अक्सर अपने करीबियों के गुजर जाने के बाद लोग टूट जाते हैं और अवसाद का शिकार होने लगते हैं। लेकिन कुछ ऐसे लोग भी होते हैं, जो अपने जीवन के हादसों से प्रेरणा लेकर एक नयी राह बनाते हैं। जैसा कि पंजाब के फिरोजपुर में रहने वाले 45 वर्षीय दीपक शर्मा कर रहे हैं। साल 2017 में दीपक शर्मा ने अपने 16 साल के बेटे, मयंक को एक सड़क दुर्घटना में खो दिया। इस घटना ने उन्हें और उनके परिवार को हिलाकर रख दिया था।
लेकिन अपने दुःख को समेटकर उन्होंने एक नयी शुरुआत की और फैसला किया कि वह अपने बेटे को लोगों की यादों में, उनकी दुआओं में जीवित रखेंगे। इसलिए उन्होंने अपने बेटे के नाम पर ‘मयंक फाउंडेशन‘ की शुरुआत की। इस फाउंडेशन के जरिए वह लोगों को सड़क सुरक्षा के बारे में जागरूक करते हुए हेलमेट, रिफ्लेक्टर आदि बांटते हैं। रोड सेफ्टी के अलावा, वह बच्चों को शिक्षा, कला और खेल के क्षेत्र में भी आगे बढ़ाने में मदद कर रहे हैं। आज चार साल बाद आलम यह है कि न सिर्फ उनका परिवार बल्कि उनके शहर के सैकड़ों परिवार मयंक को याद करते हैं।
द बेटर इंडिया से बात करते हुए दीपक ने कहा, “7 अक्टूबर 2017 को मैंने अपने बेटे को खोया था। उसके जाने के बाद, लगभग छह महीने तक हमारे परिवार का जीवन एकदम रुक ही गया था। हमने बाहर निकलना, लोगों से मिलना-जुलना छोड़ दिया था। लेकिन मेरे दोस्तों और जानने वालों ने समझाया कि अगर मैं ही अवसाद से घिर जाऊंगा तो मेरी पत्नी और बेटी को कौन संभालेगा। धीरे-धीरे मैंने फिर से जिंदगी पर ध्यान देना शुरू किया। लेकिन समझ नहीं आ रहा था कि अपने मन से कैसे इस दुःख को कम करूं।”
ऐसे में, उन्होंने ‘मयंक फाउंडेशन’ की शुरुआत की। कहते हैं न कि दुःख बांटने से कम होता है और खुशियां बांटने से बढ़ती हैं। दीपक ने भी यही किया और अपने बेटे के नाम से लोगों में खुशियां बांटने लगे। उनके इस अभियान में उनके दोस्त और बहुत से साथी भी जुड़ गए हैं। जिनमें अनिरुद्ध गुप्ता, राकेश कुमार, डॉ. ग़ज़ल प्रीत अरनेजा, मनोज गुप्ता, कमल शर्मा, दीपक ग्रोवर, अश्वनी शर्मा, संजीव टंडन, और विकास गुंबर जैसे नाम शामिल हैं। ये सभी लोग न सिर्फ फाउंडेशन के अभियानों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं बल्कि फंडिंग में भी अपना योगदान दे रहे हैं।
वह भयावह दिन
दीपक ने कहा, “मैंने बचपन से ही ऐसा समाज देखा, जो एक-दूसरे का हाथ थामकर आगे बढ़ता है। क्योंकि मेरे पिताजी नेत्रहीन थे और एक अंध विद्यालय में काम करते थे। माँ भी नेत्रहीन हैं। लेकिन उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि उनके बच्चों को अच्छी शिक्षा मिले। ग्रैजुएशन पूरी करने के बाद, मैंने अपनी एक अकेडमी शुरू की, जहां बच्चों को कोचिंग दी जाती थी। कुछ समय बाद मैं सरकारी स्कूल में शिक्षक नियुक्त हो गया तो मेरी पत्नी ने अकेडमी का काम संभाल लिया था।”
उनका जीवन बहुत ही अच्छा चल रहा था। अपनी बेटी, सुरभि और बेटे मयंक के लिए उन्होंने बहुत से सपने संजोये हुए थे। मयंक को बैडमिंटन खेलना बहुत पसंद था। दीपक बताते हैं कि वह दो बार जिला स्तर की प्रतियोगिताओं में भाग भी ले चुका था। 7 अक्टूबर 2017 को भी वह अपनी प्रैक्टिस के लिए ही जा रहा था। जब एक सड़क दुर्घटना में वह इस दुनिया से चला गया। “जिस सड़क पर मयंक का एक्सीडेंट हुआ, वहां से रोडवेज बस या ट्रकों के गुजरने पर मनाही है। लेकिन फिर भी कोई नियमों को नहीं मानता है। एक बस से टक्कर लगने के कारण हमने अपने बेटे को खो दिया,” उन्होंने कहा।
चलाया हेलमेट अभियान
