कभी नाउम्मीदी के बादल अर्श को ढक लेते हैं..

“… कल तक गोलियों की आवाज़ें कानों में बस जाएँगी,
अच्छी लगने लगेंगी,
सूख जाएगा सड़कों पर जमा हुआ खून !
वर्षा के बाद कम हो जाएगा
लोगों का जुनून !”

या फिर ये देखिये:
“मेले में भटके होते तो कोई घर पहुँचा जाता
हम घर में भटके हैं कैसे ठौर-ठिकाने आएँगे”

आदरणीय दुष्यंत जी,

आपके जाने के 43 साल बाद भी हालात ज़्यादा नहीं बदले हैं. ये लोग नहीं बदले हैं – अपना हक़ माँगने नहीं खड़े हो पाए हैं बेचारे, अभी भी घुटनों से पेट ढकते हैं – हाँ भीड़ बन का दूसरे धर्म वाले की खाल ज़रूर नोच आते हैं. हंटर इतने पड़े कि जैसा आपने कहा था, संगीत बन गए हैं. जूनून फ़ैशन बन गया है अब उसका नकाब घर बैठे ही पहन कर दुनिया में नाच सकते हैं..

अभी भी दहलीज़ से काई नहीं गई
अभी भी ख़तरनाक सचाई नहीं गई

चीख निकली फिर से तो भी मद्धम निकली
बंद कमरों को आज फिर से सुनाई नहीं गई

क्रांति की ग़ज़लें बजती हैं ज़ोरों शोर
अब भी सड़क पे चल के रुस्वाई नहीं गई

आग साँसों की हवा से बुझाई नहीं गई
सारे ख़ुदा शान से हैं, उनकी ख़ुदाई नहीं गई

स्वर्ग में आप फ़ैज़ साहब के साथ एक जाम चढ़ा लेना अपने जन्मदिवस पर. बाक़ी हम दोनों मुल्क अपने आपको खोखला करते ऐसे ही जीते रहेंगे और आप लोगों की ग़ज़लें अपने घर की बैठकों की दीवारों पर सजाते रहेंगे। हम कुछ नहीं बदलने देंगे ताकि आपकी शायरी सामयिक बनी रहे हमेशा।

अच्छा चलते हैं, फ़ेसबुक पर जाने का वक़्त हो गया है.
आपके ही देश की जनता

आज के वीडियो में मनोज बाजपेयी प्रस्तुत कर रहे हैं दुष्यंत कुमार जी की एक आग में बघारी हुई रचना:

लेखक –  मनीष गुप्ता

हिंदी कविता (Hindi Studio) और उर्दू स्टूडियो, आज की पूरी पीढ़ी की साहित्यिक चेतना झकझोरने वाले अब तक के सबसे महत्वपूर्ण साहित्यिक/सांस्कृतिक प्रोजेक्ट के संस्थापक फ़िल्म निर्माता-निर्देशक मनीष गुप्ता लगभग डेढ़ दशक विदेश में रहने के बाद अब मुंबई में रहते हैं और पूर्णतया भारतीय साहित्य के प्रचार-प्रसार / और अपनी मातृभाषाओं के प्रति मोह जगाने के काम में संलग्न हैं.


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