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24 साल पहले हुई कन्या भ्रूण हत्या ने बदली ज़िंदगी; अब तक 415 बच्चियों का जीवन संवार चुकी हैं यह डॉक्टर!

डॉ. हरशिंदर कौर पंजाब- हरियाणा की सीमा पर बसे एक गाँव जा रही थीं। इस क्षेत्र के ग्रामीण बुनियादी चिकित्सा सेवाओं से वंचित थे। डॉ. कौर बाल रोग विशेषज्ञ हैं और अपने पति, डॉ. गुरपाल सिंह के साथ एक कैंप में भाग लेने जा रही थी।

उस गाँव से यह दंपत्ति कुछ ही समय की दूरी पर था, जब उन्होंने कुछ आवाज़ें आती हुई सुनी और वह भी ऐसी जगह से, जो जानवरों के शवों के लिए आरक्षित थी। उत्सुकतावश, वे दोनों अपना रास्ता बदल कर इस आवाज़ की ओर जाने लगे और वहां पहुँच कर उन्होंने जो देखा, वह दिल दहला देने वाला था।

डॉ. कौर ने द बेटर इंडिया को बताया, “हमने देखा कि कुछ आवारा कुत्ते किसी ‘जीवित’ चीज़ पर टूटे हुए हैं और ये आवाज़ें यहीं से आ रही थीं। हमने थोड़ा गौर से देखा तो हम चौंक गये। वहां, हड्डियों के ढेर पर, एक नवजात बच्ची थी, जो मृत पड़ी थी। और उन कुत्तों ने उसे नोच दिया था।”

इस दृश्य को देखकर डॉ. कौर और उनके पति विचलित हो गये और इस घटना की खोजबीन के लिए उन्होंने गाँव वालों से संपर्क किया। उन्होंने उनसे पूछ कि ऐसा कैसे हो सकता है?

सबसे ज़्यादा चौंकाने वाला उनके लिए गाँववालों का उदासीन रवैया था। एक ग्रामीण व्यक्ति ने उन्हें बिना किसी पछतावे के बताया कि यह बच्ची किसी गरीब परिवार की होगी, जिन्हें बेटी नहीं चाहिए।

फोटो साभार: गुरपाल सिंह सचदेवा (फेसबुक)

इस घटना के पहले तक, डॉ. कौर और डॉ. सिंह पंजाब के आस-पास के इलाकों में मुफ्त चिकित्सा शिविर/कैंप आयोजित किया करते थे। शादी के बाद ही उन्हें पता चला कि वे दोनों ही समाज सेवा की भावना रखते हैं और उन्होंने साथ में अपने सामाजिक कार्यों को जारी रखने का फ़ैसला किया। 24 साल पहले घटी इस एक घटना ने डॉ. कौर का ध्यान चिकित्सा सेवा से हटा कर कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ़ और लड़कियों के अधिकारों की रक्षा के लिए लड़ने में लगा दिया।

साल 1994 में ‘प्री कन्सेप्शन और प्री नेटल डायग्नोस्टिक टेक्निक्स एक्ट’ (PCPNDT) पारित होने के बावजूद इन दोनों राज्यों में कन्या भ्रूण हत्या के हज़ारो मामले दर्ज किये गए हैं। 1996 से 1998 के बीच पंजाब में 51,000 और हरियाणा में 62,000 लिंग जांच कर गर्भपात कराने के केस रिकॉर्ड हैं।

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डॉ. कौर कहती हैं, “अल्ट्रासाउंड द्वारा लिंग जांच करना और इसके बाद भ्रूण हत्या हमारे देश में आम बात है जबकि यहाँ पीसीपीएनडीटी का क़ानून लागू है|”

वे आगे कहती है, “अगर बच्ची पैदा हो भी जाती है, तो भी बचपन से ही उसे नज़रंदाज़ किया जाने लगता है। जन्म के बाद, बेटियों को मुफ्त टीकाकरण के लिए नहीं लाया जाता, उन्हें पोषण और यहाँ तक कि बिमारी के समय मेडिकल सेवा से भी वंचित रखा जाता है।