अब दीपक की मयंक फाउंडेशन अभियान चलाकर लोगों को ‘रोड सेफ्टी’ के प्रति जागरूक कर रही है। फाउंडेशन से जुड़े दीपक ग्रोवर बताते हैं कि अलग-अलग मौकों पर उनकी टीम लोगों में मुफ्त में हेलमेट और रिफ्लेक्टर भी बांटती है। जैसे साल 2019 में दिवाली के मौके पर उन्होंने ‘हेलमेट वाली दिवाली’ अभियान चलाया और लोगों को प्रोत्साहित किया कि वे अपने जान-पहचान वालों को दिवाली के उपहार में हेलमेट दें। उन्होंने खुद भी 200 लोगों को हेलमेट बाटें। सर्दियों के मौसम में जब धुंध ज्यादा होती है तो वे लोगों को अपनी गाड़ियों में लगाने के लिए रिफ्लेक्टर भी बांटते हैं।
दीपक ग्रोवर कहते हैं, “ऐसा नहीं है कि हम सिर्फ दूसरों को बदलने के लिए कह रहे हैं। हम सबमें पहले से बहुत बदलाव आया है। हम बिना हेलमेट पहने बाइक-स्कूटर पर नहीं निकलते हैं। बिना बेल्ट लगाए गाड़ी नहीं चलाते हैं। हम शहर के स्कूल और कॉलेजों में जाकर छात्रों को भी जागरूक करते हैं। उन्हें समझाते हैं कि 18 से कम की उम्र के बच्चे वाहन न चलाएं और जो बालिग बच्चे वहां लेकर निकलते हैं वे सड़क सुरक्षा नियमों का पालन करें। हमने स्कूल में शिक्षकों को भी बच्चों को समझाने और यह चेक करने के लिए प्रोत्साहित किया कि कोई नाबालिग बच्चा तो स्कूल बाइक लेकर नहीं आ रहा है।”
सरकारी स्कूल की छात्राओं के लिए स्कॉलरशिप
साल 2020 में जब कोरोना महामारी फैली और लॉकडाउन लगा तो मयंक फाउंडेशन ने लगभग 32000 फ़ूड किट तैयार करके गरीब और जरूरतमंद लोगों तक पहुंचाई। वह कहते हैं कि अपनी तरफ से उनके सभी साथियों ने कोशिश की कि उनके आसपास कोई भी व्यक्ति भूखा न सोए। सफाई कर्मचारियों को उन्होंने मास्क और हैंड सैनिटाइजर बांटें ताकि काम करते हुए वे खुद को सुरक्षित रखें। इस दौरान बच्चों की शिक्षा पर भी काफी ज्यादा असर पड़ा। “हमारी कोशिश हमेशा रही कि अगर किसी बच्चे को शिक्षा के लिए मदद की जरूरत है तो हम वह मदद कर पाएं। इसलिए फाउंडेशन के जरिए हम जरूरतमंद बच्चों में कॉपी-किताब और स्टेशनरी भी बांटते हैं,” उन्होंने कहा।
लेकिन पिछले साल से उन्होंने एक अलग मुहिम शुरू की- ‘प्रतिभा गर्ल्स स्कालरशिप’। मयंक फाउंडेशन द्वारा सरकारी स्कूल में पढ़ने वाली छात्राओं को, जिन्होंने 10वीं और 12वीं, दोनों सरकारी स्कूल से अच्छे नम्बरों से पास की हैं, उन्हें 10 हजार रूपए की स्कॉलरशिप दी गयी। उन्होंने बताया कि पिछले साल उन्होंने 13 छात्राओं को चुना था और इन्हें कुल एक लाख तीस हजार रुपए की मदद मिली। इन लड़कियों को ग्रैजुएशन पूरी होने तक हर साल 10 हजार रुपए दिए जायेंगे। इसी तरह, उन्होंने इस साल भी 13 सरकारी स्कूलों की मेधावी छात्राओं को चुना है।
“हमारी कोशिश बेटियों को आगे बढ़ाने की है। खासकर कि सामान्य घरों की बेटियां जो आगे चलकर अपने परिवार का सहारा बन सकती हैं,” उन्होंने कहा। इसके अलावा, अपने बेटे की याद में उन्होंने बैडमिंटन चैंपियनशिप करवाना भी शुरू किया। साथ ही, उन्होंने अपने बेटे की स्मृति में मयंक शर्मा स्पोर्ट्स एक्सीलेंस अवॉर्ड, मयंक शर्मा एजुकेशनल एक्सीलेंस अवॉर्ड की भी शुरुआत की है।
इन सबके साथ लोगों को पर्यावरण के प्रति जागरूक करने का भी काम दीपक कर रहे हैं। ‘Each one, Plant One’ अभियान के तहत उन्होंने 500 से अधिक पौधरोपण कराया है और उनके लगाए सभी पेड़-पौधे अच्छे से फल-फूल रहे हैं।
दीपक कहते हैं कि मयंक फाउंडेशन का एक ही उद्देश्य है। बच्चों के चेहरे पर मुस्कान बिखेरना और समाज में कुछ सकरात्मक बदलाव लाना। उन्हें अपने बेटे के जाने का बहुत दुःख है लेकिन इस कमी को वह दूसरों के जीवन में उजाला भरकर दूर करना चाहते हैं। अंत में वह सिर्फ यही संदेश देते हैं कि सड़क पर निकलते समय अपने साथ-साथ दूसरों की सुरक्षा का भी ख्याल रखें। अपने बच्चों के हाथ में गाड़ी देने से पहले उन्हें सड़क सुरक्षा के नियम समझाएं और इनका पालन करने के लिए भी कहते रहें।
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संपादन- जी एन झा
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