इससे भी ज़्यादा चिंताजनक बात है लोगों में जागरूकता की कमी, जिसके कारण लड़की के जन्म के लिए उसकी माँ को दोषी ठहराया जाता है, जबकि मेडिकल तौर पर, पिता के शुक्राणु (स्पर्मस) बच्चे का लिंग निर्धारित करते हैं न कि माँ का अंडाशय (ओवेरी)!”

डॉ. कौर ने तय किया कि कन्या भ्रूण हत्या की समस्या का समाधान करने के लिए वे इसकी जड़ तक जायेंगी और गाँव के लोगों को प्रजनन(बच्चे पैदा करने में) में X और Y क्रोमोजोम की भूमिका के बारे में जानकारी देंगी। इसकी शुरुआत विभिन्न सामाजिक आयोजनों, गाँव की सभाओं, धार्मिक सभाओं, और शादी के समारोह के दौरान लोगों के बीच चर्चा करने से हुई।

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डॉ. कौर बताती हैं, “मैंने पटियाला के पास एक गाँव को केन्द्र बनाया, जहाँ मैंने पांच साल तक लोगों को अपना थीसिस/शोध समझाने में बिताये। उन्होंने इसे समझा और पांच साल बाद, यहाँ लड़कियों और लड़कों का अनुपात 845/1000 से बढ़ कर 1013/1000 तक आ गया। मैंने रंगीन धागों का इस्तेमाल कर एक क्रियात्मक तकनीक से गाँव के अनपढ़ लोगों को भी यह वैज्ञानिक सिद्धांत समझाया।”

बेशक, परिवर्तन होने में समय तो लगता है, पर डॉ. कौर ने भी लड़ने की ठान ली थी।

इसकी शुरुआत, पहले गाँव वालों को मानव प्रजनन (reproduction) का मूल बताने से की गयी, फिर कानून के बारे में जागरूकता फ़ैलाने पर काम हुआ और अंत में लोगों ने इस बात को समझा और अपनाना शुरू किया।

फोटो साभार: डॉ. हरशिंदर कौर (फेसबुक)

ट्रिब्यून इंडिया को इस पूरी प्रक्रिया के बारे में बताते हुए डॉ. कौर कहती हैं, “25 साल पहले, गाँव के लोग बेटियों को मारने को ले कर इतने सहज थे कि वे बिना किसी झिझक आपको वो जगह दिखा देते थे जहाँ भ्रूण को फेंका गया है। पर आज, उन्हें यह बोलने में भी डर लगता है।”

डॉ. कौर वैसे ही पीढ़ियों से चली आ रही पिछड़ी सोच और रुढ़िवादी परम्पराओं से लड़ रही थीं, पर अपने सहयोगियों से समर्थन न मिल पाना भी एक चुनौती थी। एक बार, उन्हें अस्पताल से अस्थायी रूप से सिर्फ इसलिए निकाल दिया गया था क्योंकि उन्होंने एक सार्वजनिक समारोह में अपने ही राज्य के “विरोध” में बोला था। पर फिर जल्द ही उन्हें उनकी नौकरी वापिस मिल गयी। फिर भी यह वाकया काफ़ी है यह बताने के लिए कि डॉ. कौर ने अपने इस धर्मयुद्ध में किस प्रकार की चुनौतियों का सामना किया और आज भी कर रही हैं।

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छोटे ग्रामीण आयोजनों के अलावा डॉ. कौर ने बड़े पैमाने के मीडिया संचार मंचों पर भी भाषण देना शुरू किया, जिससे उन्हें पंजाब के आलावा दुनिया भर के लोगों तक पहुँचने में मदद मिली। धीरे-धीरे उनके काम ने जोर पकड़ा और उन्हें ग्रामीण इलाकों के उत्थान के लिए अपने जैसे और भी लोगों का सहयोग मिलने लगा।

भ्रूण हत्या के विरुद्ध उठायी गयी डॉ. कौर की आवाज़, जेनेवा के मानवाधिकार सम्मलेन, ऑस्ट्रेलिया के संघीय संसद, कनाडा की संसद और टोरंटो के अन्तराष्ट्रीय सम्मेलन तक पहुंची। इस “धी पंजाब दी” (पंजाब की बेटी) ने राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय मंच पर कई पुरस्कार भी जीते हैं। केंद्रीय महिला और बाल कल्याण मंत्रालय द्वारा पुरस्कृत 100 सफल महिलाओं की सूची में भी इनका नाम दर्ज है।

जैसे- जैसे उनके प्रयासों से लिंग-भेद भ्रूण हत्या के मामलों कम हुए, उन्होंने महिला उत्थान के लिए अन्य क्षेत्रों में भी काम करना शुरू कर दिया।

दहेज़ प्रथा के खिलाफ़ आवाज़ उठाना इनमे से एक था।

वे द बेटर इंडिया को बताती हैं, “मैंने पाया कि भारतीय महाद्वीप में दहेज़ भारत के साथ-साथ चीन एवं अन्य देशों में भी लड़कियों के साथ भेदभाव का मुख्य कारण है।”

वे आगे बताती हैं, “विदेशों में रहने वाले कुछ भारतीय, शोषण के इस अवैध साधन को अपने साथ विदेश की धरती पर भी ले गए हैं। इस समस्या से निपटने के लिए हमने कनाडा में “नो डाऊरी” अभियान शुरू किया और इसे अन्य देशों में में फैलाया, जहाँ भारतीयों की अधिक जनसँख्या है। अब तक, करीब 55,000 लड़के और लड़कियों ने दहेज़ लेने और देने से परहेज करने का संकल्प किया है। कनाडा, युएसए, होंगकोंग, मलेशिया, युरोप,और भारत के विद्यार्थियों ने मेरा साथ दिया और अब तक करीब 800 बच्चों ने संकल्प को पूरा किया है।”

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साल 2008 में, अपने पति और दोस्तों के साथ मिल कर डॉ. कौर ने ज़रूरतमंद लड़कियों को अच्छी शिक्षा देने के मकसद से ‘डॉ. हर्ष चैरिटेबल ट्रस्ट’ की शुरुआत की। पिछले 10 सालों में, इस ट्रस्ट ने 415 लड़कियों को पढ़ाई के लिए आर्थिक मदद देने की ज़िम्मेदारी उठायी है। कुछ लड़कियाँ किसान समुदाय से आती हैं जहाँ घर के मुखिया ने आत्महत्या कर ली है। इनमें दो लड़कियाँ कारगिल शहीद की बेटी भी थीं जिन्हें ट्रस्ट ने तब तक वित्तीय सहायता प्रदान की, जब तक इन शहीदों की पत्नी को सरकार द्वारा मुआवजा नहीं मिला।

लोगों को बताने के लिए कि किस प्रकार एक औरत की कोशिश से हज़ारों ज़िंदगियाँ सुधर सकती हैं, डॉ. कौर ने किताबें भी प्रकाशित की है। 52 साल की उम्र में भी उनका जोश कम नहीं हुआ है। आज भी वे पूरी दुनिया से मिल रहे समर्थन से अपने देश के कई हिस्सों में बदलाव लाने में जुटी हैं।

अगर आप डॉ. कौर की कोशिशों में उनका सहयोग करना चाहते हैं तो आप उनसे drharshpatiala@yahoo.com पर संपर्क कर सकते हैं। उन्हें आपके सवालों का जवाब देने, अपने अनुभव आपके साथ साझा करने, और आपको पंजाब व हरियाणा की स्थिति समझाने में ख़ुशी होगी!


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